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Sunday, 17 November, 2024
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एक्सपर्ट पैनल ने की कुछ दिव्यांगता वाले लोगों को ICAS सिविल सेवा से बाहर करने की सिफारिश

महालेखा नियंत्रक द्वारा नियुक्त पैनल का कहना है, कि मांसपेशियों की दुर्बलता, ऑटिज़्म, सीखने के विकार या बौद्धिक दिव्यांगता, और मानसिक रोगों वाले लोगों को इसमें शामिल न किया जाए.

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नई दिल्ली: दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक महालेखा नियंत्रक द्वारा गठित एक्सपर्ट पैनल ने सिफारिश की है, कि कुछ ख़ास दिव्यांगताओं जैसे मांसपेशियों की दुर्बलता, ऑटिज़्म, सीखने के विकार, या बौद्धिक दिव्यांगता और मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को, इंडियन सिविल अकाउंट्स सर्विसेज़ (आईसीएएस) में ‘शामिल होने से बाहर’ रखा जाए.

आईसीएएस एक ‘ग्रुप ए’ सेवा है जो वित्त मंत्रालय में व्यय विभाग के अंतर्गत काम करती है.

वित्त मंत्रालय में सहायक महालेखा नियंत्रक (सीएजी) चारू गुप्ता ने, 24 दिसंबर को पैनल की सिफारिशें कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के अवलोकन के लिए उसके साथ साझा कीं. दिप्रिंट ने उस दस्तावेज़ को देखा है.

डॉक्टरों और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने ऐसे उम्मीदवारों को बाहर किए जाने की तीखी आलोचना की है, और दावा किया है कि ये सिर्फ सक्षमों को बढ़ावा देती है, और दिव्यांग तथा मानसिक रोगों वाले लोगों के साथ भेदभाव करती है.

वित्त सचिव टीवी सोमनाथन ये कहते हुए इस मुद्दे पर टिप्पणी करने से मना कर दिया, कि उन्हें सर्कुलर का ज्ञान नहीं है. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘मुझे उस सर्कुलर को देखने का अवसर नहीं मिला है, जिसकी आप बात कर रहे हैं. उसे देखने के बाद ही मैं कुछ टिप्पणी कर सकता हूं.’

दिप्रिंट ने फोन कॉल्स के ज़रिए चारू गुप्ता से भी संपर्क किया, लेकिन इस ख़बर के प्रकाशित होने तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला था.

पैनल की सिफारिशें

एक्सपर्ट पैनल जिसे काडर नियंत्रण प्राधिकारियों द्वारा, दिव्‍यांगजन अधिकार अधिनियम (पीडब्ल्यूडीज़), 2016 के कार्यान्वयन में चिन्हित पदों की नियमित समीक्षा के लिए विशेषज्ञ समिति कहा जाता है, उसने 2 जुलाई को बैठक करके अपनी सिफारिशों की सूची दी थी.

चारू गुप्ता द्वारा साइन किए गए दस्तावेज़ में कहा गया है, कि पैनल ने आईसीएएस के लिए ‘श्रेणी, कार्यात्मक वर्गीकरण, और शारीरिक आवश्यकता आदि की समीक्षा की’, और बैठक के मिनट्स में अपनी सिफारिशें पेश कीं.

बैठक की मिनट्स के अनुसार, जिन्हें दिप्रिंट ने देखा है, सिफारिशों की सूची में कहा गया है कि ‘कमज़ोर मांसपेशियों वाले व्यक्तियों को आईसीएएस में शामिल होने से बाहर रखा जाए, चूंकि उन्हें इंडियन सिविल अकाउंट सर्विसेज़ सेवा से जुड़ी ज़िम्मेदारियों के निर्वहन में कठिनाइयां पेश आएंगी.’

उसमें आगे कहा गया, ‘एक्सपर्ट कमेटी की सर्व-सम्मति से ये सिफारिश भी थी, कि ऑटिज़्म, बौद्धिक दिव्यांगता, सीखने के विशिष्ट विकार, और मानसिक रोग श्रेणी के लोगों को, जो दिव्‍यांगजन अधिकार अधिनियम,2016, के नियम 34 (1)(सी) में दिए गए हैं, उन्हें आईसीएएस के लिए निर्धारित भूमिका और दायित्वों के मद्देनज़र, इस सेवा में शामिल न किया जाए.

कमेटी में कौन एक्सपर्ट्स थे?

इस पैनल में अतिरिक्त सीजीए एम श्रीधरन, संयुक्त सीजीए सुमन बाला, सहायक सीजीए विमला नवारिया, दिव्यांग सशक्तीकरण विभाग के पूर्व निदेशक केवीएस राव, और नई दिल्ली के पीजीआईएमईआर आरएमएल अस्पताल के विशेषज्ञ मनोचिकित्सक डॉ आरपी बेनीवाल शामिल थे.

दिव्‍यांगजन अधिकार अधिनियम (आरडब्लूपीडी),2016, में कहा गया है, कि इसके कार्यान्वयन के लिए सीजीए को हर तीन वर्ष पर, चिन्हित पदों की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ पैनल गठित करना होगा.

एक्ट में ये भी कहा गया है कि हर सरकार को अपने हर प्रतिष्ठान में, सभी काडर्स के हर श्रेणी के पदों में, कम से कम चार प्रतिशत रिक्तियां, बेंचमार्क दिव्यांगता वाले व्यक्तियों से भरनी होंगी.

लेकिन, राव ने, जो अक्तूबर में रिटायर हुए, बताया कि एक्सपर्ट पैनल की सिफारिश थी कि कुछ ख़ास श्रेणी की दिव्यांगता वाले उम्मीदवारों को, केंद्रीय सरकार के पदों पर आरक्षण से बाहर रखा जाए.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘ऐसे उम्मीदवार अगर चाहें तो आवेदन कर सकते हैं, लेकिन वो आरक्षण का लाभ नहीं ले पाएंगे.

उन्होंने आगे कहा कि अगर ऐसे उम्मीदवार परीक्षा पास भी कर लेते हैं, तो वो मेडिकल आधार पर अयोग्य क़रार दे दिए जाएंगे, चूंकि उन्हें जॉब के लिए अनफिट माना जा सकता है.

राव ने कहा, ‘चूंकि ये एक क्लास-1 पद है, इसलिए वो व्यक्ति एक नेतृत्व की भूमिका में होगा, और उसे अपनी पूरी क्षमताओं की ज़रूरत होगी. विभाग ने मानदंडों का अध्ययन किया है, और अगर इन्हें कोर्ट में चुनौती दी जाती है, तो वो इनका बचाव कर सकते हैं. मसलन, अगर कोई ऐसा व्यक्ति अकाउंटिंग सेवाओं के लिए आवेदन करता है, जिसे सीखने से जुड़ी एक विशिष्ट दिव्यांगता डिसकैलकुलिया है, तो वो अपने काम के साथ न्याय नहीं कर पाएगा.’

उन्होंने आगे कहा कि तकनीकी प्रगति के साथ, देखने या सुनने में अक्षम उम्मीदवार अब कुछ पदों के लिए पात्र हैं, क्योंकि अपने सहायकों की सहायता से वो कंप्यूटर आदि का इस्तेमाल कर सकते हैं.

राव ने कहा, ‘जैसे जैसे हम और अधिक तकनीकी प्रगति देखते हैं, हम और अधिक दिव्यांगताओ को पात्रता मापदंडों में शामिल करते जाएंगे.’

‘भेदभावपूर्ण व्यवहार पैदा होता है’

एक्सपर्ट्स ने इस प्रस्ताव की कड़ी आलोचना की है और कहा है कि ऐसी दिव्यांगता वाले उम्मीदवारों के लिए, समान स्थितियां उपलब्ध नहीं कराई जा रही हैं.

डॉ सतेंद्र सिंह जो दिल्ली के जीटीबी अस्पताल में एक फिज़ियॉलजिस्ट हैं, जिन्हें एक दिव्यांगता भी है और जो दिव्यांगता अधिकारों के समर्थक हैं, उन्होंने दिल्ली में इसी महीने सुप्रीम कोर्ट द्वारा, मानसिक बीमारी बाइपोलर से ग्रस्त एक व्यक्ति को, ज़िला जज के पद पर नियुक्त किए जाने का हवाला दिया. उन्होंने कहा, ‘एक ओर हम ऐसे प्रगतिशील क़दम उठा रहे हैं, और दूसरी ओर, हम ऐसी दिव्यांगताओं वाले लोगों को सिविल सेवाओं से बाहर रख रहे हैं.’

उन्होंने कहा, ‘एक चीज़ होती है जिसे उचित सुविधा कहते हैं, जो किसी व्यक्ति की दिव्यांगताओं की भरपाई कर देती है. मेरी ही मिसाल लीजिए, मैं चलने के लिए कैलिपर्स का इस्तेमाल करता हूं. ये मेरी सहयोगी डिवाइस है, और इसकी सहायता से बतौर डॉक्टर मैं अपनी ज़िम्मेदारियां निभा सकता हूं. इसी तरह, कमज़ोर मांसपेशियों वाला व्यक्ति अपने काम को कुशलता से अंजाम देने के लिए, सहयोगी डिवाइस का इस्तेमाल कर सकता है.’

पुणे में सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी के निदेशक, डॉ सौमित्र पठारे ने भी इस क़दम का विरोध किया, और कहा कि उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराने के लिए, ‘मानसिक रोग’ जैसे बहु-अर्थीय शब्दों का इस्तेमाल करना अप्रासंगिक है.

उन्होंने कहा, ‘अधिनियम का सारा उद्देश्य ही ये था कि उम्मीदवारों का आंकलन इस तरह से किया जाए, कि दिव्यांगता के बावजूद उस काम को करने की उनकी क्षमता निर्धारित हो जाए. उनके चयन का मानदंड मानसिक बीमारी नहीं, बल्कि उनकी योग्यता होनी चाहिए. लेकिन यहां उन्होंने मान लिया है, कि मानसिक रोग वाले व्यक्ति, इस काम को बिल्कुल कर ही नहीं पाएंगे.’

पठारे ने आगे कहा, ‘इससे न सिर्फ भेदभाव का व्यवहार पैदा होगा, और सक्षमों को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि ये मानसिक स्वास्थय रोगों को कलंकित करने का काम भी करेगा. ऐसी नौकरियां पाने के लिए उम्मीदवार मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अपनी समस्याओं को छिपाने लगेंगे. और अगर सरकारी नौकरी पाने का मानदंड इस तरह से तय किया जाता है, तो आप सोच सकते हैं कि निजी क्षेत्र के लिए ये किस तरह की मिसाल पेश करेगा.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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