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Friday, 22 November, 2024
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भारत में सरकार कभी पॉपुलेशन कंट्रोल नहीं कर पाई, ये अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने का समय है

जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करके आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि लाने की कोशिश करने की जगह आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर हासिल करने का लक्ष्य तय करना एक बेहतर विकल्प है क्योंकि इससे जनसंख्या वृद्धि दर में स्वतः गिरावट आती है.

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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 11 जुलाई को अपने राज्य के लिए जनसंख्या नीति-2021-30 के मसौदे की घोषणा की. 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है, और गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है. मसौदे में इस लक्ष्य की घोषणा की गई है- ‘राज्य की जनसंख्या वृद्धि दर को इसके विकास के लक्ष्यों के अनुकूल स्तर पर लाया जाएगा और विशेषकर इस दर को मौजूदा 2.7 प्रतिशत से घटाकर 2026 तक 2.1 प्रतिशत पर और 2030 तक 1.9 प्रतिशत पर लाया जाएगा. 2020 में इसकी औसत राष्ट्रीय दर 2.2 प्रतिशत थी.’

पिछले एक दशक में पूरे भारत में जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट जारी रही है, जबकि उत्तर के हिंदीभाषी राज्यों की तुलना में दक्षिणी राज्यों में इसमें गिरावट ज्यादा तेज रही है. अगर लक्ष्य उत्तर प्रदेश में इस दर में कमी लाने का है तो इसके लिए सबसे अच्छा उपाय क्या होगा? और इसका उस ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ के लिए क्या मतलब होगा, जिसकी बहुत दुहाई दी जाती है? युवा, और आर्थिक रूप से उत्पादक आयुवर्ग की आबादी में वृद्धि को ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ के रूप में देखा जाता है. क्या हम उस माल्थसवादी तबाही की दहलीज पर हैं, जिसमें बहिसाब बढ़ती आबादी आर्थिक प्रगति की उपलब्धियों को हजम कर लेती है.


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संजय गांधी का तरीका नहीं चलेगा

गणतंत्र के प्रारम्भिक वर्षों में जनसंख्या नियंत्रण को राष्ट्रीय के हिस्से के तौर पर मान्य किया गया था. ‘हम दो, हमारे दो’ नारा हम भूले नहीं हैं. लेकिन इमरजेंसी के दौरान (1975-77 में) संजय गांधी का व्यापक नसबंदी अभियान राजनीतिक जहर बन गया. अब नया विचार यह चल पड़ा कि जनसंख्या नियंत्रण लोगों की आमदनी में वृद्धि और उनकी खुशहाली का, शिक्षा के प्रसार का खासकर महिलाओं में शिक्षा के प्रसार, देर से शादी करने का मामला है. इसने श्रम बाज़ार में महिलाओं के प्रवेश में वृद्धि की. यह निष्कर्ष विकसित देशों के ही नहीं, अपने यहां केरल और तमिलनाडु के अनुभवों के आधार पर निकाला गया, जहां साक्षरता दर ऊंची थी और महिलाओं का ज्यादा सशक्तीकरण हुआ था.

इसके बाद हम 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के बाद वाले दौर में आते हैं. इस दौर में ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ का विचार मजबूत हुआ, जब भारत में युवाओं की बढ़ती आबादी को आर्थिक वृद्धि दर में तेजी हासिल करने के लिए एक थाती, एक मूल्यवान संसाधन माना जाने लगा. कहा गया कि उत्तरी अमेरिका, यूरोप, जापान जैसी विकसित अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बुढ़ा रही हैं. उनके यहां बुजुर्ग एवं पराश्रित लोगों की आबादी के मुक़ाबले युवा एवं उत्पादक आबादी का अनुपात घट रहा है. उनकी आर्थिक वृद्धि के लिए चीन और भारत जैसे देशों के युवाओं की जरूरत होगी, जिनकी आबादी बड़ी है और बढ़ रही है. इसलिए, भारत में आर्थिक वृद्धि के शुरुआती दौर में जनसंख्या वृद्धि को एक बोझ की बजाय मूल्यवान थाती माना गया. इसलिए जनसंख्या नियंत्रण का कोई मतलब नहीं था.

लेकिन ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ का दोहन तभी किया जा सकता है जब देश की आबादी के युवा और उत्पादक हिस्से को लाभकारी काम में लगाया जाए. इसके लिए पर्याप्त पूंजी चाहिए ताकि श्रमिकों का उपयोग करने वाले उद्योग लगाए जा सकें और इस तरह की नीति को लागू किया जा सके. युवा आबादी को रोजगार के लायक बनाया जाना चाहिए. इसके लिए युवाओं में ऊंची साक्षरता दर, उपयुक्त हुनर, और उनकी निरंतर प्रगति के मौके उपलब्ध कराए जाएं. श्रमशक्ति की गुणवत्ता जैसे तत्व भी महत्वपूर्ण हैं. यह स्वास्थ्यसेवा एवं शिक्षा तक पहुंच के ऊपर निर्भर है. अगर बड़ी संख्या में बच्चे कुपोषित हैं या उनका विकास बाधित है, तो वे आगे चलकर कम उत्पादक होंगे. भारत के लिए ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ का दौर अब कुछ वर्षों तक रहने वाला है. 2050 तक जनसंख्या 1.6 अरब पर स्थिर हो जाएगी. अगर हम रोजगार के अवसरों में अहम वृद्धि करके ऊंची आर्थिक वृद्धि की दर को वापस हासिल नहीं करते तो हम निम्न आय वाले जाल में उलझ जाएंगे.

पहले अर्थव्यवस्था को मजबूत करें

उत्तर प्रदेश ने जो पहल की है उससे कई अहम सवाल खड़े होते हैं. क्या नीति का मसौदा इस बात का परोक्ष स्वीकार है कि हम ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ उठाने से चूक गए और आबादी में वृद्धि देश की उत्पादक आबादी पर आश्रित आबादी के अनुपात में ही वृद्धि करेगी?


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उपलब्ध आंकड़े बताते हैं कि ‘जनसांख्यिकीय लाभ’ का दौर अभी एक दशक तक जारी रहेगा, लेकिन इसके लिए ऐसी नीतियां बनानी होंगी कि श्रम आधारित मैनुफैक्चरिंग का विस्तार हो और भारत कम लागत वाली श्रमिक गतिविधियों का आधार बन जाए. यह हम चीन में होता देख चुके हैं और अब यह वियतनाम तथा पड़ोसी बांग्लादेश में हो रहा है. लेकिन हमारी कुछ नीतियां इसके खिलाफ जा रही हैं. उदाहरण के लिए, उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन यानी पीएलआइ स्कीम के तहत पूंजी एवं टेक्नोलॉजी केन्द्रित उद्योगों में सार्वजनिक पैसा भारी मात्र में लगाया जा रहा है, जिससे कम रोजगार ही पैदा होता है. इसके बदले लघु एवं मझोले उद्योगों पर ज्यादा ज़ोर देना चाहिए था, असंगठित क्षेत्र को ज्यादा मौका दिया जाना चाहिए था, जिससे प्रति इकाई पर पूंजी निवेश के अनुपात में रोजगार के कहीं ज्यादा अवसर पैदा होते.

सरकारी पहल के जरिए जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास भारत में सफल नहीं हुआ है और आगे भी कारगर होने की संभावना कम है. चीन में यह एक संतान नीति को बेहद सख्ती से लागू करके हासिल किया गया, जिससे जनसंख्या वृद्धि को काबू में रखने में सफलता मिली होगी लेकिन एक लोकतंत्र में इस तरह के अमानवीय सरकारी कदम की इजाजत नहीं दी जा सकती. हमें इमरजेंसी वाले दौर से सबक लेना चाहिए. जनसंख्या वृद्धि की नीची दर बेशक हमारा लक्ष्य है लेकिन इसमें शिक्षा का प्रसार, खासकर महिलाओं में इसका प्रसार और उनमें रोजगार का विस्तार ही कारगर साबित हुआ है. जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करके आर्थिक वृद्धि दर में वृद्धि लाने की कोशिश (जो कि एक संदिग्ध लक्ष्य है) करने की जगह आर्थिक वृद्धि की ऊंची दर हासिल करने का लक्ष्य तय करना एक बेहतर विकल्प है क्योंकि इससे जनसंख्या वृद्धि दर में स्वतः गिरावट आती है.

उत्तर प्रदेश सरकार की नीति के मसौदे के कुछ ऐसे भी पहलू हैं, जो स्वागत योग्य हैं. मसलन, माताओं और बच्चों की मृत्यु दर में कमी लाना, शिशुओं के जन्म के बीच समय का अंतर बढ़ाना, और माताओं तथा बच्चों की बेहतर सेहत के लिए काम करना. ये सब किसी भी विवेकपूर्ण स्वास्थ्य नीति के अनिवार्य तत्व होने चाहिए. हमें जनसंख्या नियंत्रण नीति बनाने की जरूरत नहीं है. हमें एक बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा नीति की जरूरत है, और सबसे बढ़कर एक सुसंगत आर्थिक रणनीतिक की जरूरत है.

(श्याम सरन पूर्व विदेश सचिव और सीपीआर में सीनियर फेलो हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )


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