पिछली सर्दियों में आगे की दशा-दिशा निर्धारित करने के लिहाज से बेहद अहम माने जा रहे और प्रतिष्ठा का सवाल बने पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की बड़ी जीत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ एक नए संघीय मोर्चे की संभावनाओं को जन्म दिया है. क्षेत्रीय दल, पार्टियों के घटक, छोटे-बड़े राजनीतिक परिवार- सभी इस पर बातचीत, राजनीतिक जोड़ तोड़ और यहां तक कि सुर्खियां बटोरने वाले फोटो खिंचवाने के मौकों का फायदा उठाते नजर आ रहे हैं. भाजपा की मजबूत चुनावी मशीनरी को टक्कर देने वाले एक ‘गठबंधन’ की संभावना ने विभिन्न क्षेत्रों में अटकलें और सक्रियता बढ़ा दी है.
मोदी-शाह के दौर में कमजोर राज्यों और क्षेत्रीय दलों के कारण केंद्र में 1990 के दशक की तरह भाजपा विरोधी गठबंधन की पुनरावृत्ति असंभव नज़र आती है. तभी प्रशांत किशोर मोदी के खिलाफ एक नए गठबंधन के चेहरे के तौर पर नहीं बल्कि सभी विपक्षी क्षेत्रीय दलों को करीब लाने वाले रणनीतिकार के रूप में उभरने लगे हैं. 2014 में मोदी के साथ अभियान शुरू करने और फिर उनके खिलाफ क्षेत्रीय स्तर पर हर अहम चुनावी अभियान सफलतापूर्वक संचालित करने के बाद किशोर को ये बात तो अच्छी तरह समझ आ गई है कि मोदी की लोकप्रियता का मुकाबला क्षेत्रीय आधार पर नहीं किया जा सकता.
किशोर को अहसास हो चुका है कि 1990 के दशक के विपरीत इस बार क्षेत्रीय दल कांग्रेस को बाहर रखकर अपने दम पर इस चुनौती का मुकाबला नहीं कर सकते.
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गठबंधन: तब और अब
भारत के दलीय मानचित्र के मद्देनजर ऐसे ही गठबंधन की दरकार है. भारत में 50 से अधिक राजनीतिक दल हैं. फिर भी केवल दो ही दल ऐसे हैं जिनके पदचिह्न एक से अधिक राज्यों में मिलते हैं, इसमें भाजपा बढ़ रही और कांग्रेस सिमटती जा रही है. संक्षेप में कहें तो भारत की अधिकांश पार्टियां मुख्यत: प्रांतीय और यहां तक कि एक सीमित क्षेत्रीय स्तर की ही हैं.
क्षेत्रीय विविधता के बावजूद वास्तव में जो बात इन दलों को एकजुट करती है, वो है अपने क्षेत्रीय स्वरूप में जातीय हित. भारतीय चुनाव विश्लेषणों के मुताबिक भाजपा और खासकर मोदी को जनादेश में फ्लोटिंग वोटर माने जाने वाले अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) वोटबैंक को बड़ी मेहनत से साधा गया है और इस पर लगातार ध्यान दिया जाना जारी है.
भाजपा ने शायद 1990 के दशक के अपने चुनावी इतिहास से ही ऐसा करना सीखा है- जो गठबंधन के दौर का शुरुआती दशक था और उस दौरान ही ओबीसी पार्टियां मजबूत हुईं और उसने भारत के लोकतंत्र को परिभाषित किया. उस दशक में गठबंधन की ऐसी राजनीति ने भाजपा के बहुमत वाले शासन को नकार दिया. संक्षेप में कहें तो मंडल की राजनीति मंदिर का रथ रोकने में सक्षम थी.
हालांकि, जातीय आधार वाला यह गठबंधन और इस पर टिकी नाजुक सहमति अल्पकालिक थी. ऐसा नहीं है कि सिर्फ इसलिए भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में खुद को दोबारा खड़ा किया. बल्कि यह मुख्य रूप से भारत के संघवाद की प्रकृति के कारण था जिसमें शक्तियों और अधिकार की गारंटी नई दिल्ली में ही निहित है.
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प्रतिस्पर्धी संघवाद
दिल्ली और राज्यों के बीच रिश्तों को ‘सहयोगात्मक’ बताने वाली ब्रांडिंग के बावजूद मोदी ने इसे और अधिक केंद्रीकृत बना दिया है और इस सब पर व्यक्तिगत नियंत्रण भी साफ दिखता है. कोविड-19 वैक्सीन और कराधान से लेकर कृषि सब्सिडी तक भारतीय राजनीति अब कार्यपालिका का पर्याय बन गई है.
दूसरी तरफ, पश्चिम बंगाल से पंजाब तक और हिंदी भाषी क्षेत्र से लेकर दक्षिण भारत तक भाजपा अपनी सरकारें बना पाने में विफल रही है. विधानसभाओं के लिए एक के बाद एक चुनाव ने दर्शाया है कि प्रांत या क्षेत्र केंद्र में मोदी को मिले जनादेश का ही कोई प्रतिरूप नहीं होगा.
भारतीय चुनावों के चुनाव विश्लेषक और विशेषज्ञ इस फिनॉमिना को भारतीय मतदाता की चतुराई करार देते हैं जो दो अलग-अलग तरीकों से अपना वोट डालने में सक्षम है: एक राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरा क्षेत्रीय स्तर पर. मतदाता राष्ट्रीय स्तर पर वोट देने में मोदी को लेकर कोई विरोधाभास नहीं दिखाता लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर उनकी पार्टी के खिलाफ मतदान कर रहा है.
आश्चर्यजनक बात यह है कि केंद्रीकृत नियंत्रण और क्षेत्रीय स्तर पर दावों को लेकर टकराव के बावजूद राज्यों को शक्तियों का कोई बहुत महत्वपूर्ण हस्तांतरण नहीं हुआ है. बल्कि, संघवाद की सबसे खास विशेषता यही रही है कि इसने भारत में बहुदलीय लोकतंत्र को आकार दिया. दूसरे शब्दों में, एक राष्ट्रीय दल और कई क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाले भारत का प्रतिस्पर्धी लोकतंत्र वास्तव में प्रतिस्पर्धी संघवाद है जो राज्यों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है.
कोविड-19 महामारी से पहले वाले समय में मोदी ने केंद्रीय स्तर पर बड़े कल्याणकारी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने पर जोर देकर और साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा का ढोल लगातार पीटकर अपनी लोकप्रियता सुनिश्चित की.
अगर महामारी अब नियंत्रण में आ गई तो इसे मोदी के नेतृत्व के नतीजे के तौर पर सेलिब्रेट किया जाएगा. यदि तबाही जारी रही तो इसके लिए राज्यों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ऐसा किया भी जाएगा. यह संबंध न तो सहयोगात्मक तरीके से परिभाषित होता है और न ही विषमता से. बल्कि भारतीय संघवाद ने समय-समय पर प्रतिस्पर्धा के बावजूद यह सुनिश्चित किया है कि राजनीतिक राजधानी दिल्ली ही बनी रहे.
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लचीला रुख या विचारधारा?
1990 के दशक के विपरीत अब नया गठबंधन सिर्फ उन सभी क्षेत्रीय और पारिवारिक दलों को साथ लाने मात्र से ही नहीं बन सकता जो मोदी को चुनौती दे सकते हैं. स्टार कैंपेन रणनीतिकार का मानना है कि प्लस फैक्टर के लिए एक ‘चेहरा’ चाहिए. चेहरा भी ऐसा होना चाहिए जो हर तरफ नज़र आने की मोदी की ताकत का मुकाबला कर सकता हो.
माना जा रहा है कि व्यक्तिगत करिश्मा और व्यक्तित्व, इसे दो चेहरों के बीच की प्रतिस्पर्धा बना देगा. लेकिन अभी तक वह चेहरा अदृश्य ही बना हुआ है. यह तब है जबकि मीडिया, पोलस्टर्स और पार्टी रणनीतिकारों ने हरसंभव प्रयास कर लिए, उन्होंने किसी न किसी नेता को प्रोजेक्ट करने की कोशिश की लेकिन सभी कोशिश व्यर्थ रही.
लेकिन भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में हर तरह के नेताओं तक अपनी पैठ और सहजता कायम कर चुके प्रशांत किशोर ही हैं, जो चाहे-अनचाहे मोदी से आमने-सामने मुकाबले के लिए तैयार हो रहे हैं. या फिर यह इस समय की रणनीति नज़र आती है.
90 के दशक में और उसके बाद से सत्ता पर काबिज होने के लिहाज से गठबंधनों ने वैचारिक स्तर पर लचीले रुख को मानक संचालन प्रक्रिया के तौर पर अपना लिया है. इसने निंदा को एक राजनीतिक गुण बना दिया है, जिसका एकमात्र मंत्र है ‘आपको बस जीत हासिल करने में सक्षम होना चाहिए.’
इतना ही नहीं कभी भाजपा सदस्य रहे और क्रिकेटर से एंटरटेनर बने नवजोत सिंह सिद्धू अपनी निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए एक बड़ी पार्टी इकाई को अपने कब्जे में कर सकते हैं. न तो प्रेस और न ही ऐसा लगता है कि पार्टी के आका यह पूछ रहे हैं कि सिद्धू के पास अपनी खुद की हैसियत के अलावा क्या है? और सबसे बड़ी बात यह है, सिद्धू की नियुक्ति जैसे काम काफी मुश्किल से खड़े किए गए पार्टी के ढांचे की कीमत पर होते हैं.
यह न तो केवल एक नैतिक प्रश्न है या और न ही सिद्धू और एक राज्य में कांग्रेस के भविष्य तक ही सीमित है. यह मोदी-युग में एक नए गठबंधन के मूल से जुड़ा है. मुख्यत: इसलिए क्योंकि मोदी एक वैचारिक शक्ति हैं. केवल मोदी विरोधी होना ही विपक्ष के लिए काफी नहीं होगा. इससे इतर, किशोर को भी यह बताना होगा कि वह चाहते क्या हैं.
प्रशांत किशोर का रणनीतिकार से पॉलिटिकल एक्टर बनना भी अब कांग्रेस पर निर्भर है. यदि किशोर चुनावी गणित में महारत हासिल भी कर लें तो कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो कुछ (भले ही सीमित सही) राष्ट्रीय ताकत रखती है. उनका साथ आना कांग्रेस के लिए एक मजबूरी का सौदा या फिर ऐसा मौका साबित हो सकता है जो वास्तव में मोदी की पार्टी के लिए खतरा हो.
रुख, विचारधाराओं और चेहरों को लेकर लचीलापन मंडल-मंदिर युग की बात हो चुकी है क्योंकि भारत अब निश्चित तौर पर एक कठोर हिंदुत्व की राह पर है. निहित स्वार्थवश पैंतरेबाजी और वैचारिक शुद्धता के बीच अंतर लगभग मिट गया है. भारतीय राजनीतिक परिदृश्य को फिर से निर्मित करने के अवसर भी बेहद कम हैं.
पार्टियां, क्षेत्र, जातीय समीकरण और राजनीतिक घराने शायद चेहरे की जरूरत को अहम बनाते हैं और साथ ही असंभव भी. यह केवल विचार शक्ति और यहां तक कि विचारधारा, जिसने मोदी को पहले स्थान पर स्थापित कर दिया है, में थोड़ा लचीलापन लाकर ही किया जा सकता है
सबसे जरूरी है, मोदी और हिंदुत्व का मुकाबला अब केवल एक विशाल, मजबूत और अनूठे विचार से किया जा सकता है जो भारत को नए सिरे से पुनर्निर्मित और पुनर्स्थापित कर सकता हो.
(लेखिका कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में आधुनिक भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीतिक चिंतन पढ़ाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @shrutikapila है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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