पिछले महीने में भारत के सुरक्षा और रक्षा क्षेत्र में कई घटनाक्रम हुए हैं, जिनसे हमें आभास होता है कि भविष्य में क्या छिपा हो सकता है.
पहले घटनाक्रम कश्मीर में हुए. आतंकवाद-प्रभावित क्षेत्र में इस महीने नागरिकों की लक्षित हत्या में अचानक उछाल देखने को मिला, जिसने स्थानीय प्रशासन को चौंका दिया, चूंकि उससे पहले के महीनों को ‘सामान्यता की बहाली’ के तौर पर पेश किया जा रहा था. ये उछाल घुसपैठ की कोशिशों, जिनमें बहुत सी कामयाब भी रहीं, और ज़मीनी स्तर पर एक नाज़ुक युद्ध-विराम के बावजूद, नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर भारतीय सैनिकों की मौत के साथ मिलकर, एक ऐसा घातक मॉकट्रेल बन गया है, कि यदि रोकथाम के उपाय नहीं किए गए, तो हालात और बिगड़ सकते हैं.
दूसरा घटनाक्रम वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हुआ, जहां भारत और चीन के बीच बातचीत का ताज़ा दौर नाकाम हो गया है.
जो लोग कश्मीर और भारत-चीन दोनों के घटनाक्रमों पर नज़दीकी से नज़र रखे हैं, उनके लिए दोनों परिणाम कोई आश्चर्य नहीं हैं.
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कश्मीर में आतंकवाद में उछाल अपेक्षित था
ख़ासकर अफगानिस्तान की स्थिति, और कश्मीर में सब कुछ सामान्य दिखाने के भारतीय प्रशासन के अति-उत्साह के बाद, कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में बढ़ोतरी अपेक्षित ही थी. 5 अगस्त 2019 के क़दम के बाद, अलगाव की भावना बढ़ने के बाद भी चीज़ों का कमोबेश शांत रहना, एक संकेत था कि कहीं कुछ पक रहा था. भूलना नहीं चाहिए कि किस तरह पाकिस्तान ने, ड्रोन्स और दूसरे तरीकों से कश्मीर में ज्यादा हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की कोशिश की.
नरेंद्र मोदी सरकार और सुरक्षा बल कुछ भी कहें, हक़ीक़त ये है कि कश्मीर में आतंकी भर्तियों में कोई ख़ास कमी नहीं आई है, और ये खुद अपने आप में एक संकेत है, कि चीजें उतनी शांत नहीं हैं जितना भारत ने सोचा था.
ज़मीनी स्तर पर महसूस करने और सुरक्षा प्रतिष्ठान में शामिल मुख्य लोगों से मुलाक़ात करने के बाद, मुझे ये आभास हुआ है कि कश्मीर में हमने चूक कर दी है. ऐसा लगता है कि प्रशासन का ‘सब अच्छा है’ को चमकाने में इतना अधिक विश्वास था कि उसके अंदर एक सामान्यता की भावना आ गई थी, इसके बावजूद कि कश्मीर में हर समय बहुत सारे डाइनामिक्स काम करते रहते हैं.
उसकी यही सोच उन तबादलों और तैनातियों में भी प्रतिबिंबित हुई, जो सुरक्षा तंत्र में किए गए थे, जैसे ये उत्तर प्रदेश या दिल्ली जैसे किसी राज्य में किए जा रहे हों. कश्मीर में तबादले या तैनातियां बहुत सारी चीज़ों के आंकलन के बाद ही की जाती हैं, जिनमें अनुभव, स्थानीय बैकग्राउंड, और सुरक्षा प्रणाली में हर किसी को साथ लेकर चलने की क्षमता शामिल हैं. जम्मू-कश्मीर जैसे संघर्ष क्षेत्र में, केवल वरिष्ठता या कोई दूसरा अकेला फैक्टर काम नहीं कर सकता.
एलीट आतंक-विरोधी इकाई स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप (एसओजी) को, जिसके मुख्यालय को ‘कार्गो’ कहा जाता है, पांच महीने के अंतराल के बाद उसकी अगुवाई के लिए एक पूर्ण-कालिक पुलिस अधीक्षक का मिलना, प्राथमिकताओं की एक दुखद मिसाल है.
पिछले साल मैंने तर्क दिया था कि जब कश्मीर में शांति है, तब सरकार को उसकी विकास की कसक को सुनना चाहिए. कश्मीर में ज़रूरत इस बात की है, कि ज़मीन पर विकास होता दिखना चाहिए, और ये ऐसी चीज़ है जो अपने हालिया दौरे में मुझे दिखाई नहीं दी. प्रशासन बहुत से सुधार कार्य कर रहा है, लेकिन वक्त की जरूरत ज़मीन पर ‘विकास दिखने’ की है. कश्मीरियों तक पहुंचने के लिए एक सम्मिलित प्रयास की जरूरत है, चूंकि उसके बिना कश्मीर के हर कोने में राष्ट्रीय ध्वज फहराने के सारे प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे.
साथ ही साथ, आतंकवाद के खिलाफ चल रहे ऑपरेशन्स में कोई कमी नहीं आनी चाहिए- सामरिक और रणनीतिक दोनों स्तरों पर, जहां आतंकी फाइनेंसर्स और प्रभाव डालने वालों को जांच एजेंसियां निशाना बनाती हैं.
दिक़्क़त ये है कि जैसे ही आतंकवाद में कमी आती है, तो हर कोई ढीला पड़ जाता है और भूल जाता है कि कश्मीर में जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है एक निरंतर दृष्टिकोण.
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चीन पर गलती सहन नहीं कर सकते
कश्मीर में भले चूक हो गई हो, जिसकी बाद के हफ्तों में भरपाई हो सकती है, लेकिन चीन के मामले में भारत ऐसी कोई गलती सहन नहीं कर सकता.
सेना प्रमुख जनरल एमएम नरवाणे ने हाल ही में कहा, कि अगर चीनी सेना 2020 में तनाव शुरू होने के बाद, दूसरी सर्दियों में भी अपनी तैनाती बनाए रखती है, तो एलएसी पर एलओसी जैसी स्थिति पैदा हो सकती है, भले ही वो कोई सक्रिय एलओसी न हो, जैसी पाकिस्तान के साथ पश्चिमी मोर्चे पर है. संयोग से, पिछले महीने मैंने ख़बर दी थी कि एलएसी पर सर्दियों की तैनातियां जारी रहेंगी, भले ही भारत-चीन के बीच 13वें दौर की बातचीत में कोई नतीजा निकल आए. इसलिए सेना प्रमुख की टिप्पणी कोई आश्चर्य नहीं है. भारत के रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान के एक वर्ग में एलएसी के एलओसी-करण की भी आशंका व्यक्त की गई थी, जिसकी ख़बर मैंने सितंबर 2020 में दी थी.
वास्तविकता ये है कि कुछ टकराव बिंदुओं से भले ही पीछे हटा गया हो, जो काफी हद तक चीन की मांग पर कैलाश रेंज से पीछे हटने के भारत के फैसले की बदौलत हुआ, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के निकट भविष्य में देपसांग मैदानों, या डेमचोक से हटने की कोई संभावना नज़र नहीं आती. चीनियों ने एलएसी और अंदर के क्षेत्रों में भी, इनफ्रास्ट्रक्चर निर्माण पर भारी मात्रा में समय और पैसा ख़र्च किया है.
चीनियों ने आख़िरकार जो हासिल किया वो ये, कि उन्होंने एलएसी को एक अनौपचारिक बॉर्डर बना दिया. टकराव बिंदुओं पर बफर ज़ोन्स बनाने से सुनिश्चित हो गया है, कि इन क्षेत्रों पर भारत के दावे, बिना किसी भौतिक उपस्थिति के, कोरे कागज़ी दावे ही रहेंगे. लेकिन चीनियों ने टकराव बिंदुओं के पास पीछे के इलाक़ों में निर्माण करके, सुनिश्चित कर लिया है कि अगर सीमा वार्त्ता लंबी भी चलती रहे, तो भी अगर भारतीय सैनिक पैंगॉन्ग त्सो के दक्षिणी किनारे समेत, एक क़दम भी आगे बढ़ाते हैं, तो वो समझौते के उल्लंघन में होंगे.
और चीनियों की ओर जो ढांचागत विकास हुआ है, वो अतिरिक्त सैनिकों के लिए केवल आवास या सड़कें ही नहीं हैं, बल्कि अन्य चीज़ों के अलावा हेलिपोर्ट्स, सतह से हवा में मार करने वाले मिसाइल स्थल, हवाई पट्टियां, तथा भूमिगत ठिकाने भी हैं, जो इलाक़े में उनकी मौजूदा सैन्य खामियों की भरपाई करते हैं. इसके साथ ही, सीमा पर गांव बसाने को चीन का बढ़ावा, जिनका दोहरा इस्तेमाल होगा, और उनका हालिया सीमा क़ानून एक स्पष्ट संकेत है, कि चीन ने अपना शक्ति प्रदर्शन शुरू कर दिया है.
भारतीय रक्षा और सुरक्षा प्रतिष्ठान में हर सम्मानित आवाज़ ने कहा है, कि एलएसी पर चल रहा तनाव आगे चलकर ज्यादा चिंताजनक रूप लेने की सामर्थ्य रखता है. इसलिए भारत क़तई सहन नहीं कर सकता, कि एलएसी पर चीज़ें सामान्य हैं ये सोचते हुए, किसी भी तरह की ढिलाई बरती जाए, या आधुनिकीकरण की गति को धीमा किया जाए. क्योंकि ऐसा नहीं है.
चीनियों के साथ निपटने में हमें एक स्थायी सर्व-सरकारी दृष्टिकोण की ज़रूरत है. इसका मतलब ये है कि भारत की प्रतिक्रिया के विकल्प केवल सैन्य नहीं हो सकते. भारत को भी मित्र-राष्ट्रों की ओर हाथ बढ़ाना होगा, और बाक़ी सबके साथ मिलकर चलना होगा, जो चीनी आक्रामकता का सामना कर रहे हैं. ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि तैयार रहा जाए, बजाय इसके कि आश्चर्य में घिरा जाए, जैसा कि भारत के साथ तब हुआ जब पिछली मई में, चीनी सैनिक एलएसी पार करके भारत की साइड में आ गए.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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