पद्मा सचदेव के पहले कविता संग्रह ‘मेरी कविता मेरे गीत’ की प्रस्तावना में राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था. ‘पद्मा की कविता पढ़ने के बाद मुझे अपनी कलम फेंक देनी चाहिए – पद्मा जो लिखती है वह वास्तव में सच्ची कविता है.’ इस कविता संग्रह के लिए 1971 में इस महान डोगरी कवयित्री को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला. आज 81 वर्षीय पद्मा सचदेव ने मुंबई में अंतिम सांस ली.
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से लेकर लेखक अमिताभ मट्टो तक ‘आधुनिक डोगरी की जननी’ के नाम से मशहूर सचदेव के लिए शोक संदेश लगातार आ रहे हैं. जम्मू और कश्मीर के अंतिम डोगरा राजा महाराजा हरि सिंह के पुत्र कर्ण सिंह ने भी उनकी एक कविता का अंग्रेजी में अनुवाद किया था और डोगरी भाषा के प्रचार में पद्मा की प्रतिबद्धता और प्रयासों को सराहा था.
1940 में जम्मू के पुरमंडल में जन्मी पद्मा एक संस्कृत विद्वान जय देव बडू की तीन संतानों में सबसे बड़ी थी. पिता की भारत के विभाजन के दौरान मृत्यु हो गयी थी. डोगरी लोककथाओं की समृद्ध मौखिक परंपरा ने सचदेव को डोगरी में लिखने के लिए प्रेरित किया और उनकी पहली कविता 1955 में एक स्थानीय अख़बार में प्रकाशित हुई, जब वो मात्र 15 साल की थी. वह बाद में 1966 में ऑल इंडिया रेडियो में शामिल हुईं. 1969 में तीन साल के बाद उनकाअपना पहला कविता संग्रह ‘मेरी कविता मेरे गीत’ प्रकाशित हुआ.
केवल डोगरी ही नहीं, सचदेव की हिंदी और संस्कृत पर भी अच्छी पकड़ थी. उन्होंने हिंदी भाषा में कविताएं, लघु कथाएँ और उपन्यास भी लिखे. उन्होंने दो हिंदी फिल्मों- ‘प्रेम पर्वत’ और ‘आंखें देखी’ के लिए गीत भी लिखे और उर्दू, उड़िया, मराठी से हिंदी और डोगरी में कई साहित्यिक कृतियों का अनुवाद किया.
शिक्षाविद और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत उन्होंने दिप्रिंट को बताया, जिनका पद्मा सचदेव के साथ जुड़ाव 50 साल से पुराना है, उन्हें बीमारी और पितृसत्ता को हराने वाले एक खुशमिजाज, उदार और जीवन से भरपूर व्यक्ति के रूप में याद करते हैं. उन्होंने डोगरी-कश्मीरी-पंजाबी विरासत का प्रतिनिधित्व किया क्योंकि उनकी शादी एक सिख परिवार में हुई थी और उनके पति सुरिंदर सिंह प्रसिद्ध सिंह बंधु जोड़ी का हिस्सा रह चुके हैं और उस्ताद आमिर खान के शिष्य हैं. उनका अतीत दुखों से भरा था, लेकिन फिर भी, उन्होंने कभी इस पर चर्चा नहीं की और एक समृद्ध जीवन जीया.’
पंत ने कहा, पद्मा जी का मन युवा थ. जब मैंने पहली बार उनकी मृत्यु की खबर सुनी, तो मुझे दुख से ज्यादा हैरानी हुई, क्योंकि मुझे अचानक यह अहसास हुआ की कैसे इतने ज़िंदादिल लोगों को भी एक दिन चले जाना होता है.
जेएनयू में लेखक और प्रोफेसर अमिताभ मट्टू भी पद्मा को अपनी पीढ़ी के एक अग्रणी डोगरी कवि के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भाषा के पुनरुद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘उनके निधन से मुझे व्यक्तिगत तौर पर नुकसान की अनुभूति हो रही है क्योंकि मैं उन्हें अच्छे से जानता था. वह ऐसी महिला थीं, जिन्होंने एक बुरी शादी छोड़ दी और दोबारा शादी कर ली, जो उस दौर में एक साहसी निर्णय था.’
साहित्य शैली
अपनी साहित्यिक शैली के बारे में सचदेव के परिचय में, साहित्य अकादमी ने लिखा, ‘उनका साहित्य भारतीय नारीत्व के सुख और दुख, मनोदशा और दुर्भाग्य को दर्शाता है. भले ही वह महिलाओं पर हो रहे सामाजिक अन्याय के प्रति जागरूक हैं, लेकिन उनके नारी चरित्र हर समय अपनी गरिमा बनाए रखते हैं.
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उनकी कविता ‘राजे दीयां मंडियां’- सामंती व्यवस्था पर तीखा हमला है और एक औसत गरीब डोगरा महिला की दुर्दशा को चित्रित करती है.
‘हमारे कांपते हाथों पर छड़ी बरसाकर जिन्होंने मेरी आंखों के सामने एक लुटिया भी न रहने दी, जो हमारे पिटारे खली करके चले गए, उनकी लदी हुई घोड़ियां क्या आपकी हैं? ये राजा के महल क्या आपके हैं ?’
लता मंगेशकर के पहले डोगरी संगीत एल्बम का श्रेय भी पद्मा को ही जाता है , जिसमें ‘भला सिपाइया डोगरिया’, ‘तूं माला तूं’ जैसे प्रसिद्ध गीत शामिल थे- जो आज भी लोग शौक से सुनते और याद करते हैं. सचदेव को शिक्षा और साहित्य में उनके योगदान के लिए 2001 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था.
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