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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतक्या भारत फिर से 'तीसरी दुनिया' का देश बन गया है? कोविड ने महाशक्ति बनने की चाह वाले देश की विडंबना को उजागर किया

क्या भारत फिर से ‘तीसरी दुनिया’ का देश बन गया है? कोविड ने महाशक्ति बनने की चाह वाले देश की विडंबना को उजागर किया

हाल में कुछ कामयाबियों के कारण एक नयी कहानी लिखी जाने लगी. खास तौर से कुछ देशभक्त आंखों को भारत ‘तीसरी दुनिया’ से निकलकर ‘उभरते बाज़ार’, यहां तक कि उभरते ‘सुपर पावर’ के रूप में नज़र आने लगा.

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तो क्या भारत 16 साल बाद फिर से ‘तीसरी दुनिया’ वाला देश बन गया है, दूसरे देशों से मिलने वाली सहायता पर निर्भर देश? इस सवाल का जवाब ना भी है और हां भी. ना इसलिए कि सहायता लेने से पहले वह सहायता दे चुका है. जैसा कि विदेश सचिव ने कहा कि यह परस्पर निर्भरता वाली दुनिया है. इसके अलावा, यह सदी में एकाध बार घटने वाली घटना है, और गलतियां हो जाया करती हैं, इसलिए जिम्मेदार लोगों को थोड़ी राहत दी जा सकती है. लेकिन उपरोक्त सवाल का जवाब हां भी है, क्योंकि विदेश से आपात सहायता की जरूरत की जड़ में है भारी घपला और निकम्मापन. संस्थागत कमजोरी तो तीसरी दुनिया के अधिकतर देशों की खासियत है और यह पिछले कुछ महीनों में हुईं दो घोर नाकामियों की मूल वजह है.

दो नाकामियां हैं— ऑक्सीजन उत्पादन के संयंत्र न लगा पाना, और वैक्सीन उत्पादन की क्षमता न बढ़ा पाना. इन नाकामियों में यह नाकामी भी जोड़ लीजिए कि श्मशानों में चिताओं की आग ने जब तक झुलसाना नहीं शुरू किया तब तक हम इन नाकामियों को समझने में विफल रहे, बावजूद इसके कि उच्च स्तरीय सरकारी टास्क फोर्स और कमिटियां व्यस्त दिख रही थीं.

भारत कई तरह से अपनी खासियत में लौट आया है, मसलन लड़ाई के बीच में ही अपनी जीत का ऐलान करने की अपनी कमजोरी मैं— चाहे यह लड़ाई वायरस से हो या डोकलम के मोर्चे पर हो; या वायरस के नये रूप से हो, जिसमें देप्सांग की तरह झटका खाने के बावजूद फतह का ऐलान कर बैठने की कमजोरी में फंसना हो. विदेश में होने वाली अपनी आलोचना के प्रति तुनुकमिजाजी भी फिर उभरने लगी है.

लालफीताशाही के संरक्षकों ने वैक्सीन के एक विदेशी उत्पादक को बेशक नियमों के बहाने जिस तरह खारिज कर दिया वह फैसला अगर इस तुनुकमिजाजी में किया गया तो यह समझ से परे है. हम दुनिया की ‘वैक्सीन राजधानी’ हैं, सिवा इसके कि हमारे यहां रोजाना टीकाकरण का आंकड़ा 30 लाख से घटकर 20 लाख हो गया है, जबकि इसे यहां 2 अरब से ज्यादा टीके लगाने की जरूरत है.

हमारी कमजोरियां (मसलन सार्वजनिक स्वास्थ्य के उपयुक्त इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव) लंबे समय से दिखती रही हैं और उन पर टीका-टिप्पणी भी होती रही है लेकिन हाल में कुछ कामयाबियों के कारण एक नयी ही कहानी लिखी जाने लगी. खास तौर से कुछ देशभक्त आंखों को भारत ‘तीसरी दुनिया’ से निकलकर ‘उभरते बाज़ार’, यहां तक कि उभरते ‘सुपर पावर’ के रूप में नज़र आने लगा. लेकिन वायरस ने हमारी छिपी हुई कमजोरियों को दुनिया के सामने उजागर कर दिया, और वह उनकी चर्चा करने लगी.

यह वही दुनिया थी, जो शायद नरमी बरतते हुए हमारी सफलताओं पर ताली बजा रही थी और चीन से तुलना के हमारे गुब्बारे की हवा निकालने से परहेज कर रही थी. इसलिए, सुपर देशभक्तों के जवाब में यह कहा जा सकता है कि समय से पहले जीत का जश्न मनाते हुए जो ‘आन्दोलनजीवी’ जैसा जुमला उछाला गया उसमें और कुछ नहीं बल्कि परपीड़ासुख की मानसिकता ही छिपी है. समझदारी तो इसी में है कि नाकामियों और कामयाबियों को, जो कर पाए और जो करना बाकी है उस सबको कबूल करें.


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इसलिए, हां भी और ना भी; तीसरी दुनिया भी और उभरता बाज़ार भी. जिस सिस्टम ने एक संकट को अनगिनत मौतों (सही आंकड़ा अज्ञात है) में तब्दील कर दिया उसमें संकट से लड़ने का माद्दा भी है. बताया जा रहा है कि मेडिकल ऑक्सीजन के उत्पादन में एक महीने में 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जैसे पिछले साल पीपीई के उत्पादन में वृद्धि हुई थी. क्षेत्रों में तेजी से अस्पताल खोले गए हैं. सरकार के कर्ताधर्ता जब ध्यान देते हैं तब काम भी होता है. संस्थात्मक और औद्योगिक क्षमताएं मौजूद हैं, भले ही वे मिशन वाले मोड में काम करती हों.

1962 के विपरीत, सेना ने हथियार न डालते हुए जवाब दिए. ऐसा नहीं है कि 60-70 साल में कुछ हुआ ही नहीं, बात सिर्फ इतनी है कि घालमेल ही ‘सामान्य’ बात है.

‘तीसरी दुनिया’ वाली एक खासियत है— जवाबदेही का अभाव. नरेंद्र मोदी सरकार को राजनीतिक जवाबदेही देनी पड़ेगी या नहीं यह तो भविष्य की बात है, और यह उपलब्ध विकल्पों पर भी निर्भर करेगा. फिलहाल तो गौर करने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री इस बात को कबूल नहीं कर पा रहे हैं कि देश का भरोसा ‘हिल’ गया है और वे इसकी ज़िम्मेदारी कबूल नहीं कर पा रहे हैं. न ही उनके मंत्रीगण अपना अहंकार त्याग कर पा रहे हैं, जो एक पूर्व प्रधानमंत्री और कुछ वर्तमान मुख्यमंत्रियों के सवालों और सुझावों पर उनकी उग्र प्रतिक्रियाओं से जाहिर है.

मामूली लोगों को तो ऑक्सीजन की कमी की शिकायत करने पर गिरफ्तार किए जाने का खतरा मंडराता है, जबकि ऐसे किसी शख्स के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है जिसने मंजूरशुदा ऑक्सीजन संयंत्र लगाने में कोताही की या महामारी की दूसरी लहर के बिना भी वैक्सीन की अतिरिक्त जरूरत को पूरा करने में कोताही की. विकसित समाज जवाबदेही और व्यवस्थागत जांच की जिस प्रक्रिया के अधीन काम करते हैं— जैसे, ब्रिटेन में कैबिनेट सेक्रेटरी प्रधानमंत्री निवास पर होने वाले खर्चों पर नज़र रखता है— वैसी प्रक्रिया भारत में लागू नहीं है. यहां, प्रधानमंत्री की पसंदीदा परियोजनाओं के लिए विशेष हरी झंडी बनी हुई है. यही है तीसरी दुनिया वाली खासियत!

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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