नई दिल्ली: देश में गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध कराना भारतीय समाज के कमजोर तबकों के लिए नरेंद्र मोदी सरकार के कोविड-19 राहत पैकेज का मुख्य आधार रहा है और पूरे भारत में महामारी के कहर जारी रहने के बीच इसे कई बार आगे भी बढ़ाया गया है.
फिर भी अगर प्रोटीन का एक अहम स्रोत मानी जाने वाली दालें बांटने की बात की जाए तो इस योजना में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे गए हैं.
आपकी पसंदीदा दाल से लेकर सिर्फ चना दाल तक और फिर मौजूदा योजना में ‘कोई दाल नहीं’ तक, देश के गरीबों को मुफ्त खाद्यान्य मुहैया कराने की इस कवायद में खासी गिरावट नजर आई है. दालों की कमी और बढ़ती कीमतों ने मोदी सरकार को अपनी मुफ्त योजना में कई तरह की कटौती के लिए बाध्य किया है.
पिछले वर्ष मार्च में शुरू हुई प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के तहत 30 जून तक सभी राशन कार्ड लाभार्थियों को प्रति माह प्रति व्यक्ति 5 किलो चावल या गेहूं मुफ्त दिया गया था. इसके अलावा, ‘प्रोटीन की पर्याप्त उपलब्धता’ सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय प्राथमिकताओं के आधार पर प्रति परिवार एक किलो दाल मुहैया कराई जा रही थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाद में इस योजना को नवंबर 2020 तक बढ़ा दिया लेकिन एक महत्वपूर्ण बदलाव के साथ—इसमें लाभार्थियों को मिलने वाली दालों का विकल्प हटा लिया गया. इसके बजाये, सरकार ने कहा कि वितरण की प्रशासनिक व्यवस्था में आसानी और केंद्रीय खाद्य भंडार में चने की प्रचुरता को ध्यान में रखते हुए वह परिवारों को एक किलो चना दाल मुहैया कराएगी. इस योजना का लाभ कुल मिलाकर 19 करोड़ से अधिक परिवारों को मिलना था.
योजना के प्रारूप में इस बदलाव को दक्षिणी और उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिहाज से बिल्कुल भी अच्छी खबर नहीं माना गया.
उनमें से कई ने अप्रैल-जून 2020 की अवधि में मूंग, अरहर, उड़द और मसूर जैसी दालों का विकल्प चुना था. उत्तर प्रदेश और झारखंड जैसे कुछ ही राज्यों ने इस अवधि के दौरान चना दाल को चुना था.
हालांकि, मोदी सरकार के जुलाई और नवंबर 2020 के बीच केवल चना दाल उपलब्ध कराने के निर्णय के साथ सभी राज्यों को खानपान संबंधी अपनी प्राथमिकताओं के बावजूद यह दाल ही लेनी पड़ी.
मोदी सरकार ने इस साल अप्रैल में जब कोविड की दूसरी लहर के बीच यह योजना फिर से शुरू की, तो इसने परिवारों को दाल मुहैया कराने के प्रावधान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया. लाभार्थी अब केवल 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न के हकदार थे.
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घटता सरकारी स्टॉक
यह कदम ऐसे समय में उठाया गया है जब सरकार के पास तुअर और चना जैसी प्रमुख दालों का बफर स्टॉक पिछले साल की तुलना में 2021 में तेजी से घटा है, जिससे दालों को खाद्य सहायता योजना में शामिल करना मुश्किल हो गया.
केंद्रीय बफर स्टॉक में सामान्यत: 20-23 लाख टन दालें होती हैं. हालांकि, दिप्रिंट की तरफ से हासिल किए उपभोक्ता मामलों के विभाग के दस्तावेजों के अनुसार, 30 अप्रैल तक केवल 12.45 लाख टन स्टॉक बचा था.
बफर स्टॉक घटने के लिए मुख्य तौर पर दो फैक्टर जिम्मेदार हैं. दालों का बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक होने के कारण भारतीय राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ (नेफेड) खरीफ और रबी सीजन में पर्याप्त मात्रा में दालों की खरीद नहीं कर पाया.
इसके अलावा, पीएमजीकेवाई के तहत बड़ी मात्रा में दालों के वितरण के बीच नेफेड को चालू वित्त वर्ष में कैरीओवर स्टॉक में खासी कमी का सामना करना पड़ा.
स्टॉक का स्तर कम होने के कारण सरकार को इस साल मई में कुछ दालों को आयात मुक्त करना पड़ा, जिसके तहत 31 अक्टूबर तक कोई भी पक्ष अरहर, मूंग और उड़द दाल का आयात कर सकता है.
मोदी सरकार ने 2 जुलाई से 31 अक्टूबर तक की अवधि के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत दालों पर तत्काल प्रभाव से स्टॉक सीमा भी लागू की है. इस आदेश के तहत, मूंग को छोड़कर सभी दालों के लिए स्टॉक सीमा तय की गई है, विभिन्न हितधारकों के लिए अलग-अलग मात्रा में बाजार में दालों की उपलब्धता बढ़ाना और इसकी कीमतें स्थिर रखना निर्धारित किया जाना है, क्योंकि देश में जल्द ही त्योहारी सीजन आने वाला है.
लागत संबंधी फैक्टर और राजकोषीय बोझ
दालों की कीमत मुफ्त अनाज योजना के प्रारूप में एक महत्वपूर्ण फैक्टर रही है. खरीद लागत के मामले में चना सबसे सस्ता है, जिसने इसे पसंदीदा विकल्प बना दिया और योजना के तहत समग्र लागत घटाने में मदद की.
संसद में पूछे गए एक सवाल पर केंद्र सरकार के जवाब के मुताबिक, अप्रैल-जून 2020 की अवधि में 5.65 लाख मीट्रिक टन (एलएमटी) दालें राज्यों को मुफ्त आवंटित की गईं, जिस पर मोदी सरकार ने लगभग 5,000 करोड़ रुपये खर्च किए.
इसमें करीब 885 करोड़ रुपये प्रति एलएमटी लागत आई. लेकिन जुलाई-नवंबर 2020 की अवधि में प्रति एलएमटी राजकोषीय बोझ कम था. इस अवधि में 8.82 एलएमटी साबुत चना राज्यों को मुफ्त आवंटित किया गया, जिस पर केंद्र को कुल 6,999.24 करोड़ रुपये यानी प्रति एलएमटी 793 करोड़ रुपये की लागत वहन करनी पड़ी.
योजना का हालिया प्रारूप, जिसमें दाल को पूरी तरह हटा दिया गया है, ऐसे समय लॉन्च किया गया जब खाद्य तेल, अंडा, मछली, चिकन और दाल जैसे विभिन्न खाद्य पदार्थों की कीमतें घरेलू बाजारों में नई ऊंचाइयों को छू रही थीं.
तुअर एमएसपी से 15-20 फीसदी ऊपर 7,000-7,200 रुपये प्रति क्विंटल बिक रही है, वहीं, उड़द एमएसपी से 30-35 फीसदी ऊपर 8,000 रुपये प्रति क्विंटल और मूंग एमएसपी से पांच फीसदी ऊपर 7,600-7,800 रुपये प्रति क्विंटल पर बिक रही है.
ऐसे ऊंचे दामों पर दालों के मुफ्त वितरण का मतलब मौजूदा 93,000 करोड़ रुपये के आकलन की तुलना में कहीं ज्यादा राजकोषीय बोझ होता.
भारतीय परिवारों के पोषण एक चुनौती
हालांकि, सरकारी योजना से दालों को हटाना पोषण के लिहाज से एक चुनौती उत्पन्न करता है, खासकर यह देखते हुए कि गरीब परिवारों के लिए तो यही प्रोटीन का एक अहम स्रोत हैं.
अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के 2020 के एक अध्ययन में पाया गया था कि लागत फैक्टर की वजह से ग्रामीण भारत में मांस, मछली या अंडे के बजाये दालें ही प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं.
आईएफपीआरआई की सीनियर रिसर्च फेलो पूर्णिमा मेनन ने कहा, ‘भारतीय परिवारों के सामने आहार संबंधी तमाम चुनौतियां हैं; कई अध्ययन बताते हैं कि खानपान की स्थिति खराब है और अधिकांश भारतीयों के लिए पौष्टिक आहार का सेवन कर पाना संभव नहीं है. ऐसे में पीडीएस का हिस्सा बनाकर भारतीय आहार में दालों को शामिल कराना उपयोगी साबित होगा.’
उन्होंने कहा कि आईएफपीआरआई के अध्ययन से पता चलता है कि खपत में सुधार के लिए थोड़ी मात्रा में इसे शामिल करने के बजाये पर्याप्त अतिरिक्त सब्सिडी की जरूरत होगी.
उत्तर प्रदेश के गरीबों के खानपान के पैटर्न के आधार पर दिसंबर 2020 में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया था कि आय के मौजूदा स्तर, खपत के पैटर्न और खाने-पीने की वस्तुओं के दामों को देखते हुए 75 प्रतिशत परिवार पौष्टिक आहार लेना वहन नहीं कर सकते, ऐसे में सरकार की तरफ से प्रयास किए जाने की जरूरत है.
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