नई दिल्ली: भारत के प्रमुख जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों में से एक अरुणाभ घोष का कहना है कि भारत को नेट ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध तो होना चाहिए लेकिन 2050 की समय सीमा तक ऐसा करना जरूरी नहीं है.
भारत ने इस लक्ष्य- जो एक ऐसी स्थिति को प्राप्त करना चाहता है जहां किसी देश द्वारा पर्यावरण में उत्सर्जित होने वाली ग्रीनहाउस गैसों को उतनी ही मात्रा में दूर किया जा रहा हो- के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाने का अभी तक विरोध किया है.
इस बारे में नई दिल्ली का मानना है कि इस तरह का लक्ष्य प्राप्त करना भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अन्यायपूर्ण है और उत्सर्जन में गहरी कटौती करने की जिम्मेदारी उन विकसित देशों की है, जिन्होंने ऐतिहासिक रूप से वैश्विक उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान दिया है.
घोष, जो की काउंसिल ऑन एनर्जी, एन्वायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं, का कहना है, ‘मेरा मानना है कि भारत को नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध तो होना ही चाहिए. लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमें 2050 की समय-सीमा का पालन करना चाहिए. यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि एक लक्ष्य निर्धारित किया जाए, ताकि छोटी और मध्यम अवधि में विभिन्न क्षेत्रों के लक्ष्यों से पूरा किया जा सके.’ वह कॉप-21 वार्ता- जिसे आम तौर पर पेरिस समझौते के रूप में भी जाना जाता है- में भारत सरकार के सलाहकार भी रहे हैं.
यूरोपीय संघ द्वारा ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 1979 में 3.99 बिलियन मीट्रिक टन (एमटी) की उच्चतम सीमा पर पहुंच गया था, जिससे इस चरम और नेट ज़ीरो उत्सर्जन के बीच का समय तय करने के लिए 70 वर्षों का समय मिला. अमेरिका के लिए, जो 2007 में अपने चरम पर था, यह प्रसारण समय 43 वर्ष है. हालांकि, भारत को अभी इस शिखर बिंदु तक आना बाकी है. 2020 में, इसका उत्सर्जन औसतन 160 मीट्रिक टन CO2 था.
दिप्रिंट को दिए एक साक्षात्कार में घोष ने कहा, ‘भारत को 2050 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य के प्रति संकल्पित होने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन इसके चरम और नेट-ज़ीरो के बीच का संक्रमण काल/ अवधि 70 साल तक- भी नहीं होना चाहिए. हमारे चरम पर पहुंचने के बाद इस समय अवधि को कम किया जा सकता है.’
पेरिस समझौते के अनुसार, भारत ने 2005 के स्तर पर हो रहे उत्सर्जन को 32-35 प्रतिशत कम करने, अक्षय उर्जा स्रोतों के माध्यम से अपनी बिजली की आवश्यकता का 40 प्रतिशत उत्पादित करने और 2030 तक वन और वृक्षों के अतिरिक्त आवरण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन का एक कार्बन सिंक बनाने का वचन दिया था. एक कार्बन सिंक जितना कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ता है उससे अधिक अवशोषित करता है और इस प्रकार इसे हवा से हटा देता है.
2019 में, भारत ने 2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने के लिए अपने नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों में वृद्धि की थी और घोष का कहना है कि इससे उत्सर्जन में और भी कमी आएगी.
वे कहते हैं, ‘2030 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा का लक्ष्य प्राप्त करने के साथ ही भारत का उत्सर्जन 2005 के स्तर से लगभग 52 प्रतिशत कम हो जाएगा. पेरिस समझौते के बाद से, हमने अपने उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 25 से कम कर दिया है, इसलिए हम इन लक्ष्यों को प्राप्त करने की सही राह पर हैं.’
जॉन कैरी, जलवायु के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति के विशेष राजदूत, जो इस सप्ताह की शुरुआत में नई दिल्ली में थे, ने कहा था कि 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा स्थापित करने का भारत द्वारा संकल्पित लक्ष्य दुनिया में सबसे अधिक ‘शक्तिशाली’ है. भारत को अपने पेरिस समझौते में तय किए गये अपने लक्ष्यों को पूरा करने हेतु नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को आगे बढ़ाने में मदद करने के उदेश्य से आयोजित क्लाइमेट एक्शन एंड फाइनेंस मोबिलाइज़ेशन डायलॉग (सीएएफएमडी) के शुभारंभ के अवसर पर बोलते हुए उन्होंने यह विश्वास व्यक्त किया कि भारत ‘अगले सीओपी में जाने से पहले किसी-न-किसी बात की घोषणा करेगा’.
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भारत जलवायु परिवर्तना के प्रति अपनी लचीलेपन को बढ़ा सकता है?
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले दशकों में भारत में अधिक तीव्रता और लगातार पड़ने वाली गर्मी के थपेड़ों के साथ-साथ वर्षा में अत्यधिक वृद्धि की संभावना हो सकती है.
भारत के अधिक विकसित होने के साथ जैसे-जैसे चरम मौसमी प्रभावों वाली घटनाओं मे ज़्यादा मात्रा में वृद्धि होती हैं, इनका एक प्रमुख परिणाम यहां जान-माल और बुनियादी ढांचे के नुकसान के रूप में होगा.
घोष ने कहा कि इस तेज़ी से बिगड़ते वैश्विक संकट का सामना करने के लिए भारत के बुनियादी ढांचे को जलवायु परिवर्तन के प्रति और अधिक लचीला और इसकी अर्थव्यवस्था को और अधिक कार्बन-अनुकूल बनाने की आवश्यकता है.
उन्होने कहा, ‘जलवायु में पहले से ही बदलाव हो रहा है और यह स्थिति आगे चलकर और खराब ही होगी. जैसे-जैसे भारत विकसित होगा, यह नुकसान और भी बढ़ेगा. मौसम विज्ञान के पैटर्न भी बदल रहे हैं और हमारे बुनियादी ढांचे को प्रभावित कर रहे हैं. ये नुकसान जलवायु परिवर्तन के जोखिमों के कारण बढ़ेंगे. इसके बारे में गणना करने और बचाव के उपाय अभी से शुरू करने होंगें.’
भारत ने इस साल अगस्त में नेशनल हाइड्रोजन मिशन के शुरुआत की घोषणा की, जिसका उद्देश्य भारत में ऊर्जा क्षेत्र को और अधिक ‘आत्मनिर्भर’ और टिकाऊ बनाना है. इस मिशन के तहत, इलेक्ट्रोलिसिस के माध्यम से हाइड्रोजन से ईंधन का उत्पादन किया जाएगा, जो अगर अक्षय स्रोत से किया जाएगा तो उत्सर्जन मुक्त होगा.
घोष ने कहा कि एक वैश्विक हरित हाइड्रोजन गठबंधन (ग्रीन हाइड्रोजन एलायंस), जो तकनीकी विकास के लिए सभी संसाधनों को इकट्ठा करेगा और उनके सुरक्षित भंडारण और परिवहन के लिए सामान्य मानकों का प्रस्ताव करेगा, इसे वित्तीय रूप से और अधिक व्यावहारिक बनाने में मदद कर सकता है.
घोष का कहना है, ‘हाइड्रोजन उर्जा को आगे किया जाना अति महत्वपूर्ण है. हम भारी उद्योगों को सौर ऊर्जा पर नहीं चला सकते- कारों के लिए तो हमें बैटरी की जरूरत है, लेकिन ट्रकों के लिए हमें फ्यूल सेल की जरूरत है. अभी ग्रीन हाइड्रोजन काफी महंगी है. हमें इलेक्ट्रोलाइजर्स और एम्बेडेड मेम्ब्रेन की लागत को कम करना होगा. लेकिन ये इस तरह के निवेश हैं जो हम आज कर सकते हैं.’
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