पेगासस विवाद से लेकर कोविड महामारी में बदइंतजामी और किसान आंदोलन तक कांग्रेस ने एक के बाद एक तमाम मुद्दों को संसद के चालू मॉनसून सत्र में उठाकर नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की है. लेकिन ऐसा करते हुए इस पार्टी ने उजागर कर दिया है कि आज उसकी सबसे बड़ी समस्या एक ऐसा मुद्दा उछालने में उसकी असमर्थता है, जो कारगर हो जाए, जमीनी स्तर गूंज पैदा करे और मोदी तथा भाजपा की छवि को चोट पहुंचा सके.
एक क्षण के लिए भाजपा को विपक्ष में खड़ा कर दीजिए और निम्नलिखित मुद्दे उसकी झोली में डाल दीजिए— रक्षा सौदे में अनियमितता का संदेह, सिकुड़ती अर्थव्यवस्था, किसानों में असंतोष, मानवीय त्रासदी, सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में बदइंतजामी, ईंधन की कीमतों में वृद्धि और जासूसी कांड. प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह थाली में परोसे इन मुद्दों का क्या करेंगे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन मानो नीम बेहोशी में पड़ी कांग्रेस पार्टी कोशिश करके भी इन मुद्दों को विजयी चुनावी राजनीति में बदल नहीं पा रही है. यहां तक कि संसद भवन तक की ट्रैक्टर यात्रा भी उसे गति नहीं दे पा रही है.
2013 में राष्ट्रीय राजनीति में मोदी के उत्कर्ष के बाद से ही यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व के लिए एक स्थायी समस्या रही है. पार्टी कई विफल तरीके आजमा चुकी है— ‘सूट-बूट की सरकार’, ‘चौकीदार चोर है’, मोदी के घड़ियाली आंसू ’ जैसे नारे आजमाने से लेकर बड़े गठबंधन तक कर चुकी है. लेकिन कांग्रेस वह फॉर्मूला नहीं तैयार कर सकी है जो मोदी को परास्त कर सके, जो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल तैयार करने में सफल रहे हैं.
जब कोई पार्टी एक मजबूत नेतृत्व से और चुनाव जिताने वाले चेहरे से वंचित हो जाती है तब उसे सबसे जरूरत इस बात की होती है कि अपने ताकतवर प्रतिद्वंदी का मुकाबला करने के लिए कोई जोरदार मुद्दा उठा सके. दुर्भाग्य से कांग्रेस जब मजबूत नेतृत्व से वंचित होती है तब वह दूसरी समस्या सुलझाने में भी विफल हो जाती है.
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मुद्दा-दर-मुद्दा
कांग्रेस फिलहाल कई चुनौतियों से जूझ रही है. भाजपा और मोदी की लोकप्रियता, अमित शाह की चुनावी इंजीनियरिंग से मुकाबला और कार्यकर्ताओं से अलग-थलग अपने शीर्ष नेतृत्व की दिशाहीनता उसकी मुश्किलों में इजाफा कर रही है. मोदी की छवि को न तो भ्रष्टाचार के आरोपों से चोट पहुंच रही है, न उनके नीतिगत फैसलों के पीछे की मंशा पर सवाल उठाने से या उनकी पार्टी के अल्पसंख्यक विरोधी तौर-तरीके पर सवाल उठाए जाने से फर्क पड़ रहा है.
वैसे, राहुल गांधी के ‘सूट बूट की सरकार ’ वाले कटाक्ष ने मोदी को चोट जरूर पहुंचाई थी और उन्होंने भूमि अधिग्रहण कानून को कमजोर करने से कदम खींच लिया था और कल्याणकारी नीतियों की ओर मुड़ गए थे. लेकिन उस कटाक्ष ने चुनावों में उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया, न ही कांग्रेस को कोई फायदा पहुंचाया. इसकी वजह शायद यह थी कि मोदी ने समझ लिया था कि यह उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है और उन्होंने तुरंत रास्ता बदल लिया था.
नवंबर 2016 में नोटबंदी का कदम मोदी पर हमले का आसान हथियार बन गया. आखिर, यह एक नुकसानदेह और अनावश्यक नीतिगत कदम था, जिससे कुछ हासिल नहीं हुआ. कांग्रेस ने इस मुद्दे का भरपूर इस्तेमाल किया लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा का 2017 का चुनाव सबूत है कि इस गलत नीतिगत कदम ने मोदी की भाजपा को कितना कम नुकसान पहुंचाया. राहुल आरोप लगाते रहे कि नोटबंदी से मोदी के चंद ‘पूंजीपति मित्रों’ को ही फायदा पहुंचा लेकिन मतदाताओं पर इन तमाम बातों का कोई असर नहीं पड़ा.
इसके अलावा, राफेल का मुद्दा भी कांग्रेस को तुरुप के पत्ते जैसा नज़र आया. 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हरेक चुनावी सभा में राहुल ‘चौकीदार चोर है ’ का नारा बुलंद करते रहे लेकिन इसका भी कोई लाभ नहीं मिला. ऐसे मुद्दों में नरम हिंदुत्व का मुद्दा भी जोड़ लीजिए. राहुल ने खुद को ‘जनेऊधारी’ तक घोषित किया, धर्मनिरपेक्षता का राग अपनाया और भाजपा पर बहुसंख्यकवादी राजनीति करने का आरोप भी लगाया मगर एक बार फिर कुछ काम न आया.
The brutal lynching of this young man by a mob in Jharkhand is a blot on humanity. The cruelty of the police who held this dying boy in custody for 4 days is shocking as is the silence of powerful voices in the BJP ruled Central & State Govts. #IndiaAgainstLynchTerror pic.twitter.com/4MKvli1ohC
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) June 25, 2019
कोविड संकट और 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन लगाने के मोदी के फैसले के बाद प्रवासी मजदूरों के अपने घरों की ओर पैदल चल पड़ने की मार्मिक तस्वीरों ने कांग्रेस को और हथियार थमाए. इसके साथ नये नागरिकता कानून को थोपने और विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करने के भाजपा तथा उसकी सरकार के कदमों ने उसे पहले ही मुद्दे थमा दिए थे. लेकिन जिन राज्यों के चुनावों में कांग्रेस को भाजपा से सीधा मुकाबला करना पड़ा- मसलन असम- उनके नतीजों ने दिखा दिया कि इन मुद्दों ने न तो भाजपा को नुकसान पहुंचाया और न गांधी परिवार की कांग्रेस को फायदा पहुंचाया.
अब कांग्रेस के पास इतने मुद्दे हैं कि वह चुन नहीं पा रही. वह मोदी सरकार पर हर चीज के लिए हमला करना चाहती है- चाहे वह कोविड की दूसरी लहर में उसकी बदइंतजामी हो या कृषि संकट या अब पेगासस जासूसी कांड. लेकिन ऐसा लगता है कि पार्टी अनिश्चय में है, समझ नहीं पा रही कि किस पर ज़ोर दे और अधिकतम असर डालने के लिए अपनी ऊर्जा और अपने हमलों को किस तरह संगठित करे.
इसकी वजह यह है कि कांग्रेस देख चुकी है कि पिछले सात वर्षों में उसने जो भी मुद्दा उठाया वह कारगर नहीं हुआ. पार्टी के शशि थरूर सरीखे कुछ नेताओं का मानना है कि पेगासस मुद्दे का जमीनी स्तर पर खास असर नहीं पड़ेगा. लेकिन, सूत्रों के मुताबिक, कुछ नेताओं को लगता है कि कोविड की दूसरी लहर खत्म हो जाने के बाद यह मुद्दा भी अब बेअसर हो चुका है. इसी तरह, कुछ नेताओं का कहना है कि किसानों का सवाल भी कांग्रेस की बहुत मदद नहीं करेगा क्योंकि मोदी ने राहुल पर ‘नामदार’ का बिल्ला चिपका दिया है और राहुल जब जनता में किसानों की बात करेंगे तो वह उन पर विश्वास नहीं करेगी.
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फॉर्मूला नहीं खोज पाई कांग्रेस
कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके पास फिलहाल चुनावों में जादू करने वाला कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं है जो मोदी की बड़ी चुनौती का मुकाबला कर सके. वैसे, राज्यों में स्थिति अलग है. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को मोदी को परास्त करने के लिए किसी एक मुद्दे की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि वे खुद इतनी ताकतवर हैं कि टक्कर दे सकें. यही स्थिति दिल्ली में केजरीवाल की है. इसलिए चुनावों में इन दो नेताओं और मोदी के बीच सीधी टक्कर हुई और ये दोनों विजयी हुए. इसकी वजह यह है कि इनके पास वह चीज है जो मोदी को हरा सके- जनता के बीच लोकप्रियता और मतदाताओं को भरोसा दिलाने का कौशल.
कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर वास्तव में नेतृत्व दे सकने लायक नेता जब तक नहीं मिलता तब तक उसे ऐसा कुछ ढूंढना पड़ेगा जो उसे दौड़ में बनाए रखे, शायद एक ऐसा जोरदार मुद्दा, जो जनता में गूंज पैदा करे और मोदी को निर्णायक रूप से कठघरे में खड़ा कर सके. लेकिन न तो पार्टी के वर्तमान शीर्ष आलाकमान में जोश नज़र आता है और न ही वह पार्टी में जोश पैदा कर पा रहा है कि वह मोदी को निशाना बनाने वाला हथियार ढूंढ सके और उसे इतना धारदार बना सके कि वह मोदी की राजनीति को वास्तव में नुकसान पहुंचा सके.
इसमें शक नहीं है कि विपक्ष जिन मुद्दों को अहम मानता है उन पर मोदी सरकार पर सवाल खड़ा करने का उसे पूरा अधिकार है. लेकिन राजनीति और चुनाव के लिहाज से उसे एक ऐसा मुद्दा ढूंढना पड़ेगा जो उसे ताकत दे और उसके प्रतिद्वंदी को चोट पहुंचाए.
1975-77 में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी की ज्यादतियों ने विपक्ष को एकजुट किया था और 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की हार हुई थी. 1987 में विपक्ष ने बोफोर्स घोटाले का पूरा इस्तेमाल करके राजीव गांधी की कांग्रेस को 1989 में हार का मुंह देखने को मजबूर किया था. अटल बिहारी वाजपेयी का ‘शाइनिंग इंडिया ’ अभियान विवादास्पद साबित हुआ था क्योंकि भारत सचमुच में ‘चमक’ नहीं रहा था. कांग्रेस लोगों की इस दबी हुई भावना को भुना कर 2004 में सत्ता में आ गई, हालांकि उसे बहुरंगा गठबंधन करना पड़ा था.
मुद्दे चुनावों में महत्व रखते हैं और व्यक्ति-केंद्रित राजनीति के आज के दौर में भी अहमियत रखते हैं. असली कुंजी यह है कि सही और सटीक मुद्दा खोज लिया जाए.
आज जो अराजकता छायी हुई है, एक मुद्दे से दूसरे मुद्दे की ओर दौड़ मची है वह यही दिखाती है कि कांग्रेस किस तरह अभी भी अपनी राह खोज रही है, वह तरह-तरह के जुगत कर रही है और समझ नहीं पा रही कि वास्तव में क्या कारगर होगा और क्या वह सचमुच कारगर होगा ही. लेकिन अटकलों और प्रयोगों को विराम देना पड़ेगा और भारत की सबसे पुरानी पार्टी को उस बड़े मुद्दे को चुनना होगा जो उसकी तकदीर बना दे और भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी को परास्त कर सके.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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