कोविड-19 की दूसरी लहर खत्म होने के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में गति आने से बिजली की मांग में भी बढ़ोत्तरी हुई है.
मॉनसून लंबा खिंचने और कोयले की अंतरराष्ट्रीय कीमत में वृद्धि की वजह से बिजली संकट गहरा हुआ है. अर्थव्यवस्था में गति आने से मांग में भी वृद्धि की उम्मीद तो की जा रही थी मगर यह वृद्धि कितनी बड़ी होगी इसका अंदाजा नहीं था.
सरकार ने बिजली उत्पादकों को कोयले की आपूर्ति के उपायों की घोषणा की है. मॉनसून खत्म होने के साथ आपूर्ति सुधर जाएगी. पिछले कुछ दिनों से ताप बिजलीघरों को कोयले की आपूर्ति में तेजी आई है तो हालात बेहतर होने के संकेत मिल रहे हैं. कोयले की आपूर्ति की बेहतर योजना और उसमें सुधार से भविष्य के लिए इंतजाम बेहतर होगा.
इस बार क्या हुआ
अक्टूबर के महीने में बिजली की मांग काफी बढ़ जाती है लेकिन इस साल स्थिति दूसरी है. सप्लाई-डिमांड में तालमेल कई कारणों से गड़बड़ाया है. साल के शुरू में कोल इंडिया लिमिटेड के पास कोयले का पर्याप्त भंडार था क्योंकि ताप बिजलीघरों ने बिजली की कम मांग के चलते कोयले की खरीद में कटौती कर दी थी. बिजलीघरों ने पर्याप्त भंडार नहीं बनाया.
पिछले दो महीने से हालात बदल गए हैं. इस साल अगस्त में बिजली की खपत में अगस्त 2019 में कोविड-19 से पहले वाले दौर में हुई खपत के मुक़ाबले 18-20 प्रतिशत बढ़ गई क्योंकि लॉकडाउन के कारण बंद पड़ी आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरू हो गईं. बिजली की बढ़ी हुई 65-70 फीसदी मांग कोयले से बनाई जाने वाली बिजली से पूरी होती है.
बिजली की मांग में तो तेज वृद्धि हुई लेकिन मॉनसून के लंबा खिंचने के कारण कोयले के खनन में बाधा पड़ी. कोयले के उत्पादन में मौसमी अंतर आता रहता है. मार्च में इसका उत्पादन अधिकतम के स्तर से जून-जुलाई के बरसाती मौसम में नीचे गिर जाता है और मॉनसून खत्म होने के साथ बढ़ने लगता है. लेकिन इस साल मॉनसून सितंबर तक खिंच गया, जिसके कारण कोयले की सामान्य आपूर्ति में देर हुई.
भारत मुख्य रूप से इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका से कोयला आयात करता है लेकिन इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत में रिकॉर्ड उछाल के कारण भारत के ताप बिजलीघरों ने आयात में भारी कटौती कर दी.
भारत के कुल कोयला आयात का 60 फीसदी हिस्सा इंडोनेशिया से आता है और वहां कोयला उत्पादन क्षेत्र में भारी बारिश के कारण उसकी कीमत में तेजी आई. इस वजह से घरेलू कोयले की मांग और बढ़ गई.
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भारत के लिए नई बात नहीं
कोयले की कमी के कारण बिजली संकट भारत के लिए कोई नयी बात नहीं है. मांग-आपूर्ति में अंतर के कारण कोयले की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भी वृद्धि होती है.
चीन में बिजली की मांग बढ़ी है, लेकिन देश के कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य की वजह से आपूर्ति में कमी हुई है. ऑस्ट्रेलिया से राजनीतिक विवाद के कारण वहां से कोयले के आयात में कटौती की गई है.
अमेरिका और यूरोप में प्राकृतिक गैस की कीमत में वृद्धि के कारण कुछ बिजली उत्पादकों ने कोयले का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. प्राकृतिक गैस के बदले कोयले की मांग बढ़ी है लेकिन उसकी आपूर्ति पिछड़ रही है.
कोयला उद्योग उत्पादन और कर्मचारियों की संख्या में कटौती कर रहा है. कोयले की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है क्योंकि नीतिगत ज़ोर ग्लोबल लड़ने के लिए कोयले के इस्तेमाल को घटाने पर है.
सरकार क्या करेगी
मांग-आपूर्ति में असंतुलन से बचने के लिए सरकार ने ताप बिजलीघरों को कोयले की आपूर्ति और भंडारण के नये मानदंड प्रस्तावित कर रही है. कोल इंडिया अक्टूबर के मध्य से रोज 19 लाख टन कोयला आपूर्ति करने की योजना बना रही है. फिलहाल वह रोज 17 लाख टन दे रही है. सरकार ने जिन कंपनियों को उनके अपने इस्तेमाल के लिए कोयला और लिग्नाइट की खदानें दी हैं उन्हें अपने वार्षिक उत्पादान का 50 फीसदी हिस्सा बिजलीघरों को बेचने की अनुमति दी है ताकि कमी की भरपाई हो.
राज्यों को कोल इंडिया का बकाया चुका देना चाहिए. बकाया न चुकाने के कारण ताप बिजलीघरों में कोयले का भंडार छोटा हुआ है. समय पर भुगतान से सरकारी कोयला कंपनी अपना उत्पादन बढ़ा सकेगी और मांग में वृद्धि को पूरा कर सकेगी.
बिजली उत्पादन के लिए कोयले पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. भारत में कोयला आधारित बिजली का अनुपात 2019 में 61.9 प्रतिशत से बढ़कर 66.4 प्रतिशत हो गया है. आपूर्ति में मदद से हालात सुधर सकते हैं लेकिन बेहतर यह होगा कि सरकार बिजली उत्पादन के प्राकृतिक गैस जैसे वैकल्पिक साधनों का उपयोग बढ़ाए.
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(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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