आरा: मरीज फर्श पर पड़े हुए हैं. उन्हें देखने के लिए कोई नर्स तक नहीं है. पीएम केयर्स फंड से खरीदे गए छह वेंटिलेटर दूसरी मंजिल में एक कमरे में बंद पड़े हैं क्योंकि कोई भी उन्हें इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं है. पहली मंजिल पर प्रवेश पर रोक वाले कमरों में एक्स-रे और सीटी स्कैन मशीनें बेकार पड़ी हैं.
बिहार के आरा जिले में स्थित सदर अस्पताल की स्थिति इतनी खराब है कि एक कोविड-19 मरीज मुन्ना चौधरी के परिजन अपनी किस्मत को कोस रहे हैं.
उन्होंने बताया, ‘हम औरंगाबाद (आरा से 110 किलोमीटर से अधिक दूर) से सदर तक गाड़ी चलाकर आए लेकिन यहां स्थिति इतनी विकट है. यहां से सभी मरीज अपने गांव लौट जाते हैं कि क्योंकि कर्मचारी उनकी देखभाल करने से मना कर देते हैं. मैं खुद ही अपने बहनोई के ऑक्सीजन स्तर की निगरानी कर रहा हूं.’
जिला प्रशासन के एक अधिकारी को भी यहां कोई उम्मीद नज़र नहीं आती है. उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, ‘हमारे पास मानव संसाधन नहीं है. अस्पताल की सफाई के लिए हमारे पास पर्याप्त संख्या में वार्ड बॉय तक नहीं हैं. कोई भी काम करते समय घंटों पीपीई किट नहीं पहने रहना चाहता है. कोविड वार्ड में काम करने के चार दिन बाद ही लोग यहां से भाग जाते हैं. कर्मचारियों की व्यापक कमी है.’
सदर अस्पताल से 50 किलोमीटर दूर तक ये बातें फैली हुई हैं. सहर ब्लॉक के पिरहाप गांव के मुखिया सतीश शर्मा ने कहा, ‘जो अस्पताल जा रहा वो वापस नहीं आ रहा. तो लोगों ने घर पर ही ट्रीटमेंट करना शुरू कर दिया है.’
पिछले करीब 45 दिनों में ही उनके गांव में कोविड-19 के कारण 30 लोग मारे गए हैं. शर्मा ने कहा, ‘अब शहरों की ओर रुख करने का कोई मतलब नहीं है.’
12 ब्लॉक वाले एक ग्रामीण जिले आरा की आबादी 27 लाख है. जिले में 5 अप्रैल को कोविड-19 के सक्रिय केस 54 थे लेकिन 9 मई तक ये संख्या बढ़कर 830 पर पहुंच गई. फिर भी जिले में औसतन प्रतिदिन 2,000 नमूनों का टेस्ट किया जाता है.
जिलाधिकारी रोशन कुशवाहा ने जोर देकर कहा कि सदर अस्पताल आने वाले मरीजों को लौटाया नहीं जा रहा है.
उन्होंने कहा, ‘हमारे पास बेड नहीं होंगे तो भी हम ऑक्सीजन देंगे. हमारे पास पटना और बिहटा से भी मरीज आ रहे हैं. हमने छह निजी अस्पतालों को भी साथ जोड़ा है. लेकिन पिछले 15 दिनों से मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ती जा रही है.’
कुशवाहा ने आगे कहा कि ग्रामीण इलाकों के लिए हमारे पास प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं. उन्होंने कहा, ‘हमने कोविड दवाओं का किट तैयार करके रखा है. हम ग्रामीण स्तर पर लोगों का टेस्ट कर रहे हैं और किट बांट रहे हैं.’
यह भी पढ़ें: सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के निर्माण स्थल पर फोटोग्राफी और वीडियो रिकॉर्डिंग पर लगी रोक
फार्मासिस्ट और ‘झोलाछाप डॉक्टर’
लेकिन आरा और बक्सर में, जहां भी दिप्रिंट ने दौरा किया, उसे डॉक्टरों के क्लीनिक बंद मिले. बमुश्किल उपलब्ध होने वाले कुछ डॉक्टरों में से एक आरा के खैरा शहर के जनरल फिजीशियन डॉ. मुकेश कुमार ने कहा, ‘मैं 90 फीसदी का इलाज इसी से करता हूं. वे कोविड-19 दवा किट की मदद से ठीक भी हो जाते हैं. लेकिन बाकी 10 प्रतिशत में सांस लेने की समस्या होती है. मैं कोई जोखिम नहीं लेना चाहता, इसलिए, उन्हें सदर अस्पताल रेफर कर देता हूं.’
बेहतर व्यवस्था के अभाव में कोविड-19 मरीजों का इलाज या तो फार्मासिस्ट या गांव के डॉक्टरों के हवाले हो गया है जिन्हें झोला छाप डॉक्टरों के तौर पर जाना जाता है.
आरा से 15 किमी दूर कुबेर चकडंधिया में रहने वाले रामप्रवेश यादव में जब बुखार और खांसी जैसे कोविड-19 के लक्षण दिखे तो उनका बेटा अनिल कोइलवर स्थित निकटतम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले गया जहां से उसे निराश लौटना पड़ा. उसने फिर स्थानीय क्लीनिकों में कोशिश की लेकिन कोई भी डॉक्टर उनके पिता को देखने को तैयार नहीं था.
अपने पिता को डॉक्टरों को दिखाने की कोशिश को अनिल ने कुछ इस तरह बयां किया, ‘डॉक्टर लोग देखते ही नहीं हैं. सबने हाथ खड़े कर दिए हैं.’ जब उसे शहर में कई डॉक्टरों की तरफ से खाली हाथ लौटा दिया गया तो अंतत: यहां का एक फार्मासिस्ट मदद के लिए आगे आया.
फार्मासिस्ट ने अनिल को कोविड लक्षण दिखने पर दी जाने वाली पैरासिटामॉल के साथ विटामिन सी, जिंक और एजिथ्रोमाइसिन जैसी कुछ अन्य दवाएं और सप्लीमेंट दिए. ये ऐसा कॉम्बीनेशन है जो ग्रामीण बिहार में लोगों के लिए जीवनरेखा बन गया है क्योंकि लोगों का ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के प्रति भरोसा तेजी से घटा है और वे जिला सरकारी अस्पतालों में जाने से कतरा रहे हैं.
9 मई को जब दिप्रिंट ने आरा जिले में अनिल के घर का दौरा किया, तो उनके पिता एक खाट पर लेटे थे और तब भी खांस रहे थे. अनिल को उम्मीद थी कि वह जल्द ठीक हो जाएंगे.
उन्होंने कहा, ‘मैं मेडिकल स्टोर के मालिक का शुक्रगुज़ार हूं. गांव के हर घर का हाल ऐसा ही है. कस्बों के डॉक्टरों से इलाज कराना संभव नहीं है. वो तो मरीज को देखने से ही इनकार कर देते हैं, यदि हम उन्हें बताते हैं कि बुखार और खांसी हो रही है.’
यह भी पढ़ें: जब गंगा में नजर आया ‘नर्क’ जैसा नजारा- 71 शवों को तैरते देखकर बिहार का गांव सदमे में
‘मिजाज ठीक नहीं है’
कुबेर चकडंधिया 1,300 लोगों का एक छोटा सा गांव है, फिर भी 1 अप्रैल से यहां चार मौतें हो चुकी हैं. 12,000 की आबादी वाले कुलहरिया में इसी अवधि में 25 मौतें हुई हैं. कुलहरिया के प्रधान सुरेंद्र यादव एक संयुक्त परिवार में रहते हैं. उनमें से सभी 15 लोगों में कोविड-19 के लक्षण हैं.
छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बुजुर्ग तक सभी बीमार हैं. लेकिन कोई इसे कोविड नहीं कहना चाहता. सुरेंद्र के घर के बाहर बैठे गांव के बुजुर्गों में से एक ने कहा, ‘मुखिया जी का मिजाज ठीक नहीं है.’ इस बीमारी का ग्रामीण बिहार में कोई नाम नहीं है. अधिकांश ग्रामीण आपसी बातचीत में इसे ‘मिजाज ठीक नहीं ’ कहकर ही संबोधित करते हैं.
यादव ने हैरानी के साथ और क्या? उन्होंने कहा, ‘हमारा मामला कुछ अलग नहीं है. हर घर में मरीज हैं. उनमें से अधिकांश ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ लोग इस घातक वायरस के शिकार हो जाते हैं. गांव में कोई टेस्टिंग नहीं होती है. चिंता की बात यही है कि शहर के डॉक्टरों ने अपने क्लीनिक बंद कर रखे हैं. अब हम झोलाछाप डॉक्टरों के ही भरोसे हैं.’
यादव ने कहा, ‘गांव देहात असहाय हो जाता, अगर ये झोला छाप डॉक्टर नहीं आते.’ यह उनके परिवारिक ‘डॉक्टर’ थे, जो आरा जिले के सदर और निजी अस्पतालों— एक में कोविड-19 मरीजों की भरमार है जबकि दूसरे बंद पड़े हैं— में कोई इलाज न मिलने पर उनकी सहायता के लिए आगे आए.
जिले की आधिकारिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से कोई मदद न मिलने से बेहाल आरा के लोगों के लिए यही अनाड़ी लोग जीवनरक्षक बने हुए हैं जिन्हें दवाओं के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी है.
यह भी पढ़ें: जायडस कैडिला की भारत में बनी वैक्सीन ZyCoV-D के जून तक बाजार में आने की संभावना