पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर काफी नाराजगी है. इसकी मुख्य वजह यह है कि इनकी खुदरा कीमतों में 60 प्रतिशत हिस्सा तो केंद्रीय तथा राज्यों के टैक्सों का है. मुद्रास्फीति को समायोजित करने का बाद भी इनकी कीमतें कभी ऊंची नहीं थीं.
‘ओपेक’ की ओर से दूसरे झटके ने 1980 में तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों को 30 डॉलर (आज के हिसाब से 100 डॉलर) प्रति बैरल पर पहुंचा दिया था. तब भारत में पेट्रोल की कीमत में 5.10 रुपये (आज के हिसाब से 80 रुपये) प्रति लीटर की वृद्धि हो गई थी. 2014 में भी यही हुआ. तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमत 100 डॉलर से ऊपर चली गई थी लेकिन भारत में यह 70 रु. से कुछ ऊपर थी. आज इसका उलटा हो रहा है क्योंकि पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क प्रति लीटर तीन गुना और डीजल पर छह गुना बढ़ गया है.
फायदा सरकार को हुआ है. पिछले सात वर्षों में पेट्रोल उत्पादों पर टैक्स से केंद्रीय राजस्व में पांच गुना वृद्धि हुई है. लेकिन राजस्व के लिए एक स्रोत पर निर्भरता के खतरे भी हैं. ऊंची दर नज़रों में चढ़ जाती है और व्यापक विवाद का विषय बनती है. और 150 प्रतिशत के टैक्स का बोझ डालने के लिए आपके पास कोई विश्वसनीय आधार नहीं होता. सरकार सिर्फ यही कह सकती है कि वह टैक्स दरों को कम नहीं रख सकती क्योंकि उसे बेहद जरूरी राजस्व गंवाना पड़ेगा. इतना तो जाहिर है. फिर भी वह आंशिक समाधान दे सकती है— प्रति लीटर फ्यूल पर टैक्स का बोझ निश्चित कर दे. इससे, तेल की कीमतें बढ़ती रहीं तो टैक्स के जरिए अचानक ज्यादा लाभ कमाने का रास्ता बंद होगा.
एक बड़ी समस्या भी है. इस साल के बजट प्रावधान के मुताबिक केंद्रीय टैक्स राजस्व जीडीपी के 9.9 प्रतिशत के बराबर रखा गया है. मोदी सरकार के आने से पहले यह आंकड़ा 10.1 प्रतिशत का था. पेट्रोलियम पर टैक्स के कारण राजस्व में वृद्धि को निकाल दीजिए तो जीडीपी के मुक़ाबले राजस्व का अनुपात और गिर जाएगा. जाहिर है, यह महामारी के प्रभाव को भी दर्शाता है, जिसके 17 महीने हो रहे हैं. इसी वजह से पिछले साल जीएसटी से आमदनी 2018-19 में इससे हुई आमदनी से कम थी, जो कि जीएसटी लागू होने का पहला पूरा साल था. यह साल बेहतर हो सकता है क्योंकि मई में टुकड़ों में लॉकडाउन का राजस्व पर वैसा असर नहीं पड़ा होगा जैसा 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन के कारण पड़ा था.
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अमेरिका और ब्रिटेन से कुछ सीख लें
लेकिन आगे समस्या है. आज से एक साल बाद राज्यों को जीएसटी राजस्व में पांच साल तक सालाना 14 प्रतिशत की वृद्धि की गारंटी समाप्त हो जाएगी. चालू मंदी के खत्म होते ही इस बीच कोई बड़ा उपाय सोच लेना होगा. दरों को तर्कसंगत बनाना होगा और औसत जीएसटी दर को उस मूल स्तर पर लाना होगा जिसका लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा जीएसटी के पालन में सुधार की प्रशंसनीय कोशिश जारी रखनी होगी, जिसके कुछ अच्छे फल मिले हैं.
इस बीच क्यों न अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन और ब्रिटिश वित्त मंत्री ऋषि सुनक से कुछ सीख ली जाए? दोनों ने टैक्स बढ़ा दिए हैं, या तो अभी के लिए या आगे के लिए. बाइडन ने इन्फ्रास्ट्रक्चर पर और गरीब अमेरिकियों को भुगतान पर भारी खर्च करने का कार्यक्रम बनाया है. इसके साथ ही उन्होंने पूंजीगत लाभ पर टैक्स की दर दोगुनी करने, ऊपरी तबके के लिए आयकर दर बढ़ाने, कॉर्पोरेट टैक्स बढ़ाने का प्रस्ताव किया है. ये सब प्रगतिशील उपाय हैं जो गरीबों को नहीं बल्कि अमीरों को चोट पहुंचाते हैं. सुनक ने भी कहा है कि तात्कालिक आर्थिक मंदी से निबटते ही वे कॉर्पोरेट टैक्स की दरें बढ़ाएंगे. दोनों नेताओं ने अपने-अपने देश में दरों को घटाने के चलन को उलट दिया है. वक़्त बदल जाए तो नीति भी बदलनी पड़ती है.
तो फिर, भारत सरकार कोविड के भुक्तभोगियों को राहत देने के लिए उन आमदनियों और संपत्ति पर टैक्स दरों में वृद्धि न करने पर क्यों अडिग है जिन पर पहले से कम टैक्स लगाया जा रहा है? यह तो जाहिर और तार्किक कदम होगा. यह कहने के लिए किसी को थॉमस पिकेटी के अनुसार ‘ब्राह्मण वामपंथी’ होने की जरूरत नहीं है. टैक्स-जीडीपी अनुपात को ठीक रखने और प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए बेहद जरूरी पैसे जुटाने के लिए कर्ज लेने के सिवाय, जिससे ब्याज दरें बढ़ती हैं और सार्वजनिक कर्ज खतरनाक स्तर पर पहुंचता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है.
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