नई दिल्ली: पिछले साल अप्रैल में जब महामारी की दूसरी लहर पूरे देश में कहर ढा रही थी, तब मुंबई के एक होम बेकर ने अपना पूरा परिवार कोविड के कारण गंवा दिया था. उनके पिता और भाई की जान जहां इस बीमारी के कारण गई, वहीं उनकी मां के लिए कोविड से उबरने के बाद की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं जानलेवा साबित हुईं.
32 वर्षीय बेकर ने बताया, ‘अपने पिता और भाई की मृत्यु के दौरान मैं अस्पताल में था और कोविड से जूझ रहा था. उनका अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाया. मेरे करीबी परिजनों ने जो कुछ भी संभव था करने की कोशिश की लेकिन उन दोनों को दफना दिया गया.’
बेकर ने बताया, हालांकि, अगर उनके पिता के लिए संभव होता तो वे यही चाहते कि उनका अंतिम संस्कार अलग तरीके से हो. एक पारसी होने के नाते उसके पिता अपने लिए दोखमेनाशिनी ही चाहते.
जरथुस्त्र लोगों के जातीय समूह पारसी के बारे में माना जाता है कि ये फारस—मौजूदा समय के ईरान—से भारत आए थे. ये सातवीं शताब्दी के आसपास अपनी मातृभूमि पर मुस्लिमों के कब्जे के बाद उत्पीड़न से बचने के लिए यहां आए और भारत में उनका पहला पड़ाव गुजरात था.
बेकर ने बताया, ‘मेरे पिता एक सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने पारसी परंपराओं के संरक्षण के लिए बहुत कुछ किया. हालांकि, मैं महामारी की स्थिति के कारण तमाम तरह की बाध्यताओं को समझता हूं, लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि मेरे पिता अपने लिए दोखमेनाशिनी ही चाहते.’
दोखमेनाशिनी प्रक्रिया के तहत शव को दखमा—जिसे अंग्रेजी में टॉवर ऑफ साइलेंस कहते हैं, जहां पारसी लोगों के शवों को उनके रीति-रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है—में ऊपर टॉवर पर छोड़ दिया जाता है और वहां मंडराते गिद्ध उसे अपना भोजन बनाते हैं और हड्डियां धीरे-धीरे डिकंपोज हो जाती है.
हालांकि, महामारी के दौरान सरकारी प्रोटोकॉल के तहत कोविड पीड़ितों के दाह संस्कार या दफनाने की ही अनुमति होने के कारण पारसियों को भी इस तरह के अंतिम संस्कार से वंचित कर दिया गया था.
दिसंबर में सूरत पारसी पंचायत ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर कोविड के शिकार बने पारसियों के लिए दोखमेनाशिनी संस्कार की छूट देने की गुहार लगाई थी. एसोसिएशन ने मई में गुजरात हाई कोर्ट में भी यही अपील की थी, लेकिन हाई कोर्ट ने मामले को ‘अकादमिक’ और ‘विदाउट मेरिट’ मानते हुए खारिज कर दिया था.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को निपटाने के गुजरात हाई कोर्ट के तरीके से असहमति जताई लेकिन साथ ही कहा कि सरकार के कोविड प्रोटोकॉल के मद्देनजर अंतिम संस्कार की प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत होगी. शीर्ष कोर्ट ने इस मामले पर केंद्र से जनवरी के दूसरे सप्ताह तक जवाब मांगा है.
‘मई तक कोविड ने 178 पारसियों की जान ली’
ट्रस्टी नोशीर एच. दादरावाला ने कहा कि बॉम्बे पारसी पंचायत के सदस्य मामले पर विचार कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि मुंबई के पारसियों को भी ‘इस मुद्दे ने भावनात्मक रूप से काफी प्रभावित’ किया है.
उन्होंने उम्मीद जताई कि इस मामले में एक सकारात्मक फैसला पूरे देश के पारसी समुदाय पर असर डालेगा, इससे ‘उन्हें कोविड के कारण जान गंवाने वाले अपने समुदाय के लोगों का अंतिम संस्कार पारसी तरीके से ही करने का अधिकार मिलेगा.’
अंग्रेजी भाषा वाले एक प्रमुख पारसी प्रकाशन परसियाना में मई 2021 में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक, ‘मार्च 2020 में देश में कोरोनावायरस महामारी की शुरुआत के बाद से (कोविड के कारण) समुदाय के कम से कम 178 सदस्यों का निधन हुआ है.’
हालांकि, महामारी से पहले भी पारसियों के एक वर्ग की तरफ से शव को दफनाने और दाह संस्कार करने की प्रक्रिया अपनाई जा रही थी, लेकिन ऐसा मुख्यत: दो कारण से किया जाता रहा है. पहला टॉवर ऑफ साइलेंस का अभाव, जैसे दिल्ली में इसकी व्यवस्था नहीं है, और दूसरा हालिया कारण रहा है गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण दोखमेनाशिनी के तहत शवों के डिकंपोज होने में जरूरत से ज्यादा समय लगना.
बॉम्बे पारसी पंचायत ने शवों के अंतिम संस्कार में मदद के लिए दखमा में सौर पैनल भी लगा रखे हैं. लेकिन दादरावाल ने कहा, इसके बावजूद महामारी से पहले भी समुदाय के कुछ ही लोगों ने मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए यह विकल्प चुना, उनकी संख्या ‘नगण्य’ ही रही है.
उन्होंने कहा, ‘भारत में पारसियों की एक बड़ी आबादी को दोखमेनाशिनी प्रक्रिया अपनाना ही पसंद है और धर्म और शास्त्रों में इसे ही मान्यता दी गई है.’
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‘सिर्फ आस्था की बात नहीं, आत्मा की यात्रा की चिंता भी है’
7 मई 2021 को परसियाना ने ‘ए ग्रेव मैटर’ शीर्षक से एक संपादकीय में सूरत के एक व्यक्ति का जिक्र किया, जिसने कथित तौर पर एक फर्जी पत्र बनाया था जिसमें कहा गया था कि गुजरात हाई कोर्ट की तरफ से सूरत पारसी पंचायत क कोविड के शिकार पारसियों के लिए दोखमेनाशिनी की अनुमति दी गई है.
दादरावाला ने समझाया, ‘दोखमेनाशिनी केवल शव के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि इसे आत्मा की यात्रा का एक आवश्यक हिस्सा भी माना जाता है.’
टॉवर ऑफ साइलेंस पर शव को छोड़ने के साथ दिवंगत आत्मा के लिए प्रार्थना भी की जाती है. मुंबई निवासी एक पारसी हनूज मिस्त्री ने कहा, ‘दोखमेनाशिनी का मतलब है किसी पारसी का मृत शरीर दखमा (टॉवर ऑफ साइलेंस) में छोड़ना ताकि सूर्य की रोशनी उसे सुखा दें. इसके तहत दिवंगत आत्मा को सुकून पहुंचाने और उसे दूसरी दुनिया की अपनी यात्रा के लिए तैयार करने के लिए चार दिनों का अनुष्ठान भी होता है.’
मिस्त्री ने आगे कहा, ‘जिनका दाह संस्कार होता है या जिन्हें दफन किया जाता है, यानी जिनके लिए दोखमेनाशिनी प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती, वे आम तौर पर धार्मिक नियमों के अनुसार चार दिनों के इस अनुष्ठान के हकदार भी नहीं बन पाते हैं.’
उन्होंने कहा कि महामारी की दूसरी लहर में कोविड के कारण तमाम परिवारों को न केवल अपने प्रियजनों को गंवाना पड़ा बल्कि उनका उचित तरीके से अंतिम संस्कार न कर पाने पर मानसिक पीड़ा भी सहनी पड़ी.’
प्रेयर हॉल ट्रस्ट के अध्यक्ष के अलावा वर्ल्ड जोरोस्ट्रियन ऑर्गनाइजेशन ट्रस्ट के भी अध्यक्ष दिनशॉ ताम्बोली ने कहा कि 2015 में मुंबई के वर्ली श्मशान के निकट एक प्रेयर हॉल बनाया गया था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि जिन लोगों का दाह संस्कार होता है, उनके लिए अंतिम प्रार्थना भी की जा सके.
यह महामारी के दौरान लोगों के लिए उपलब्ध था. प्रेयर हॉल ट्रस्ट की तरफ से साझा किए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2020-21 में हॉल में 117 कोविड पीड़ितों के लिए प्रार्थना की गई.
लेकिन फिर भी जिनकी जान कोविड के कारण गई, उनकी दोखमेनाशिनी प्रक्रिया में असमर्थ रहने को लेकर समुदाय के रूढ़िवादी लोगों में बेचैनी बनी हुई है.
‘पारसियों के लिए अग्नि बेहद पवित्र है’
मई में परसियाना ने देश के 11 शहरों में कोविड के कारण जान गंवाने वाले पारसियों के बारे में पूरा आंकड़ा दिया था.
मुंबई में 105 मौतों की सूचना दी गई जबकि सूरत में 26, नवसारी में 22, अहमदाबाद और पुणे में 7-7, दिल्ली में 4 (भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी सहित, जिनकी अप्रैल 2021 में कोविड के कारण मौत हुई), नागपुर में 3, कोलकाता और हैदराबाद में 2-2 मौतें हुईं और चेन्नई और बेंगलुरू में आंकड़ा शून्य रहा.
सूरत पारसी पंचायत के ट्रस्टी और थिएटर से जुड़े पद्मश्री विजेता यज़्दी करंजिया का कहना है, ‘कोविड से जान गंवाने वाले पारसियों का उचित तरीके से अंतिम संस्कार न कर पाना समुदाय के लोगों के लिए काफी पीड़ादायक अनुभव है.’
उन्होंने बताया, ‘सूरत में करीब 3,000 पारसी रहते हैं, जिनमें से कम से कम 20 की महामारी के दौरान कोविड से मृत्यु हुई. उन सभी का दाह संस्कार किया गया. लेकिन हमें यह पसंद नहीं है. पारसियों के लिए अग्नि बेहद पवित्र और दैवीय होती है. जब हम पूजा करते हैं तो हम आग में धूप और चंदन जैसी चीजें चढ़ाते हैं. मृतकों को आग की लपटों में डालना हमें पसंद नहीं है.’
दादरावाला ने बताया कि जब शवों का विघटन शुरू होता है तो पारसी लोग उन्हें अशुद्ध मानते हैं, और इसलिए दोखमेनाशिनी को अंतिम संस्कार का सबसे अच्छा तरीका माना जाता है क्योंकि यह न तो आग को अपवित्र करता है और न ही पृथ्वी को.
परसियाना में 2021 में प्रकाशित लेखों और संपादकीय में इस विषय पर भी अच्छी-खासी बहस हुई है.
मुंबई के एक पारसी पादरी ने सुझाव दिया है कि समुदाय के कोविड पीड़ितों को डूंगरवाड़ी भूमि (टॉवर ऑफ साइलेंस के आसपास की भूमि) में दफनाया जा सकता है, हालांकि, यह सुझाव कथित तौर पर समुदाय के रुढ़िवादी लोगों को खास पसंद नहीं आया है.
दादरावाला ने कहा, ‘बंबई के पारसी अंग्रेजों के निमंत्रण पर गुजरात से यहां आए थे. कहा जाता है कि बंबई पहुंचने पर पारसियों ने अग्नि मंदिर (पारसी धर्मस्थल) स्थापित करने से पहले ही दखमा स्थापित करने के लिए जमीन मांगी थी.’
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