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Saturday, 2 November, 2024
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तेलंगाना में क्यों बढ़ रही हैं आदिवासियों और वन अधिकारियों के बीच हिंसक झड़पें

2019 के बाद से कम से कम आठ बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें तेलंगाना के आदिवासियों का वन अधिकारियों के साथ टकराव हुआ है.

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हैदराबाद: दोनों वीडियोज़ की तस्वीरें एक दूसरे के बिल्कुल उलट हैं लेकिन दोनों एक ही बुनियादी समस्या का हिस्सा हैं.

एक में स्थानीय आदिवासियों को वन अधिकारियों के पैरों में गिरते हुए देखा जा सकता है, जबकि दूसरे में, जो ज़्यादा नाटकीय वीडियो है, महिलाओं का एक समूह जिनके साथ कुत्ते भी हैं, कुछ दूसरे अधिकारियों को भगा रहा है. दोनों वीडियो जुलाई में तेलंगाना के महबूबाबाद ज़िले में सामने आए.

दोनों मामलों में कथित रूप से टकराव तब हुआ, जब अधिकारियों ने आदिवासियों को उस जमीन पर फसल बोने से रोका, जिसे वन विभाग सरकारी जमीन मानता है.

लेकिन दोनों घटनाएं उस संघर्ष की बस ताज़ा मिसालें हैं, जो यहां 2019 से पनप रहा है.

सबसे हाईप्रोफाइल घटना जून 2019 में हुई, जब वन रेंज अधिकारी सी अनिता पर एक भीड़ ने बेरहमी से हमला किया, जिसमें आदिवासी समुदाय के सदस्य शामिल थे और कथित रूप से जिसकी अगुवाई सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता, कोनेरू कृष्णा राव कर रहे थे.

कुल मिलाकर, 2019 के बाद से कम से कम आठ बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें तेलंगाना के आदिवासियों का वन अधिकारियों से टकराव हुआ है.

टकराव की जड़ में वो जमीनें है जिन्हें आदिवासी ‘पोडु लैंड्स’ कहते हैं, जिनका इस्तेमाल आदिवासी काटो-और-जलाओ वाली खेती के लिए करते हैं लेकिन जिसे सरकार वन की जमीन बताती है. ये खेती की एक पारंपरिक प्रथा है, जो मध्य भारत के आदिवासियों में काफी आम है.

इन जमीनों के मालिकाना हक को लेकर दशकों से सवाल उठते रहे हैं और ये मुद्दा अविभाजित आंध्र प्रदेश की पिछली सरकारों के समय से चला आ रहा है. लेकिन अब स्थिति इस वजह से और बिगड़ गई है कि मौजूदा तेलंगाना सरकार अपने फ्लैगशिप वनरोपण कार्यक्रम ‘हरिता हरम’ के जरिए ग्रीन कवर बढ़ाना चाहती है और जैव विविधता को भी बढ़ावा देना चाहती है.

हरिता हरम के अंतर्गत, जो 2015 में शुरू किया गया था, राज्य वन विभाग ने एक विशाल वृक्षारोपण अभियान शुरू किया है, जिसका लक्ष्य राज्य के ग्रीन कवर को बढ़ाकर कम से कम 33 प्रतिशत करना है.

तेलंगाना के वन्यजीव विभाग में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी, ए शंकरन के अनुसार, पिछले छह चरणों में सूबे में कुल मिलाकर 2.2 करोड़ पौधे लगाए गए हैं, जिनमें से 1.6 करोड़ पौधे वनों के बाहर और 60.81 लाख पौधे उनके अंदर लगाए गए हैं.

इस साल ये अभियान 1 जुलाई को शुरू हुआ और राज्य ने 19.91 करोड़ पौधे लगाने का लक्ष्य तय किया है.

लेकिन, सरकारी अधिकारियों को वनवासियों के विरोध का सामना करना पड़ा है, जिन्होंने कुछ जमीनों पर अपना हक जताया है.

वन अधिकारियों का कहना है कि विरोध कर रहे आदिवासियों ने जमीनों पर ‘अतिक्रमण’ किया हुआ है और उसपर अवैध रूप से खेती कर रहे हैं.

राज्य वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार, राज्य में करीब 66 लाख एकड़ जमीन वन भूमि के तौर पर चिन्हित है और 8 लाख एकड़ से अधिक जमीन अतिक्रमण का शिकार है.

दिप्रिंट ने तेलंगाना के प्रधान मुख्य वन संरक्षक, आर सोभा से ई-मेल के जरिए संपर्क किया लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने तक उनका कोई जवाब नहीं मिला.


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कब्जा करने वाले या असली मालिक? क्या है कानून?

आदिवासियों और कार्यकर्ताओं ने दिप्रिंट को बताया है कि एक समस्या ये है कि कथित रूप से तेलंगाना सरकार ने 2006 में पारित अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम को लागू नहीं किया है, जिसमें वन निवासियों को जमीनों पर कानूनी अधिकार दिए गए हैं.

अधिनियम के अनुसार, वन अधिकारों को मान्यता देकर उन्हें वनों में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों को देना, इस शर्त के साथ होगा कि ऐसी जनजातियों या अन्य पारंपरिक वन निवासियों का 13 दिसंबर 2005 से पहले वन भूमि पर कब्जा रहा हो.

एक एडवोकेट और कार्यकर्ता डॉ पल्ला त्रिनधा राव ने दिप्रिंट को बताया कि तेलंगाना सरकार ने वन अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत, वन निवासियों के जमीन के अधिकार को मान्यता नहीं दी है. उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य सरकार के वनरोपण कार्यक्रम के लिए अब ऐसे बहुत से लोगों को मान्यता प्राप्त जमीनों से हटाया जा रहा है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, राज्य की आदिवासी कल्याण मंत्री सत्यावती राठौड़ ने मार्च में पोडू जमीनों के 94,774 पट्टे (जमीन के कागज़ात), वन अधिनियम के अंतर्गत पात्र आदिवासियों को दिए थे. इसमें 2008 के बाद से वन अधिनियम के तहत करीब 3.03 लाख एकड़ जमीन आती है.

मंत्री ने उस समय कहा था कि 2005 में कानून बनने के बाद से 6.31 लाख एकड़ जमीन के लिए करीब 1.84 लाख दावे प्राप्त हुए थे. सरल रूप में कहा जाए, तो ये ‘दावे’ वन निवासियों के लिए एक तरीका हैं, जिससे वो राज्य सरकार में कागज़ात दाखिल करके, जमीन पर मालिकाना हक जता सकते हैं.

मंत्री के अनुसार, 2018 के बाद से वन कानून के तहत, पट्टों के लिए 27,990 और दावे दाखिल किए गए हैं, जिनमें 98,745 एकड़ जमीन पर मालिकाना हक जताया गया है. आवेदनों को प्रोसेस करने की प्रक्रिया से जुड़ी इकाई, जिला स्तरीय समिति (डीएलसी) ने, इनमें से 4,248 एकड़ जमीन से जुड़े 2,401 दावे वैध पाए, जबकि 40,780 एकड़ जमीन के लिए 9,976 दावे अवैध पाए गए. राठौड़ ने मार्च में कहा था कि 53,565 एकड़ जमीन से जुड़े 15,558 दावे अभी जिला-स्तरीय समितियों के पास लंबित पड़े हैं.

लेकिन, भद्राद्री कोठागुडम जिले में स्थित एक कार्यकर्ता वासम रामकृष्ण दोरा के अनुसार, जो आदिवासी संयुक्त कार्रवाई समिति के संयोजक भी हैं, लंबित मामलों की संख्या राज्य सरकार के आंकड़ों से तीन गुना से अधिक हो सकती है.

उन्होंने आरोप लगाया, ‘ऐसी भी मिसालें रही हैं जिनमें आदिवासी अपने आवेदन जमा करने, एकीकृत जनजाति विकास एजेंसी (आईटीडीए) के पास गए और अधिकारियों ने उनके आवेदन स्वीकार करने से ही मना कर दिया. ये पिछले एक साल से हो रहा है. अगर दावा पात्रता के मापदंड पर पूरा नहीं उतरता, तो वो इसे खारिज कर सकते हैं लेकिन वो आवेदन लेने से ही क्यों मना कर देते हैं?’

राइट्स एंड रीसोर्स इनीशिएटिव और ऑक्सफैम की एक स्टडी के अनुसार, 2016 में तेलंगाना में 7.61 लाख एकड़ में फैली जमीनों के लिए करीब 2,11,973 निजी वन अधिकार दावे दायर किए गए थे, जिनमें से 3.31 लाख एकड़ जमीन से जुड़े केवल 9,486 दावों (44 प्रतिशत) को वैध माना गया.


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आगे का रास्ता

राव का कहना है कि चल रहे टकराव के समाधान का संभवत: एक ही रास्ता है कि एक विस्तृत राज्यव्यापी सर्वे के जरिए, वन भूमि को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाए.

मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने 2019 में ये कहते हुए पिछली कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराया था कि उसने बहुत सारे दावों को लंबित रखा था. उन्होंने आश्वासन दिया था कि इस मुद्दे को जल्द सुलझा लिया जाएगा.

इस साल मार्च में भी उन्होंने ऐसा ही आश्वासन दिया और कहा कि सरकार पोडु लैंड्स मसले को सुलझाने के लिए एक संतुलन बनाएगी और साथ ही वन भूमि का संरक्षण भी सुनिश्चित करेगी. दो हफ्ते पहले उन्होंने फिर ऐसा ही आश्वासन दिया था.

राव ने कहा कि सरकार को अब जल्द कार्रवाई करने की जरूरत है. उन्होंने कहा, ‘जब तक सरकार कार्रवाई नहीं करती और इसे अपनी सबसे बड़ी प्राथमिकता नहीं बनाती, तब तक ये (संघर्ष) चलता रहेगा. और साफ जाहिर है कि केसीआर सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है- सिर्फ वायदे हैं, अमल कुछ नहीं है’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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