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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतसिस्टम से खिलवाड़ न करें, Covid की दूसरी लहर में लोगों की ख़ुशी के लिए कौटिल्य के लक्ष्य पर लौटें

सिस्टम से खिलवाड़ न करें, Covid की दूसरी लहर में लोगों की ख़ुशी के लिए कौटिल्य के लक्ष्य पर लौटें

सिस्टम के बहुत से हिस्सों को दोषी ठहराया जाएगा. केंद्र राज्यों पर दोष मढ़ेगा और तमाम सरकारें निजी क्षेत्र और लोगों की अनुशासनहीनता को ज़िम्मेदार ठहराएंगी.

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गेमिंग द सिस्टम वाक्यांश के आमतौर पर नकारात्मक निहितार्थ होते हैं, जिसमें आप ऐसे नियम-क़ायदों में हेरा-फेरी करके वांछित परिणाम हासिल करते हैं, जो सिस्टम की सुरक्षा और विनियमन के लिए बने होते हैं. लेकिन, इन्हें परोपकारी उद्देश्यों के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके मूल में ताक़त का खेल है. लेकिन आख़िरकार, ताकत को कैसे इस्तेमाल किया जाता है और सार्वजनिक हित में क्या उद्देश्य हासिल किए जाते हैं, उसी से एक जानकार फैसला लिया जा सकता है.

कोविड-19 महामारी की अस्थायी लेकिन विनाशकारी दूसरी लहर ने, भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर ध्यान केंद्रित कर दिया है और इसे मज़बूत करने की आवाज़ें तब तक गूंजती रहेंगी, जब तक कोई दूसरी लहर या घटना अच्छी या बुरी, फिर से सामने नहीं आ जाती.

लेकिन ये सिलसिलेवार घटनाएं ऐसी स्थिति पैदा कर देती हैं कि हम मुद्दे को उसकी संपूर्णता में नहीं देख पाते, ये नहीं देख पाते कि भारत में महामारी की दूसरी लहर किस तरह उसकी वर्तमान ताक़तों और कमज़ोरियों से जुड़ी है. राज्य विशेष रूप से अपनी राजनीतिक प्रणाली के ज़रिए काम करता है. ये एक ऐसा स्रोत है जो ख़तरों से निपटने और अवसरों को पहचानने, पैदा करने और उपयोग करने के साधन मुहैया कराता है. सिद्धांत रूप से एकमात्र उद्देश्य नागरिकों के कल्याण में सुधार करना है. यही वो चीज़ है जिसे कौटिल्य, शासन कला का केंद्र बिंदु- योगाक्षेमा कहता है.

कौटिल्य राज शक्ति के तत्वों में, शासक को पायदन पर रखता है और उसकी 60 ख़ूबियां बयान करता है, जिनमें बौद्धिक शक्ति को वो सबसे ऊपर रखता है. शासक की निर्भरता सत्य पर होनी चाहिए, जो मज़बूती के साथ ‘राजनीति के विज्ञान’ में बैठा हुआ है. सफलता को मापने का कौटिल्य का पैमाना ये है कि राज्य का प्रथम सेवक होने के नाते, शासक लोगों के जीवन में ख़ुशियां लाने के लिए प्रति प्रतिबद्ध हो. भारत सरकार को लोगों की ख़ुशी के इस कौटिल्य लक्ष्य पर लौटना होगा.

इस समय भारत में, हर ओर दोषारोपण चल रहा होगा, जो राजनीतिक संवाद को ऐसे तत्वों के साथ गहराई में ले जाएगा, जो उसकी राजनीति का सार हैं. सिस्टम के बहुत से हिस्सों को दोषी ठहराया जाएगा. केंद्र राज्यों पर दोष मढ़ेगा और तमाम सरकारें निजी क्षेत्र और लोगों की अनुशासनहीनता को ज़िम्मेदार ठहराएंगी. लेकिन राजनीतिक सिस्टम जिस तरह से है, उसका सिर्फ सरसरी तौर पर उल्लेख किया जाएगा. ये बहुत दुखद है चूंकि ये ऐसा है, जैसे आप शरीर के किसी लकवाग्रस्त हिस्से के इलाज पर फोकस करें, जबकि समस्या मस्तिष्क के किसी ट्यूमर में है.


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निर्वाचन प्रणाली की गेमिंग

राजनीतिक व्यवस्था का मस्तिष्क एक ऐसा अभिजात वर्ग है, जो संसद और कार्यपालिका के ज़रिए ताक़त का इस्तेमाल करता है. ये अपनी शक्तियां संविधान से लेता है. ये राजनीतिक अभिजात वर्ग सिर्फ चुनावी व्यवस्था के ज़रिए ताक़त का इस्तेमाल कर सकता है, जिसके साथ हाल ही में नहीं, बल्कि लंबे समय से खेल होता रहा है. शुरुआती दशकों में इस खेल की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि कांग्रेस पार्टी उस लोकप्रियता की सवारी कर रही थी, जो बंटवारे ने उसे दी थी. लेकिन 70 के दशक के उत्तरार्ध में, क्षेत्रीय, जातीय, वर्गीय, धार्मिक और राजनीतिक हितों ने राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और राज्य स्तर पर कई राजनीतिक पार्टियों को जन्म दिया, जिन्होंने चुनावी सफलता के लिए सिस्टम से खिलवाड़ को एक ज़रूरत बना दिया.

चुनावी व्यवस्था से खिलवाड़ करना इसलिए भी सहज हो गया, चूंकि जो ज्यादा मत पाया वह जीता के सिस्टम में, सिर्फ एक साधारण बहुमत की ज़रूरत थी. डाले गए वोटों का एक छोटा सा प्रतिशत, जीत दिला सकता था अगर वो वोट कई उम्मीदवारों के बीच बंट जाएं. इस खेल में वोट धर्म, जाति और वर्ग की संकीर्ण रुचियों के आधार पर लेने होते थे. इनके मिश्रण का भी लाभ उठाया जा सकता है और पंचायत से लोकसभा तक चुनावों के टाइप के हिसाब से उसे ठीक किया जा सकता है. बहुमत द्वारा शासन के मूलभूत लोकतांत्रिक सिद्धांत को बनाए रखा गया, लेकिन ज़्यादातर बस एक दिखावे के रूप में.

ऐसा नहीं है कि इस दिखावे पर किसी का ध्यान नहीं गया. 1999 में विधि आयोग की रिपोर्ट संख्या 170, संविधान के कामकाज पर 2002 में राष्ट्रीय आयोग और कई अन्य ने इस मुद्दे को उठाया था. उन्होंने सिफारिश की थी कि यदि किसी को 50 प्रतिशत से अधिक वोट नहीं मिलते, तो पहले चरण के पहले और दूसरे उम्मीदवार के बीच, दूसरे राउंड का मतदान कराया जाना चाहिए. इससे ये सुनिश्चित होगा कि पार्टियों को आख़िरकार बहुमत का समर्थन मांगना होगा और एक संकीर्ण फोकस से काम नहीं चलेगा. अंत में 50 प्रतिशत से अधिक मतों से जीता हुआ उम्मीदवार बहुमत के शासन के लोकतांत्रिक सिद्धांत को पूरा करेगा.

कोई आश्चर्य नहीं कि किसी भी राजनीतिक दल में, न तो इच्छा है न रहेगी कि वो मौजूदा व्यवस्था को सुझाई गई सिफारिशों के हिसाब से बदल ले. दूसरे दौर के मतदान में आने वाली प्रशासनिक समस्याओं को, तकनीक की मदद से सुलझाया जा सकता है. शायद क़ानूनी दख़लंदाज़ी इसमें कामयाब हो सकती है, भले ही उसमें लंबा समय लग जाए. लेकिन, कम से कम अगले एक दशक तक मौजूदा चुनाव प्रणाली जिस गुणवत्ता के नेता सामने लाएगी, उनमें बदलाव की संभावना नहीं है.

संस्थागत चाटुकारिता का एक नया दौर

हाल की वैश्विक खुशहाली रिपोर्ट 2020 में, 95 देशों की सूची में भारत 92वें स्थान पर है, जो 2017-19 अवधि के 93वें स्थान से थोड़ा ऊपर है. रिपोर्ट को पढ़ने से, संभावनाओं को लेकर मन में कड़वाहट भर जाती है, भले ही रिपोर्ट सही न हो, क्योंकि आय और स्वास्थ्य जैसी मूर्त चीज़ों के अलावा इसमें अमूर्त चीज़ों को भी मापा गया है, जैसे किसी पर भरोसा, आज़ादी, उदारता और विश्वास. लेकिन आंकड़ों में हेर-फेर जिसका एक दब्बू और लचीला मीडिया समर्थन करता है, एक नया मानक बन गया है. चल रही तबाही में, कोविड-19 मौतों की असली संख्या को छिपाना, अधिकारिक अभ्यास का हिस्सा प्रतीत होता है.

भविष्य को देखते हुए, कल्पना करना मुश्किल है कि घरेलू राजनीति किस तरह लोगों के एक बड़े बहुमत की क़िस्मत संवार सकती है. हाल में, ज़्यादातर लोगों पर आर्थिक या सामाजिक चोट पहुंची है, चाहे वो नोटबंदी और लॉकडाउन्स जैसे सोचे-समझे नीतिगत उपाय हों या महामारी की दूसरी लहर की ज़बर्दस्त ताक़त. अफसोस ये है कि कई संस्थान, जो संविधान को राजनीति का शिकार होने से बचाने के लिए बने हैं, कमज़ोर कर दिए गए हैं और उन लोगों के इशारों पर नाचने लगे हैं, जो सिस्टम से खिलवाड़ में लगे हैं.

आज, अंतिम संवैधानिक सुरक्षा भारत के उच्चतम न्यायालय पर भी, अब भरोसा नहीं रह गया है कि वो राजनीतिक प्रभाव से बेदाग़ है. बेशक, ये कोई नया तथ्य नहीं है, चूंकि इंदिरा गांधी पहले की पापी होने का दावा कर सकती हैं. उसी समय में और बहुत लंबे समय से, नौकरशाही जिसकी अवधारणा संविधान को राजनीतिक छल-कपट से सुरक्षित रखने के लिए की गई थी, अब उस भूमिका को निभाने की स्थिति में नहीं है. साथ ही साथ ऐसी संस्थाओं की एक लंबी सूची है, जिनके पास स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए संवैधानिक जनादेश है, लेकिन वो अपने ज़बर्दस्त राजनीतिक पूर्वाग्रह को छिपाने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं. संस्थागत चाटुकारिता किसी विपुल खर-पतवार की तरह बढ़ती जा रही है.

वर्तमान हमें कहां ले जा रहा है

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के बाद हरिद्वार में कुंभ मेले के लिए भारी जमावड़े का राजनीतिक फैसला और विशाल चुनाव रैलियों को अनुमति देना, राजनीति से हुए संस्थागत पतन का संकेतक है. संस्थागत नियंत्रण और संतुलन निश्चित रूप से दरकिनार कर दिए गए. तो, अब सवाल ये है कि ‘ऐसा ही और’ भारत को कहां लेकर जाएगा? सिर्फ ख़ुद को याद दिला दें कि चीन अभी भी हिमालय क्षेत्र में ग़ुर्राता हुआ मंडरा रहा है, ताकि हमारे सैनिक तैयारी की अवस्था में रहें.

आप शायद उम्मीद कर सकते हैं कि आत्म-संरक्षण की सहज प्रवृत्ति, राजनीतिक अभिजात वर्ग से लोगों की भलाई के वादे पूरे करवा सकती है. ऐसी प्रवृत्तियां अमूमन तब बहुत बढ़ जाती हैं, जब राजनीतिज्ञों को शक होता है कि उनकी ताक़त कमज़ोर पड़ सकती है. इसलिए हमेशा की तरह, हमें एक बेहतर भविष्य की उम्मीद बनाए रखनी चाहिए, भले ही मायूसी हमारे दरवाज़े पर डटी हुई हो. उम्मीद की ऑक्सीजन सबसे अच्छी दवा है और बेहतर है कि इस बात का ध्यान रखा जाए कि मौजूदा कमियां भी बीत जाएंगी.

उस जवाब में शायद कुछ सच्चाई है, जो एक पूर्व सेना प्रमुख ने दौरे पर आए एक विदेशी सैन्य समकक्षी को दिया, जिन्होंने देश का भ्रमण करने के बाद ये सवाल किया- ‘ये बताएं चीफ़, आपके देश को कौन चलाता है?’. जवाब बड़ा सहज था- ‘हम इसे भगवान भरोसे कहते हैं. आपका देश कौन चलाता है?’ कम से कम भारतीयों को ये तो मालूम है कि अंत में सिस्टम से कौन खेल रहा है.

(इस लेख क अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले. जन. प्रकाश मेनन (रिटा) स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम, तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरू के निदेशक, और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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