पाकिस्तान के सियासी हालात को समझना आसान होता, अगर अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का एक सीन सामने होता, जो दिखा सकता कि कोई सरकार 10 दिन के अंदर कितने यू-टर्न्स ले सकती है. आदर्श रूप में, वो सीन इस पर भी रोशनी डाल सकता था कि एक ग़ुस्साई भीड़ के हमले के जवाब में सरकार की बात को कैसे बनाकर रखा जाए. लेकिन रुकिए, वज़ीरे आज़म इमरान ख़ान के इंस्टाग्राम पर एक अकेला सीन जो पहुंचा, वो कुछ शरारती भारतीय ‘कोर कमांडर्स’ का था, जो 50 लाख रुपयों की ख़ातिर किसी सरकार को उखाड़ फेंकने की योजना बना रहे थे. ये क्लिप अमिताभ बच्चन की 1984 की फिल्म इनक़लाब से थी और उसे इसलिए पोस्ट किया गया, क्योंकि ख़ान के डिजिटल मीडिया सलाहकार के मुताबिक़, उसमें ‘मौजूदा हालात और विपक्ष की आशांति को, सही ढंग से दर्शाया गया था’. डील तो अच्छी लगती थी. लेकिन जैसे सभी अच्छी चीज़ों का एक अंत होता है या इस मामले में यू-टर्न होता है, पोस्ट को हटा दिया गया और 50 लाख रुपए बच गए.
लेकिन जो चीज़ नहीं रुक सकी, वो ये थी कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) सरकार अपने किए हुए वादों पर गोल-गोल घूम रही थी, चूंकि उसे बाद में उसे समझ में आता है कि वादे करना या उन्हें पूरा करना उसके इख़्तियार में नहीं है. जो मुद्दा 2020 के आख़िर में शुरू हुआ था, उसने पूरे मुल्क को चपेट में ले लिया है, जिसमें कई लोगों की जानें चली गईं हैं और मुल्क का मज़ाक़ बनकर रह गया है. पिछले नवंबर में, जब सरकार ने फ्रांस के खिलाफ ईश-निंदा विरोधी प्रदर्शनों के बाद, तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) के साथ एक क़रार पर दस्तख़त किए थे, तो उसे लगा था कि उसने बड़ी चालाकी से एक बड़ी समस्या को टाल दिया है, लेकिन ऐसा नहीं था. आग फिर से धधक उठी है.
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प्रतिबंधित ग्रुप से सौदेबाज़ी
एक दक्षिणपंथी ग्रुप से तीन महीने के अंदर फ्रांस में पाकिस्तान के राजदूत की नियुक्ति नहीं, बल्कि फ्रांस के राजदूत के निलंबन का वादा, फ्रांसीसी चीज़ों के बॉयकॉट का आधिकारिक समर्थन और टीएलपी वर्कर्स की रिहाई- टीएलपी के साथ क़रार पर दस्तख़त करते वक़्त इमरान ख़ान सरकार को लगा कि वो बस एक मज़ाक़ कर रही थी.
तीन महीने की मियाद क़रीब आने पर टीएलपी ने जब सरकार को उसके वादे याद दिलाने शुरू किए तो 16 फरवरी की पहली मियाद को बढ़ाकर 20 अप्रैल कर दिया गया. सरकार को बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि उसके सामने क्या मुसीबत आने जा रही थी, और ना ही उसके पास इससे निपटने की कोई योजना थी. बल्कि वो इस गुमान में थी कि ख़ादिम हुसैन रिज़वी की मौत के बाद 26 वर्षीय साद हुसैन रिज़वी की अगुवाई में टीएलपी अपना डंक गंवा देगी.
मियाद ख़त्म होने से आठ दिन पहले टीएलपी के नए मुखिया को गिरफ्तार कर लिया गया, जिसने पूरे मुल्क को घुटनों पर ला दिया. प्रदर्शनकारियों ने पुलिस अफसरों को अग़वा कर लिया, चार को मार डाला, सैकड़ों ज़ख़्मी कर दिए, और सार्वजनिक व निजी संपत्ति तबाह कर दी. टीएलपी पर पाबंदी लगा दी गई और ऐलान कर दिया गया कि ये पार्टी, दहशतगर्दी की गतिविधियों में शामिल थी. फिर, लाहौर में एक पुलिस कार्रवाई के दौरान ग्रुप ने 11 पुलिस वालों को बंधक बना लिया और बाद में उन्हें रिहा कर दिया, चूंकि सरकार एक ग़ैर-क़ानूनी समूह के साथ बातचीत जारी रखे हुए थी.
इस हफ्ते राष्ट्र के नाम एक संबोधन में, पीएम ख़ान ने कहा कि वो टीएलपी की तकलीफ समझते हैं. उन्होंने कहा कि उनका मक़सद वही है, जो टीएलपी का है लेकिन तरीक़ा अलग है. कितना अजीब है किसी वज़ीरे आज़म का अपने उद्देश्यों को, एक ऐसे ग्रुप के साथ साझा करना जो ख़ुद उनकी सरकार की नज़र में एक आतंकी संगठन है. उन्होंने लोगों को समझाया कि फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित करने का पाकिस्तान पर असर पड़ेगा. लेकिन इंटीरियर मिनिस्टर को शायद वो मेमो नहीं मिला. पीएम के संबोधन के 12 घंटे के भीतर शेख़ रशीद ने ऐलान किया कि फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित करने का प्रस्ताव असेम्बली में रखा जाएगा. एक और यू-टर्न लेकर प्रतिबंधित ग्रुप के साथ एक डील करते हुए, सरकार ने 600 से ज़्यादा दंगाइयों को रिहा कर दिया. आख़िर में पीएम ने प्रतिबंधित ग्रुप से बातचीत करने के लिए रशीद को बधाई दी.
तिरस्कार की राजनीति
अब सवाल ये है: इमरान ख़ान सरकार ने ये सब ज़हमत क्यों उठाई, जब फ्रांसीसी राजदूत के निष्कासन के मसले पर चर्चा करने के लिए उसे असेम्बली में ही प्रस्ताव पेश करना था? उसने सड़कें ज़रूर साफ करा दीं, लेकिन इसकी क़ीमत चुकाने के लिए उसने ऐसी भीड़ के आगे हथियार डाल दिए, जो ईशनिंदा के नाम पर ताक़त का इस्तेमाल करती है. इस प्रतिबंधित ग्रुप का ऐसा ही आदेश है. सिर्फ समय ही बताएगा कि ये बैन कितने दिन रहता है और भीड़ सड़कों से कब तक दूर रहती है. शायद उस वक़्त तक, जब ईशनिंदा की कोई अंतर्राष्ट्रीय घटना होगी जिसमें पाकिस्तान सरकार की प्रतिक्रिया की ज़रूरत होगी.
जब पीएम पूछते हैं कि 50 में से कोई एक इस्लामी मुल्क अपने फ्रांसीसी राजदूत के निष्कासन की मांग क्यों नहीं करता, तो वो भूल जाते हैं कि किसी भी दूसरी सरकार ने ऐसा वादा करने वाले क़रार पर दस्तख़त नहीं किए हैं.
2011 में करन थापर के साथ एक इंटरव्यू में, पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या का ज़िक्र करते हुए इमरान ख़ान ने कहा था, ‘एक गवर्नर को गोली मार दी जाती है, उसका क़ातिल एक हीरो बन जाता है. ऐसे मुल्क में हीरो बनने का कोई मतलब नहीं है, जहां क़ानून का राज नहीं है. यहां ज़िंदगी बहुत सस्ती है’. ईशनिंदा के मसले की सच्चाई और पाखंड इसी में छिपे हैं. हर सियासतदां अब तहफ्फुज़े नामूसे रिसालत (पैग़ंबर के सम्मान की रक्षा) में, एक वोट बैंक देखता है, और मुख़ालिफों के खिलाफ ईशनिंदा की हवा उड़ाने को, उचित खेल समझा जाता है. आज के शासक जो, मज़हबी पार्टियों के टीएलपी से हाथ मिलाने की शिकायत कर रहे हैं, ख़ुद उसी ग्रुप के प्रदर्शनों में शामिल होने को तैयार थे, जब ऐसा करना उन्हें उपयुक्त लगता था.
चूंकि लोगों के नुमाइंदे भी इस सतर्कता के प्रति संवेदनशील हैं, इसलिए आप पाकिस्तान में एक हथियारबंद ईशनिंदा क़ानून के असर पर किसी चर्चा की उम्मीद नहीं कर सकते. उसकी गुंजाइश सिकुड़ गई है. ज़्यादा क़ाबिले अमल काम ये है कि पश्चिम से कहा जाए कि क्या नहीं करना है, बजाय इसके कि अपने घर में ईशनिंदा क़ानून के नतीजों से निपटा जाए.
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(लेखिका पाकिस्तान की स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @nailainayat है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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