नई दिल्ली: भूमि के मालिकाना हक़ के एक मामले में, वाराणसी की एक दीवानी अदालत ने, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की जांच का आदेश दिया है. लेकिन ख़ुद इस दीवानी मामले की सुनवाई के ख़िलाफ दायर एक याचिका, इलाहबाद उच्च न्यायालय में लंबित है, जो दो दशक पहले डाली गई थी.
1998 में, मस्जिद प्रबंधन अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद ने, एचसी से ये तय करने की अपील की थी, कि क्या इस केस में दायर सिविल सूट, उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 के तहत वर्जित है.
ये क़ानून तब की पीवी नरसिम्हा राव सरकार, उस समय लाई थी, जब राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम था. इस क़ानून के तहत कोई भी उपासना स्थल, 15 अगस्त 1947 को जिस स्थिति में था, उसके धार्मिक स्वरूप को बदलने के लिए, कोई भी दावा या अन्य क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती.
हिंदू पक्ष ने हाईकोर्ट में दावा किया है, कि ये सिविल सूट एक अपवाद है, और वो क़ानून इस पर लागू नहीं होता. इसने निवेदन किया है कि क़ानून में जिस मस्जिद का उल्लेख है, उसके दायरे में आने वाली मस्जिद एक धार्मिक ढांचा होती है, जो एक वक़्फ संपत्ति पर खड़ा होता है.
उसने कहा, कि लेकिन जब ये पता चल जाता है, कि ‘मस्जिद’ का निर्माण एक मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था, जो उस ज़मीन/संपत्ति पर खड़ा था, जो पहले से ही देवता की थी, तो इस्लाम के नियमों के तहत भी, ऐसा कोई निर्माण ‘मस्जिद’ नहीं हो सकता.
हाईकोर्ट ने इस साल 15 मार्च को ही, इस केस में सुनवाई पूरी की थी, और अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया था. लेकिन, 8 अप्रैल को, वाराणसी कोर्ट ने आगे बढ़कर एएसआई से, ‘एक व्यापक पुरातात्विक फिज़िकल सर्वे करने के लिए कह दिया’.
एचसी में हिंदू याचिकाकर्त्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे वकीलों ने, इस आलोचना को ख़ारिज कर दिया, कि 1991 के क़ानून की वजह से वाराणसी कोर्ट, सर्वे का आदेश नहीं दे सकती थी.
उनका कहना है कि क्योंकि 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने, केस पर 20 साल से लगी रोक को हटा दिया था, इसलिए मामले की सुनवाई करना, सिविल कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में था. लेकिन उन्होंने ये स्पष्ट किया कि इस सिविल सूट का आगे का रास्ता, एचसी के आदेश के हिसाब से तय होगा.
मुस्लिम पक्ष के वकील की दलील थी, कि निचली अदालत को ऐसे सर्वे का आदेश नहीं देना चाहिए था, क्योंकि हाईकोर्ट का फैसला लंबित है. उनका कहना है कि इस आदेश में एक ख़ामी ये भी है, कि ये एक अतिरिक्त साक्ष्य पैदा कर देता है, जिसके इस मुक़दमे में दूरगामी परिणाम हो सकते हैं.
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ट्रायल कोर्ट का सूट 1991 एक्ट के तहत वर्जित था
वाराणसी दीवानी न्यायालय में, ज्ञानवापी मस्जिद परिसर से जुड़े ज़मीन के मालिकाना हक़ के चार सूट्स लंबित हैं. पहला सूट 1991 में दायर किया गया था, जबकि अन्य तीन इस साल मार्च में दायर किए गए.
1991 के प्रतिनिधि सूट में वादी ने कहा था, कि इससे बहुत बड़ी संख्या में लोगों के हित जुड़े थे, जिनकी हिंदू धर्म में आस्था थी. ये स्थापित करने के लिए, कि मस्जिद बनाने के लिए एक मंदिर ध्वस्त किया गया था, वादी ने सबूत के तौर पर एक ‘फ़रमान’ पेश किया, जो 18 अप्रैल 1669 को, मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब की ओर से जारी किया गया था.
मुक़दमे की सुनवाई शुरू करने से पहले, दीवानी न्यायालय ने इस सवाल से जुड़े मुद्दे तय किए, कि क्या ये सूट उपासना स्थल अधिनियम 1991, और उसके नतीजे में, सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के आदेश 7, नियम 11 (डी) के तहत प्रतिबंधित है.
सीपीसी आदेश में कहा गया है कि अदालत, ऐसी याचिका को ख़ारिज कर देगी, जहां लगता हो कि सूट किसी भी क़ानून के तहत वर्जित है.
18 अक्तूबर 1997 को, कोर्ट ने कहा कि 1991 के क़ानून की पृष्ठभूमि में, ये सूट चलने योग्य नहीं था.
लेकिन, इस आदेश को वादी की ओर से चुनौती दी जाने पर, सितंबर 1998 में एक पुनरीक्षण न्यायालय ने इस मामले को फिर से वापस लिया, और दावानी न्यायालय को निर्देश दिया, कि पक्षों से साक्ष्य लेने के बाद, इस मुद्दे पर फिर से निर्णय करे.
मस्जिद प्रबंधन ने रिवीज़न कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ, हाईकोर्ट में अपील कर दी.
कार्यवाही पर तब तक रोक रही, जब तक SC आदेश ने उसे हटा नहीं दिया
8 अक्तूबर 1998 को एचसी के समक्ष दायर अपनी रिट याचिका में, अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद ने संविधान की धारा 226 के तहत, सूट के सुने जाने को चुनौती दी. पांच दिन के भीतर एचसी ने निचली अदालत में सुनवाई पर रोक लगा दी.
लेकिन, 28 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, वाराणसी की दीवानी अदालत में रोक को हटाए जाने के लिए, एक आवेदन दाख़िल किया गया.
अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा था, कि किसी कोर्ट के विचाराधीन किसी भी मामले की कार्यवाही पर लगी किसी भी तरह की रोक, उस रोक की तारीख़ से छह महीने पूरे होने के बाद, स्वत: ही हटी हुई मान ली जाएगी.
4 फरवरी 2020 को, वाराणसी दीवानी न्यायालय ने, मस्जिद प्रबंधन की ओर से रोक को जारी रखने की याचिका को ख़ारिज कर दिया. कोर्ट ने कहा कि स्टे ऑर्डर को जारी हुए छह महीने से अधिक हो गए हैं, इसलिए अब इस केस में आगे की कार्यवाही शुरू हो सकती है.
‘ASI सर्वे से कोर्ट को अपना सफर पूरा करने में मदद मिल सकती है’
सिविल सूट्स में वादियों के वकील, एडवोकेट विष्णु जैन ने व्याख्या करते हुए कहा, कि किसी स्टे-ऑर्डर की ग़ैर-मौजूदगी में, सिविल कोर्ट को रिवीज़न कार्ट का 1998 का आदेश मानना ही था, जिसने उसे इस मामले पर, फिर से निर्णय करने के लिए कहा था.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा कि इस कारण से, कोर्ट के लिए आवश्यक हो गया कि किसी एक्सपर्ट एजेंसी के द्वारा, एएसआई सर्वे का आदेश जारी करे.
मस्जिद इंतज़ामिया ने इस आधार पर याचिका का विरोध किया, कि कोर्ट वादी की ओर से साक्ष्य जमा करने के लिए, कोई सर्वे जारी नहीं कर सकती, बल्कि केवल पहले से रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्य को, पूरा करने के लिए ऐसा कर सकती है.
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट एमआर शमशाद के अनुसार, जिन्होंने मुस्लिम पार्टियों की ओर से, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद केस में बहस की थी, मुक़दमे से पहले एएसआई सर्वे कराने का मतलब होगा, कि दोनों में से किसी एक पक्ष के लिए साक्ष्य तैयार करना, जिसकी उनके अनुसार, दीवानी मामलों को नियंत्रित करने वाले क़ानून में, कल्पना नहीं की गई थी.
लेकिन, दीवानी न्यायालय के विचार के अनुसार, एएसआई सर्वे ‘सबसे अच्छा साक्ष्य’ साबित होगा.
अदालत ने आदेश दिया, ‘आश्चर्य से सच्चाई की इस यात्रा में, इस कोर्ट को लगता है कि इस स्टेज पर, एएसआई जैसा कोई विशेषज्ञ ही, इस सफर को पूरा करने में कोर्ट की मदद कर सकता है’.
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