नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) सरसंघचालक या संरक्षक मोहन भागवत को शुक्रवार को विजयदशमी पर अपने भाषण के लिए छह साल पुराना एक दस्तावेज़ खोदकर क्यों निकालना पड़ा? ये एक प्रस्ताव था जो आखिल भारतीय कार्यकारी मंडल या आरएसएस की आखिल भारतीय कार्यकारिणी समिति ने 2015 में रांची में पारित किया था.
एक तो भागवत ये चाहते थे कि इस दस्तावेज़ से- जिसे संघ के पवित्र हलक़ों के अलावा कोई नहीं जानता था- आरएसएस और इसकी वैचारिक उपजीवी, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए एक नया एजेण्डा तय किया जाए: भारत की आबादी में मुसलमानों के ‘बढ़ते’ अनुपात को देखते हुए, ‘जनसांख्यिकीय असंतुलन’ को ठीक करने के लिए, एक नई जनसंख्या नीति तैयार की जाए.
आरएसएस जो ‘राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए एक आंदोलन’ है, लोगों को फिर से जुटाने के लिए किसी नए बिंदु की तलाश में थी, चूंकि उसके तीन मूल एजेण्डे तक़रीबन हासिल हो गए हैं- धारा 370 की समाप्ति, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) पर अमल.
पहले दो 2019 में पूरे कर लिए गए जबकि तीन तलाक़ क़ानून पास हो जाने के बाद संघ के नेता अब तीसरे एजेण्डा के आगे बढ़ाने में बहुत उत्सुक नहीं हैं; आशंका ये है कि यूसीसी से हिंदुओं का वो वर्ग भी अलग हो सकता है, जो प्रथागत अभ्यासों का पालन करता है.
इसके पदाधिकारियों का कहना है कि संघ के एजेण्डा में एक नई जनसंख्या नीति अब सबसे ऊपर है.
एबीकेएम प्रस्ताव ने एक नई जनसंख्या नीति के लिए भागवत की मांग को कुछ आंकड़े दे दिए- 2011 की जनगणना में मुसलमानों का अनुपात बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गया, जो 1951 की जनगणना में 9.8 प्रतिशत था.
गृह मंत्रालय की एक प्रेस विज्ञप्ति में, जैसा कि अगस्त 2015 में मिंट ने ख़बर दी थी, सुझाया गया था कि इस्लाम भारत में सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला धर्म है.
एमएचए के बयान में कहा गया कि ‘2011 में कुल जनसंख्या में हिंदू आबादी के अनुपात में 0.7 प्रतिशत बिंदु की कमी आई है…जबकि 2001-2011 के दौरान सिखों में 0.2 पीपी और बौद्धों में 0.1 पीपी की गिरावट आई है. कुल जनसंख्या में मुस्लिम आबादी का अनुपात, 0.8 पीपी बढ़ गया है’.
एबीकेएम दस्तावेज़ और एमएचए के बयान में, 2011 की जनगणना के जिस तथ्य की अनदेखी की गई, वो ये था कि 1991-2001 और 2001-2011 के बीच दो दशकों में, हिंदू आबादी बढ़ने की दर 19.92 प्रतिशत से घटकर 16.76 प्रतिशत पर आ गई, जबकि मुसलमानों में ये प्रतिशत 29.52 से गिरकर 24.60 पर आ गया, जो पिछले छह दशकों में सबसे तेज़ गिरावट थी.
अमेरिका स्थित प्यू रिसर्च सेंटर की स्टडी के अनुसार, दो सबसे बड़े धार्मिक समूहों की प्रजनन दरों के बीच का अंतर सिकुड़ रहा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि 1992 में, हिंदू महिलाओं के मुक़ाबले, मुस्लिम महिलाओं के 1.1 बच्चे ज़्यादा होते थे, लेकिन 2015 तक ये अंतर सिकुड़ कर 0.5 रह गया.
डेटा बिंदुओं के अलावा, मुसलमानों के हिंदुओं से आगे निकलने का हौवा, जिसे सबसे पहले हिंदुत्व विचारक वीडी सावरकर ने उठाया था, उसे मुस्लिम आबादी में वृद्धि के चलते, ‘जनसांख्यिकी असुंतलन’ की भागवत की टिप्पणी के बाद फिर से बल मिल सकता है. असेम्बली चुनावों के अगले चरण से पहले भी इसकी गूंज सुनाई दे सकती है, जिसमें उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने, ‘उपयुक्त समय पर’ एक जनसंख्या नियंत्रण क़ानून लाने का वादा किया है और उत्तराखंड में बीजेपी सरकार ने उन इलाक़ों के सर्वेक्षण का आदेश जारी किया है, जहां मुस्लिम आबादी में बढ़ोतरी देखी जा रही है.
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RSS प्रमुख का सूत्र सरकार का मार्गदर्शक बल बन सकता है
आरएसएस प्रमुख का नई जनसंख्या नीति का ये नया सूत्र, मोदी सरकार के लिए एक मार्गदर्शक बल का काम कर सकता है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में, जनसंख्या नियंत्रण का विषय उठाया था, लेकिन उन्होंने उसे बस वहीं छोड़ दिया. आरएसस प्रमुख ने उन्हें अब अपने शब्दों पर अमल करने का एक कारण दे दिया है.
2015 के एक दस्तावेज़ को खोद निकालकर, भागवत ने अपने कुछ संघ सहयोगियों तथा दक्षिण-पंथी समर्थकों को शांत करने की भी कोशिश की है, जो उनके बार बार ये कहने से असहज हो रहे थे कि हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक समान है, और उसे इस आधार पर नहीं बांटा जा सकता कि वो कैसे और किसकी उपासना करते हैं.
हालांकि आरएसएस प्रमुख ने शुक्रवार को भी इसी शैली में बात की, लेकिन अपने हिंदुत्वा अनुचरों को ख़ुश करने के लिए, उन्होंने अपने लिखित भाषण में बहुत कुछ छोड़ दिया, जिसे आरएसएस वेबसाइट पर अपलोड कर दिया गया.
उसके अंदर 2015 का प्रस्ताव शामिल था, जिसमें (इस्लाम, ईसासियत और यहूदी जैसे विदेशी मूल के धर्मों के मुक़ाबले) हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे भारतीय मूल के धर्मों के, घटते जनसंख्या अनुपात की बात की गई थी.
ये भेद बहुत हद तक सावरकर के मॉडल पर आधारित है, जिसमें हिंदूवाद को परिभाषित करने की कोशिश की गई है. अन्य मानदंडों के अलावा, उनकी निगाह में हिंदू वो व्यक्ति है, जो भारत को न केवल अपनी मातृभूमि या पितृभूमि समझता हो, बल्कि उसे पुण्यभूमि भी मानता हो.
अंतिम मानदंड में मुसलमानों, ईसाइयों और यहूदियों को हिंदुत्व के पहले व्यापक क़दम से बाहर कर दिया गया है. इसलिए, जहां भागवत की डीएनए थ्यौरी एक समावेशी दर्शन जैसी सुनाई देती है, वहीं 2015 के प्रस्ताव में भारतीय मूल के धर्मों की अवधारणा की पुनरावृत्ति, जिसका भागवत ने उल्लेख किया, उसका तात्पर्य हिंदुत्व के किसी भी संशोधन को नकारना है, जैसा कि शुरू में परिकल्पना की गई थी.
भागवत ने छह साल पुराने दस्तावेज़ का इस्तेमाल, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के विषय को फिर से उठाने और ईसाइयत में कथित धर्मांतरण तथा बांग्लादेश से मुसलमानों की कथित घुसपैठ के मुद्दों को उभारने के लिए किया है. संभावना है कि यही बिंदु आने वाले हफ्तों और महीनों में- कम से कम बीजेपी के लिए- राजनीतिक प्रवचन को निर्धारित करेंगे.
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