दिवाली-भाईदूज की छुट्टियों के बहाने वही उबाऊ राजनीति से अलग हट कर आइए कुछ बातें फिल्मों की कर लें और अपने ही पेशे पत्रकारिता के बारे में कुछ मीन-मेख निकालें. आजकल के संपादक ‘नटग्राफ’ की मांग करते हैं यानी आप अपने लेख का सार पहले ही पाराग्राफ में दे दें. सो, यह पेश है— इन दशकों में पत्रकारों के बारे में बॉलीवुड और लोक संस्कृति का नज़रिया किस तरह बदल गया है. 1950 के दशक में उन्हें बदमाशों का खेल खत्म करने वाले और हीरोइन का दिल जीतने वाले अच्छे आदमी के रूप में पेश किया जाता था, मगर आगे चलकर धूर्त, तिकड़मी, षड्यंत्रकारी, टीआरपी लोभी, लगभग जोकर के रूप में ही पेश किया जाने लगा.
आखिर यह बदलाव क्यों और कैसे आया? प्रायः कहा जाता है कि हिंदी सिनेमा (मैं केवल हिंदी ही जनता हूं) जनता के मूड और समाज में आ रहे बदलावों को पहले सूंघ लेता है. इसलिए 1950 और 1960 के दशकों का सिनेमा समाजवादी था. 1970 के दशक में वह लोक-लुभावनकारी हो गया और आर्थिक सुधारों के बाद के दौर में तो वह अमीरी के बेहिसाब शहरी आडंबर में उलझ गया.
यह विचार मुझे तब सूझने लगा जब लॉकडाउन के दिनों में दो बातें हुईं. एक तो हमने पहली बार अपने घर में स्मार्ट टीवी लगवाया और दूसरे, हमने ओटीटी प्लेटफार्म का इस्तेमाल शुरू किया. हमने आम टेली धारावाहिकों को देखने के अलावा 1950 और 1960 के दशकों की उन क्लासिक फिल्मों को देखा जिन्हें हम अभी तक नहीं देख पाए थे या बचपन में देखने के कारण उनकी कोई याद नहीं थी. फिल्मों का चयन ऐसे ही बेतरतीब किया या उन लोकप्रिय फिल्मी गानों के आधार पर किया जिन्हें कई पीढ़ियां गुनगुनाती रही हैं.
इसलिए पहली फिल्म चुनी 1958 की, राज खोसला की ‘कालापानी’. इसका चुनाव इसके दो यादगार गीतों ‘हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए’ और ‘अच्छा जी मैं हारी चलो मान जाओ ना’ के कारण किया गया. इसके हीरो देवानंद पत्रकार बने हैं, जो एक रक्कासा के कत्ल के झूठे आरोप में उम्रकैद झेल रहे अपने पिता को बरी करवाना चाहता है. वह बंबई से हैदराबाद पहुंचता है और पुराने अखबारों को खंगालने के लिए एक अखबार के दफ्तर पहुंच जाता है. पत्रकारीय दृष्टि से यह दिलचस्प मामला है, क्योंकि इस अखबार में मधुबाला ही रिपोर्टर का काम कर रही हैं. अब आप कल्पना कर सकते हैं कि कहानी कैसे आगे बढ़ती है और दोनों पत्रकरों की जीत होती है.
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देवानंद 1956 की, गुरुदत्त की फिल्म ‘सीआईडी’ में भी हीरो हैं. यह फिल्म भी ‘ले के पहला पहला प्यार’, ‘जाता कहां है दीवाने, सब कुछ यहां है सनम’, ‘कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना’ और ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया’ जैसे अपने गीतों के कारण अमर है. देवानंद इसमें पत्रकार नहीं बल्कि एक ईमानदार सीआईडी इंस्पेक्टर बने हैं और इतने निडर हैं कि अपने कमिश्नर की बेटी रेखा का, जिसका किरदार शकीला ने निभाया है, का पीछा करते हैं. लेकिन इसकी कहानी के केंद्र में एक कुशल संपादक है, श्रीवास्तव धमकियों और प्रलोभनों को ठुकराते हुए माफिया के पीछे पड़ जाता है. देवानंद को हत्यारे और मास्टरमाइंड को पकड़ने की ज़िम्मेदारी दी गई है और उन्हें अपने बॉस की रखैल की भूमिका निभा रहीं वहीदा रहमान से मदद मिलती है. अंत में सच्चाई और साहसी पत्रकारिता की जीत होती है.
तीसरा उदाहरण भी देवानंद की ही एक फिल्म का है. बेशक इससे यह जाहिर हो सकता है कि मैं उनका और सचिन देव बर्मन के संगीत का कितना बड़ा फ़ैन हूं. लेकिन राज खोसला की 1958 की फिल्म ‘सोलहवां साल’ में, जो ‘रोमन हॉलिडे’ फिल्म की नकल जैसी लग सकती है, देवानंद एक ईमानदार और चहेते रिपोर्टर प्राणनाथ की भूमिका में हैं. फिल्म में वे ट्रेन में सफर करते हुए हेमंत कुमार की आवाज में ‘है अपना दिल तो आवारा…’ गाते हुए एक लड़की (वहीदा रहमान) से टकरा जाते हैं, जो रिपोर्टर के साथ अक्सर होता है. वहीदा अपने परिवार की सारी थाती लेकर विलेननुमा प्रेमी के साथ भाग रही हैं. बहरहाल, कहानी अच्छी तरह आगे बढ़ती है और लड़की रिपोर्टर की हो जाती है.
अब देवानंद को छोड़कर राज कपूर- नरगिस की 1956 की सुपरहिट फिल्म ‘चोरी चोरी’ पर आते हैं. क्या आप आज भी उसके इन गीतों को नहीं गुनगुनाते?— ‘ये रात भीगी भीगी…’, ‘जहां मैं जाती हूं, वहीं चले आते हो’, ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम…’, ‘पंछी बनी उड़ती फिरूं मस्त गगन में’ आदि.
नरगिस अमीर बाप की बेटी बनी हैं, जो घर से भाग गई है और उसके पिता ने उसे खोज निकालने वाले को बड़ा इनाम देने की पेशकश की है. राज कपूर उसे ढूंढ़ निकालते हैं लेकिन वे पैसे के पीछे नहीं भागते. उन्होंने एक बेरोजगार, स्वतंत्र पत्रकार सागर की भूमिका निभाई है, जिसे नरगिस की कहानी बेहद दिलचस्प लगती है जिसे वह अपने संपादक को देकर अच्छी रकम पा सकता है. अंत क्या होता है, आप सोच सकते हैं, धन और लड़की दोनों उसकी हो जाती है.
इसी दशक की एक फिल्म है गुरुदत्त की ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’. इस फिल्म की याद आपको तब जरूर आ जाएगी जब मैं आपको इसका गाना ‘जाने कहां मेरा जिगर गया जी…’ की याद दिलाऊंगा. उसका विषय उस समय के लिए बहुत प्रासंगिक था, या आज की भाषा में उसे ‘वोक’ कह सकते हैं. उस साल हिंदुओं को तलाक देने का अधिकार दिया गया था. इसकी पेचीदा कहानी एक अमीर उत्तराधिकारी की भूमिका निभा रहीं मधुबाला और उनकी संरक्षक आंटी ललिता पवार के, जिन्हें दूध में मक्खी माना जाता था, के इर्द-गिर्द बुनी गई थी. बाकी आप फिल्म देखकर जान सकते हैं. गुरुदत्त एक बेरोजगार कार्टूनिस्ट बने हैं जो अपने दोस्त जॉनी वाकर के भरोसे जी रहा है और काम की तलाश में अखबारों के दफ्तर के चक्कर लगाता रहता है, जहां जॉनी वाकर फोटोग्राफर की नौकरी करते हैं. मेरा पसंदीदा सीन वह है जब ललिता पवार अपनी वार्ड के लिए संभावित दूल्हे गुरुदत्त को देखने जॉनी वाकर के कुंवारों वाले ठिकाने पर पहुंचती हैं.
‘तुम कोई नौकरी नहीं करते, कोई आमदनी नहीं है, क्या तुम्हें बुरा नहीं लगता?’
‘मेरे सिर के ऊपर छत है. मैं तीन शाम खाना खाता हूं. इस शहर में कई हैं जो मुझसे बुरी हालत में रहते हैं.’
पवार का पारा अब तक चढ़ चुका था, खासकर अस्त-व्यस्त कमरे और दीवारों पर बने कार्टूनों को देखकर. वे पूछ बैठती हैं, ‘तुम कहीं कम्युनिस्ट तो नहीं हो?’
‘नहीं, मैं कार्टूनिस्ट हूं’, गुरुदत्त जवाब देते हैं.
जाहिर है, कहानी वहीं खत्म होती है जहां कुछ ड्रामे के साथ खत्म होनी चाहिए. पैसे पर प्यार की जीत होती है, खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि पत्रकार बेहद ईमानदार है.
इसके बाद बदलाव शुरू हो जाता है. और मुझे ढूंढ़ने पर भी पिछले चार दशकों में ऐसी कोई फिल्म नहीं मिलती जिसमें पत्रकार को मूर्ख, विलेन, बेवकूफ़ के रूप में पेश करके उसका मज़ाक न बनाया गया हो. उसके लिए गालियों तक का प्रयोग किया गया है और गालियों को बीप की ध्वनि से ढकने का दिखावा तक नहीं किया गया है. यह आप 1983 की फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ में देख सकते हैं जिसमें अखबार की संपादक (भक्ति बर्वे) अमीरों और भ्रस्ट लोगों का भांडा फोड़ने के लिए अनाड़ी किस्म के दो फोटोग्राफ़रों (नसीरुद्दीन शाह और रवि बासवानी) का इस्तेमाल करती हैं. लेकिन अंत में वह सौदा करके उन दोनों को जेल जाने देती हैं.
इस बदलाव पर विचार करते हुए मैंने हाल के सिनेमा के बारे में अपनी अनभिज्ञता को भी पहचाना. वैसे, मैं हाल की ‘पीपली लाइव’ और ‘पीके’ जैसी फिल्में देखी हैं. अधिकतर फिल्मों में टीवी पत्रकारों का मज़ाक बनाया गया है. दुर्भाग्य से इन फिल्मों में महिला पत्रकारों को पेश किया गया है. एक झलक— निर्देशक राजकुमार हिरानी ने टीवी पत्रकारिता का मज़ाक बनाने के लिए उस छैले किरदार की कहानी दिखाई है जिसे अनुष्का शर्मा ने पर्दे पर पेश किया है, जो घर में उनका प्यारा साथी है.
इस बदलाव को समझने के लिए मैंने उन लोगों से बात की, जो आज के बारे में जानकारी रखते हैं, खासकर अपनी पूर्व सहकर्मी और सिनेमा विशेषज्ञ कावेरी बामजई से. दरअसल, जबसे टीवी पत्रकारिता की शुरुआत हुई है तभी से पत्रकारों के साथ बॉलीवुड का रोमांस भी फिर से शुरू हुआ है. करगिल युद्ध पर केंद्रित 2004 की फिल्म ‘लक्ष्य’ में प्रीति जिंटा ने पत्रकार बरखा दत्त से मिलते-जुलते किरदार को निभाया है. लेकिन इसके बाद से पतन शुरू हो गया है. अज़ीज़ मिर्ज़ा की फिल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ (2000 की) में शाहरुख खान हमें बताते है कि टीवी चैनलों के एंकर कैसी गड़बड़ियां करते हैं. 2020 की ‘पीपली लाइव’ तक आते-आते मीडिया को मूर्खतापूर्ण और टीआरपी का लोभी यानी एक बुराई के रूप में निरूपित कर दिया जाता है.
अब तो आप पत्रकारों की अच्छी छवि पेश किए जाने की कल्पना तक नहीं कर सकते, सिवाय ‘स्कैम 1992’ जैसी फिल्म के जिसमें खोजी पत्रकार सुचेता दलाल के किरदार का उपयोग किया गया है. यह 1992 के दौर पर आधारित सिरीज़ है. इसमें सुचेता का किरदार निभाने वाली बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री श्रेया धनवंतरी हॉट स्टार की फिल्म ‘मुंबई डायरीज’ में टीवी पत्रकार की भूमिका निभा रही हैं. इस फिल्म में वे 26/11 के आतंकवादी हमलों को कवर करती हैं और घोर अनैतिक काम करती दिखती हैं. इसमें उन हालात को सांप्रदायिकता के रंग में रंगने की अति कर दी गई है.
और, क्या अपने ‘पाताल लोक’ फिल्म देखी है? हमने लॉकडाउन के दौरान देखी. इसमें ऐसे संपादक को पेश किया गया है जो अपनी ही छवि, ताकत और सेक्स अपील पर इतना फिदा है कि उसे सच्चाई की कोई परवाह नहीं है. मेरे खयाल से नेटफ्लिक्स निर्मित राम माधवानी की अगली फिल्म ‘धमाका’ में एक टीवी एंकर प्राइम टाइम में वापस आने के लिए एक ‘बम धमाके’ का इस्तेमाल करता है. ‘चक दे’ फिल्म में भी मीडिया को लापरवाह, अनैतिक दिखाया गया है.
‘पा’ में अमिताभ बच्चन एक नेता और पिता के किरदार में मीडिया पर बरसते नज़र आते हैं, जबकि हिरानी अपनी फिल्म ‘संजू’ में संजय दत्त के जीवन में मीडिया को एकमात्र असली खलनायक के रूप में पेश करते हैं. बेशक अंत में ‘पत्रकार’ ‘मां’ ‘बहन’ को ‘मुबारकवाद’ भी दिया गया है. हमारी लोक संस्कृति में पत्रकारिता, खासकर महिला पत्रकारों का दर्जा सोशल मीडिया पर उनकी निंदा और उन पर हमलों के कारण गिरा है.
अब हम क्या कर सकते हैं? इसका जवाब 1950 के दौर की फिल्में दे सकती हैं.
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