वर्ष 2017 में गुजरात विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे. कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस के पक्ष में एक अवसर की तरह देख रहे थे. इसके पीछे दो मूल कारण थे. वर्ष 2000 के बाद पहला अवसर था जब गुजरात में भाजपा मोदी से अलहदा किसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव लड़ रही थी. दूसरा कारण हाल के दिनों में गुजरात में उभरा पाटीदार आन्दोलन था. इस दरम्यान जातीय संघर्ष की हवा भी राजनीतिक नारों में गूंजने लगी थी.
कांग्रेस के प्रति उदार भाव रखने वाले बुद्धिजीवियों को उम्मीद थी कि बदले हुए राजनीतिक परिवेश में कांग्रेस गुजरात में बाजी पलट देगी. हालांकि ऐसा हुआ नहीं, लेकिन उस चुनाव ने कुछ गहरे चिन्ह छोड़े जो कांग्रेस के लिए सबक हो सकते थे और भाजपा के लिए सतर्क होने का मौका. सत्ता में वापसी के बाद भाजपा ने पाटीदार आंदोलन तथा जातीय विभाजन की कोशिशों पर पानी डालने में कामयाबी हासिल करते हुए एक स्थायी सरकार दी. किंतु कांग्रेस ने शायद वह सबक अभी तक नहीं लिया.
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संगठन के नेता हाशिए पर
कांग्रेस की बड़ी चूक यह रही कि वह अवसर का लाभ लेकर गुजरात में अपने संगठन के आधार को मजबूत करने की दूरगामी नीति की बजाय उधार के योद्धाओं के भरोसे मैदान में उतरने का रास्ता अख्तियार कर ली. राहुल गांधी गुजरात कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा आंदोलन के उभार से निकले युवाओं पर भरोसा जता रहे थे. बीच चुनाव ऐसा लगने लगा था कि राहुल गांधी को गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी, कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल और प्रभारी अशोक गहलोत से ज्यादा हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर पर भरोसा है. इन तीन युवाओं के साथ अंदरखाने हो रहीं बैठकों, चर्चाओं और सांठगांठ की खबरें उस दौरान मीडिया में आने लगी थीं. पार्टी का संगठन और संगठन के नेता हाशिये पर थे और कांग्रेस की तरफ से सीधा मोर्चा मानो यह तिकड़ी ले रही हो.
टिकट बंटवारे ने काफी कुछ साफ़ भी कर दिया. जिग्नेश मेवानी निर्दलीय चुनाव लड़े तो कांग्रेस ने उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा. अल्पेश ठाकोर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े. हार्दिक पटेल चुनाव नहीं लड़े लेकिन कांग्रेस के लिए मीडिया और जनसभाओं में खूब बैटिंग की. इसपर भाजपा नेताओं ने यहां तक कहना शुरू कर दिया था कि कांग्रेस ने अपना चुनाव आउटसोर्स कर लिया है. जो हुआ वह इतिहास था. लेकिन इतिहास की उस चूक का मोल कांग्रेस गुजरात में आज भी चुका रही है. यह इतिहास की गुजरी बातें थीं. लेकिन वर्तमान में कांग्रेस की रीति-नीति में सबक लेकर सुधार की बजाय गलती को दोहराया ही जा रहा है.
अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को लेकर आंतरिक द्वन्द से जूझ रही कांग्रेस ने 2022 में होने वाले यूपी चुनाव से पहले वैसी ही गलती दोहराई है. ख़बरों के मुताबिक कांग्रेस ने मंचीय शायर इमरान प्रतापगढ़ी को कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया है. खैर, इमरान प्रतापगढ़ी कांग्रेस से जुड़े रहे हैं. मुरादाबाद से पिछला लोकसभा चुनाव भी लड़े लेकिन हार गये. स्टार प्रचारक के रूप में भी कांग्रेस उनकी एक ख़ास समुदाय के बीच लोकप्रियता को भुनाती रही है. लेकिन संगठन को लेकर उनका कांग्रेस में अनुभव न के बराबर है. उनके नाम के चयन के प्रति कांग्रेस के इस अगाध आकर्षण का एकमात्र जो कारण नजर आता है वह यह है कि इमरान प्रतापगढ़ी अपनी महफ़िलों, गजलों और शेरो-शायरी में नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ नफरत की हद तक अलफ़ाज़ उगलते रहे हैं.
खैर, इमरान प्रतापगढ़ी अल्पसंख्यक मोर्चे के संगठन को कितने नीचे तक लेकर जाते हैं, यह देखना शेष है. किंतु यदि सिर्फ इस आधार पर कांग्रेस ने इमरान प्रतापगढ़ी को एंटी-मोदी तबके के बीच लोकप्रियता के आधार पर अल्पसंख्यक मोर्चे का अध्यक्ष बनाया है तो यह ‘आउटसोर्स’ पद्धति को दोहराने का यूपी मॉडल साबित हो सकता है. ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी के प्रभाव में आने के बाद कांग्रेस से ‘संगठन संस्कृति’ क्षीण होती गयी है और क्षणिक प्रसिद्धि के नैरेटिव खड़ा करने की संस्कृति को बढ़ावा मिलता गया है. संगठन का काम क्षणिक प्रसिद्धि पाने वाले नैरेटिव से बिलकुल अलहदा है. संगठन हर घड़ी, हर दिन, हर समय और हर परिवेश में गतिशील रहने वाली गतिविधि है. प्रसिद्धि से इसका कोई लेना देना नहीं होता. भाजपा में सबसे कम प्रसिद्धि संगठन मंत्रियों की होती है, जबकि पूर्णकालिक पद भी इन्हीं का होता है. अत: यह पूर्णकालिक काम है.
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जनादेश या जनाधार
क्या कांग्रेस अपने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की संगठन में भूमिका को लेकर कभी चिंतित नजर आई है ? राहुल गांधी के बाद वाली कांग्रेस में तो इसको लेकर भी संशय है कि कांग्रेस में पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं भी या नहीं ? यह संशय इसलिए कि अपने कार्यकाल के दौरान राहुल गांधी स्वयं कभी पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में नहीं नजर आये!
सभी दलों को अपने-अपने ढंग से अपना दलीय ढांचा खड़ा करने, उसे चलाने तथा उसकी रीति-नीति तय करने की स्वतंत्रता है. कांग्रेस ने पिछले वर्षों में जिस तरह अपने आधार को खोया है, वह उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़ा करता है. इन सवालों से भागकर वह राजनीति में टिकी रहेगी, ऐसा संभव नहीं है. कांग्रेस के लिए संकट यह नहीं है कि वह सत्ता का जनादेश खोती जा रही है. उसका संकट यह है कि वह अपना जनाधार भी गंवाती जा रही है. जनादेश चला जाए तो सिर्फ सत्ता जाती है, किंतु जनाधार चला जाए तो पार्टी चली जाती है. जनाधार बचाने के लिए प्रसिद्धि पाने वाले नैरेटिव से निकलकर संगठन का हर दिन, हर पल, हर घड़ी सक्रीय रहना जरुरी है. कांग्रेस शायद इससे भटक कर काफी दूर निकल चुकी है. इतनी दूर जहां सिर्फ वीरान ही वीरान है. इस वीरान से निकलने के लिए उधार के योद्धा पर्याप्त नहीं होंगे.
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं. यह लेख निजी विचार है)
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