नई दिल्ली: रविवार को मुज़फ़्फ़रनगर में हुई किसान महापंचायत ने, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना संकट को सामने लाकर खड़ा कर दिया है. बहुत स्पष्ट था कि एक ऐसे सूबे में, जो देश में सबसे ज़्यादा गन्ना पैदा करता है, गन्ना किसानों की परेशानी आगामी विधान सभा चुनावों में एक अहम भूमिका निभाएगी.
यूपी की गन्ना पट्टी में कृषि संकट की स्थिति पिछले कुछ सालों में बिगड़ गई है, चूंकि किसानों की आय में कमी आई है, जबकि इनपुट लागत बढ़ गई है. ये संकट मुख्य रूप से तीन मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता है- वहीं पुरानी क़ीमतें, देरी से या टुकड़ों में भुगतान, और इनपुट लागत में तेज़ी के साथ वृद्धि.
इन कारकों ने यूपी में गहरी अशांति पैदा कर दी है, जहां 35 लाख से अधिक परिवार आजीविका के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर करते हैं, जबकि देशभर में ये संख्या 60 लाख है.
अपरिवर्तित क़ीमतें और अनियमित भुगतान
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ने की खेती पारंपरिक रूप से काफी लोकप्रिय रही है, जहां राज्य सरकारें हर वर्ष स्टेट एडवाइज़री प्राइस (एसएपी) बढ़ाती रहती थीं, ताकि सुनिश्चित रहे कि बढ़ती महंगाई और इनपुट लागत के मद्देनज़र, ये किसानों के लिए लाभदायक बनी रहे. लेकिन, 2017-18 के बाद लगभग तीन साल से, गन्ने के इन एसएपी दामों में कोई बदलाव नहीं किया गया है.
गन्ने की आम क़िस्म के लिए 315 रुपए प्रति क्विंटल एसएपी मिलती है, जबकि शुरू की क़िस्मों को 325 रुपए प्रति क्विंटल, और ख़ारिज की गई किस्मों को 310 रुपए प्रति क्विंटल मिलता है. इसकी तुलना पंजाब से कीजिए, जहां यूपी के साथ अगले साल शुरू में चुनाव होने हैं- उसने इस साल शुरूआती क़िस्म की एसएपी बढ़ाकर 360 रुपए प्रति क्विंटल कर दी, जो 2017-18 से 310 रुपए चली आ रही थी.
इसके ऊपर, भुगतान में होने वाली देरी ने किसानों की मुसीबतों को और बढ़ा दिया है. गन्ना (नियंत्रण) आदेश,1966, के अंतर्गत गन्ने की सप्लाई की तिथि से 14 दिन के अंदर, किसानों को भुगतान करना अनिवार्य है, और ऐसा न करने की स्थिति में बक़ाया राशि पर, 15 प्रतिशत वार्षिक दर से ब्याज अदा करना होता है.
लेकिन, गन्ना मिलों का आरोप है कि स्टॉक की बिक्री पूरे साल चलती है, और 14 दिन की समय सीमा से अकसर आगे निकल जाती है, जिससे उनपर भारी बक़ाया जमा हो जाता है, जिसपर भारी ब्याज लगता है. गन्ना मिलें अकसर भुगतान में देरी करती हैं, तथा बैंकों से ऋण लेती हैं और इस सारी प्रक्रिया में उनपर ब्याज का भारी बोझ आ जाता है.
इसके नतीजे में, किसानों के भुगतान में या तो काफी देरी होती है, या फिर वो टुकड़ों में मिलता है जिससे उन्हें अपनी जीविका चलाना, और बिना क़र्ज़ लिए गन्ने की खेती जारी रखना मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा, गन्ने की फसल लंबी अवधि की होती है, और फसल का चक्र कम से कम एक साल तक चलता है, जिससे समय पर भुगतान किसानों के लिए बहुत अहम हो जाता है.
भुगतान में देरी का मसला इतना गंभीर है, कि इस साल सुप्रीम कोर्ट को दख़ल देकर राज्यों से पूछना पड़ा, कि वो बक़ाया का भुगतान किस तरह करेंगे.
बढ़ती इनपुट लागतें
गन्ने की खेती की बढ़ती लागत ने किसानों की समस्या को और बढ़ा दिया है. गन्ना एक ऐसी फसल है जिसमें सबसे ज़्यादा पानी, रसायन, और श्रम लगता है. ऊंची पैदावार लेने के लिए फसल के विकास के सभी चरणों में, मिट्टी के अंदर अनुकूलतम नमी बनाए रखनी आवश्यक होती है. एक टन गन्ने के उत्पादन के लिए क़रीब 250 टन पानी की ज़रूरत होती है, और 80 प्रतिशत फसल की सिंचाई, गहरे पानी की पम्पिंग द्वारा भूमिगत जल से होती है.
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भूजल के गिरते स्तर की वजह से पंपिंग की अवधि और गहराई पहले से बढ़ गई है, जिसके कारण बिजली या डीज़ल का उपभोग तेज़ी से बढ़ा है. इसके साथ ही डीज़ल के दाम क़रीब 100 रुपए प्रति लीटर छूने, और बिजली दरों में इज़ाफे के परिणामस्वरूप, इनपुट लागत बहुत अधिक बढ़ गई है.
भारत के सबसे अधिक आबादी वाले सूबे उत्तरप्रदेश में, एक चीज़ जिसकी कमी नहीं है वो है सस्ता श्रम. गन्ने की खेती का ज़्यादातर काम हाथ से होता है, और मशीनरी का इस्तेमाल खेतों की तैयारी जैसे कामों तक सीमित है. एक अनुमान के अनुसार, गन्ने की खेती की कुल लागत में श्रम की हिस्सेदारी 32.3 प्रतिशत होती है. कुल मिलाकर यूपी में एक हेक्टेयर फसल में, 1,191.4 घंटे का श्रम लगता है जबकि महाराष्ट्र में प्रति हेक्टेयर 1,728.8 घंटे लगते हैं.
लेकिन, कोविड महामारी और खाद्य पदार्थों तथा ईंधन के दाम बढ़ने से, श्रम की लागत भी बहुत बढ़ गई है—किसानों का कहना है कि पिछले तीन सालों में ये लागत, 7,500 प्रति बीघा (0.6 एकड़) से बढ़कर 9,750 रुपए प्रति बीघा पहुंच गई है. और किसानों के लिए सबसे ख़राब ये है, कि फसल की उत्पादन लागत, उसकी लदाई, और ढुलाई का बढ़ा हुआ ख़र्च, उन्हें ख़ुद ही वहन करना पड़ता है.
ऊर्वरकों तथा फसल सुरक्षा के अन्य रसायनों के दाम भी बढ़ गए हैं, जिससे ये समस्याएं और बढ़ गई हैं. और गन्ने का एसएपी 2017-18 के स्तरों पर अटके रहने से, किसान ख़ुद को घाटे की स्थिति में पाते हैं.
पश्चिमी यूपी के किसानों का कहना है, कि पिछले तीन वर्षों में गन्ने की खेती की कुल लागत, 12,000 रुपए प्रति बीघा से बढ़कर 16,000 प्रति बीघा पर पहुंच गई है, जिससे 60 क्विंटल की उपज होती है. चूंकि यूपी में गन्ने के दाम 325 रुपए प्रति क्विंटल पर अटके हुए हैं, इसलिए पिछले तीन वर्षों में इससे होने वाली आय, 7,500 रुपए प्रति बीघा से घटकर, 3,500 प्रति बीघा पर आ गई है.
दिप्रिंट ने पहले ख़बर दी थी, कि यूपी की गन्ना पट्टी के किसानों ने उन्हीं प्रोत्साहनों की मांग की है, जो उनके समकक्षों को हरियाणा और पंजाब जैसे पड़ोसी राज्यों में मिलते हैं, जैसे मुफ्त बिजली और गन्ने की बढ़ी हुई क़ीमतें.
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