नई दिल्ली: वाराणसी की एक सिविल कोर्ट का बृहस्पतिवार को दिया गया आदेश, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को, काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के, पुरातात्विक सर्वेक्षण का निर्देश दिया गया, सुर्ख़ियों में आ गया है.
काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रतिनिधित्व कर रहे याचिकाकर्त्ता मांग कर रहे हैं, कि मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब द्वारा बनवाई गई मस्जिद को, हिंदुओं की ज़मीन पर खड़ा हुआ घोषित किया जाए. लेकिन मस्जिद की प्रबंधन समिति, अंजुमन इंतज़ामिया मस्जिद ने इस याचिका का विरोध किया है. याचिका पर अगले आदेश के लिए, 31 मई की तारीख़ तय की गई है.
ये कहते हुए कि ‘विवादित विषय का संबंध हमारे पुराने इतिहास से है’, जज आशुतोष तिवारी की सिविल कोर्ट ने एएसआई से कहा, कि वो पता लगाए , ‘कि वर्तमान में विवादित स्थल पर खड़ा धार्मिक ढांचा, ऊपर रखा गया है, कोई परिवर्तन है, या जोड़ा गया है, या फिर किसी धार्मिक ढांचे के साथ, किसी तरह की ओवरलैपिंग है.’
कोर्ट ने एक पांच सदस्यीय समिति के गठन का भी आदेश दिया और कहा कि बेहतर होगा कि उसमें दो सदस्य मुसलमान हों. ये कमेटी पता लगाएगी कि मस्जिद बनाए जाने से पहले, क्या उस जगह पर कभी हिंदू संप्रदाय का कोई मंदिर मौजूद रहा था.
कोर्ट का ये आदेश ऐसे समय पर आया है, जब सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को आए 18 महीने भी नहीं हुए हैं, जिसमें उसने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद मामले में, हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाया था, और आदेश दिया था कि विवादित 2.77 एकड़ जगह पर, राम मंदिर बनाया जाएगा, और मुसलमानों को मस्जिद बनाने के लिए, किसी दूसरी जगह पांच एकड़ ज़मीन दी जाएगी.
लेकिन, शीर्ष अदालत ने इस बात पर बल दिया था, कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 के तहत, केवल एक बार के अपवाद की अनुमति दी जाती है. अधिनियम में कहा गया है कि किसी भी उपासना स्थल को, उसी स्थिति में रखा जाएगा, जिसमें वो 15 अगस्त 1947 को था, और इस तिथि से पहले ऐसे किसी स्थल में किए गए अतिक्रमण को, अदालतों में चुनौती नहीं दी जा सकती. अयोध्या मामले को इस क़ानून में अपवाद इसलिए माना गया, क्योंकि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद, 19वीं सदी से अदालतों में चल रहा है.
दिप्रिंट हिंदुओं के लिए काशी विश्वनाथ मंदिर के महत्व, ज्ञानवापी मस्जिद पर विवाद, और मामले के क़ानूनी इतिहास का पता लगा रहा है.
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विश्वनाथ मंदिर हिंदुओं के लिए क्यों अहम है
वाराणसी में गंगा किनारे से थोड़ी दूर स्थित काशी विश्वनाथ मंदिर को, भगवान शिव का सबसे महत्वपूर्ण मंदिर, और पुराणों में उल्लिखित 12 ज्योतिर्लिंगों में, सबसे अहम माना जाता है.
माना जाता है कि सदियों पुराने इसके इतिहास के दौरान, मंदिर को कई बार गिराकर फिर से बनाया गया था, और बहुत से इतिहासकारों का मानना है, कि औरंगज़ेब ने 1669 में ऐसी ही एक पुनरावृत्ति को तुड़वाकर, उसकी जगह मस्जिद (ज्ञानवापी) का निर्माण कराया था.
रटगर्स यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशियाई इतिहास की असिस्टेंट प्रोफेसर, और एक जानी-मानी इतिहासकार ऑद्रे ट्रश्के ने अपनी किताब औरंगज़ेब: दि मैन एंड दि मिथ में लिखा: मैं ये समझती हूं कि ज्ञानवापी मस्जिद वास्तव में औरंगज़ेब के शासनकाल में बनाई गई थी. मस्जिद में पुराने विश्वनाथ मंदिर ढांचे के कुछ हिस्से शामिल हैं- जिसे औरंगज़ेब के आदेश पर तोड़ा गया था- जो इसके क़िब्ले (मक्का में काबा की ओर) की तरफ है. मस्जिद औरंगज़ेब के ज़माने की ज़रूर है, लेकिन हमें ये मालूम नहीं है, कि इसे किसने बनाया था’.
क़रीब सौ साल के बाद, इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर ने, ज्ञानवापी मस्जिद के पास एक नया काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाया. आधुनिक मंदिर और मस्जिद एक दूसरे से सटे हुए हैं, लेकिन उनके आने-जाने के रास्ते, अलग अलग दिशाओं में हैं.
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अयोध्या-काशी-मथुरा संबंध
एक महीना भी नहीं हुआ है, जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से एक जनहित याचिका पर जवाब मांगा था, जिसमें उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है.
ये क़ानून पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार, 1991 में उस समय लाई थी, जब राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था. लेकिन जज तिवारी का बृहस्पतिवार का आदेश, इस अधिनियम को वाराणसी के काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी विवाद पर लागू नहीं करता.
ये कोई पहली बार नहीं है जब ये विवाद सुर्ख़ियों में आया है- वाराणसी विवाद तथा मथुरा का कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद, दोनों राम जन्मभूमि आंदोलन की दूसरे क्रम की प्रमुख मांगें रही हैं, जो इस नारे में प्रतिबिम्बित होती हैं ‘अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है’.
लेकिन, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, नवंबर 2019 के अपने अयोध्या फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था, कि 1991 एक विधायी हस्तक्षेप है जो ‘ग़ैर-प्रतिगमन को हमारे धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों की एक आवश्यक ख़ूबी के तौर पर सुरक्षित रखता है’.
हिंदुओं के तर्क और क़ानूनी तकरार
1991 में वाराणसी सिविल कोर्ट में, मालिकाना विवाद पर पहली याचिका, तीन व्यक्तियों की ओर से डाली गई थी- काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहितों के वंशज पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ रामरंग शर्मा, और सामाजिक कार्यकर्त्ता हरिहर पाण्डे. एडवोकेट विजय शंकर रस्तोगी उनके वकील थे.
याचिकाकर्त्ताओं का तर्क था कि मूल मंदिर का निर्माण, 2050 वर्ष पहले राजा विक्रमादित्य ने कराया था, और उसे 1664 में औरंगज़ेब ने ध्वस्त करा दिया था. उनका कहना था कि उसी ज़मीन के एक हिस्से पर, ज्ञानवापी मस्जिद बनाने के लिए, मंदिर के अवशेषों का इस्तेमाल किया गया.
याचिका में गुज़ारिश की गई कि ‘मंदिर की भूमि’ को हिंदू समुदाय के हवाले किया जाए, और ये भी कहा गया कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991, इस पर लागू नहीं होता क्योंकि मस्जिद मंदिर के अवशेषों के ऊपर बनाई गई थी, जिसके कुछ हिस्से अभी तक मौजूद हैं.
1998 में, अंजुमन इंतज़ामिया मस्जिद इलाहाबाद हाइकोर्ट पहुंच गई, और दलील दी कि इस विवाद पर निर्णय नहीं किया जा सकता, क्योंकि उपासना स्थल अधिनियम के तहत इसकी मनाही है. हाईकोर्ट ने निचली अदालत की कार्यवाही पर रोक लगा दी, और ये मामला 22 साल तक लंबित पड़ा रहा.
फिर 2019 में, याचिकाकर्त्ताओं के मूल वकील, रस्तोगी ने एक और याचिका दायर की, जिसमें ज्ञानवापी परिसर का पुरातत्व सर्वे कराए जाने की गुज़ारिश की गई थी. जनवरी 2020 में प्रतिवादी ने अपनी आपत्तियां दाख़िल कीं.
अपने आदेश में जज तिवारी ने कहा, कि वादी ने कहा था कि ‘मंदिर अनंतकाल से मौजूद था’ जिसे 2050 वर्ष पहले, राजा विक्रमादित्य ने फिर से बनवाया था. सम्राट अकबर के शासनकाल में इसका फिर से निर्माण हुआ, और 18 अप्रैल 1669 को सम्राट औरंगज़ेब ने एक फ़रमान जारी किया, जिसके नतीजे में ‘स्वयंभू भगवान विश्वेष्वर का मंदिर तुड़वाया गया, और उक्त मंदिर के खंडरों की मदद से, एक मस्जिद का निर्माण कराया गया’.
याचिकाकर्त्ताओं के अनुसार, मंदिर का शिवलिंग ‘स्वयंभू है, और ज़मीन की गहराई से प्राकृतिक रूप से ऊपर आया है’ और इसलिए विध्वंस के बाद भी, ‘भगवान विश्वेश्वर का स्वयंभू शिवलिंग, अर्घ (जहां शिवलिंग स्थापित है) के साथ उसी जगह पर स्थित है, जहां वो मंदिर तोड़े जाने से पहले था’.
याचिकाकर्त्ताओं ने ये भी कहा, कि हालांकि वो और तमाम हिंदू ‘परिक्रमा करते हुए भगवान विश्वेश्वर की लगातार पूरा-अर्चना करते आ रहे हैं’ और उन्हें ‘शिवलिंग को जल चढ़ाने के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है’.
लेकिन, यूपी सुन्नी वक़्फ बोर्ड ने कहा है कि ‘ज्ञानवापी मस्जिद की स्थिति पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया जा सकता’, और उसने ये भी कहा है कि ‘एएसआई द्वारा मस्जिद की जांच कराए जाने की इस प्रथा को रोका जाना चाहिए’.
वक़्फ बोर्ड के अध्यक्ष ज़फर अहमद फारूक़ी ने एक बयान में कहा, ‘वाराणसी सिविल के आदेश को, जिसमें भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को सर्वे करने के लिए कहा गया है, माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी जाएगी. हम समझते हैं कि इस मामले में, उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के तहत मनाही है.’
इस विवाद में दाख़िल दीवानी दावे को, सुने जाने के ख़िलाफ दायर की गई एक याचिका, इलाहबाद हाईकोर्ट में लंबित है.
काशी विश्वनाथ कॉरीडोर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, जो वाराणसी से लोकसभा सांसद हैं, मार्च 2019 में विधिवत रूप से, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर परियोजना लॉन्च की थी, जिसके तहत मंदिर परिसर से गंगा घाट तक, एक रास्ता बनाया जाना है, और घाटों की ओर से मंदिर की दृष्यता को भी बढ़ाना है.
लेकिन, उस समय तक वर्षों से लंबित पड़ी इस परियोजना पर, जिस पर 2017 में योगी आदित्यनाथ की बीजेपी सरकार ने आकर अमल शुरू किया, पहले ही ज्ञानवापी मुद्दे की आंच पहुंचने लगी थी.
2018 में, परियोजना के ठेकेदार ने ज्ञानवापी मस्जिद के गेट नंबर 4 पर बना एक चबूतरा तोड़ दिया, जिसके बाद मुस्लिम निवासियों ने विरोध प्रदर्शन किया, और आरोप लगाया कि ये एक बड़ी योजना का हिस्सा था, जिसके तहत काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मुद्दे को, अयोध्या का दूसरा रूप दिया जाएगा.
सांप्रदायिक तनाव भड़कने की आशंका के चलते, अधिकारियों ने सुन्नी वक़्फ बोर्ड की संपत्ति, इस चबूतरे की रातों-रात मरम्मत करा दी.
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