हम देखेंगे? नहीं शुक्रिया, हम बहुत देख चुके हैं. पाकिस्तान में अब नया डोप है– हमें घबराना नहीं है. देखना चिंता की बात नहीं है, घबराना विकल्प नहीं है. यदि अभी भी इसका मतलब नहीं समझे, तो आप को खारिज किया जाता है.
खाने-पीने की चीजों की महंगाई बढ़ने, चिकन की कीमत 500 रुपये प्रति किलो तक पहुंचने, पेट्रोल की कीमतों में लगातार तेज़ी और बिजली बिल के झटकों के बीच पाकिस्तान एक नया गाना गुनगुना रहा है– ‘घबराना नहीं है ’. या जैसा कि बॉलीवुड के आमिर खान ने कहा था: ‘ऑल इज़ वेल ‘. लेकिन पाकिस्तान के नए गाने में सब ‘वेल’ रहने का वादा नहीं है. आप ने घबराना नहीं है स्लोगन की शुरुआत अगस्त 2018 में हुई थी, जब प्रधानमंत्री इमरान खान ने सत्ता संभाली थी. आज इसकी स्थिति नववर्ष के संकल्प जैसी हो गई है, जो वास्तविकता नहीं बन पाता है.
हजारों मील तय करने और अनेकों वादे टूटने के बाद, घबराना नहीं है, पाकिस्तानियों के लिए एक झूठी दिलासा भर है. आपको ये लग सकता है कि घबराना नहीं है का मतलब भी सब ठीक होगा या ऑल इज़ वेल वाला ही होगा, लेकिन ऐसा नहीं है. क्योंकि घबराना नहीं है की खासियत ये है कि इसमें स्थितियों के बेहतर होने का वादा या भरोसा नहीं है. यह आपको देता कुछ भी नहीं है और सब कुछ ले लेता है– वास्तव में, इमरान खान सरकार का अब तक का काम भी संक्षेप में यही है.
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कलाकार नहीं घबराये, उन्होंने गाने तैयार कर दिए
पाकिस्तानी संगीतकार साद अल्वी ने प्रधानमंत्री खान के स्लोगन पर व्यंग्य करते हुए एक गाना तैयार कर दिया जो नहाने के साबुन पर पैसे खर्च करने वालों, एक से अधिक रोटी खाने वालों या दवाई खरीदने के साथ-साथ अपने बच्चों की स्कूल फीस भी जमा करने की सोचने वालों को संबोधित करता है. उनका कहना है कि लोगों को अपने खर्चे बंद करके, बचे पैसों से केवल टैक्स भरना चाहिए. इससे भी बेहतर ये होगा कि कौम को गहरी नींद में रहने दिया जाए, उन्हें ये जानने की जरूरत नहीं है कि असल दुनिया का क्या हाल है– बेड़ा गर्क हो जाए, आपने पछताना नहीं. आपने घबराना नहीं, पाकिस्तानियों के लिए प्रधानमंत्री इमरान खान का खोखला संदेश है. लेकिन अल्वी के जादू ने इसे सीमाओं के पार पहुंचा दिया है. महंगाई के इस दौर में बहुत से भारतीयों को ये लग सकता है कि अल्वी उनके लिए भी गा रहे हैं.
मुख्यधारा के पाकिस्तानी मीडिया पर अत्यधिक सेंसरशिप वाले माहौल में, राष्ट्रीय चैनलों पर सरकार को लेकर मजाक कर पाना मुश्किल है. और वैसे भी मौजूदा शासन में विनोदप्रियता बिल्कुल नहीं है. जनवरी में, पाकिस्तान की मीडिया नियामक संस्था ने एक टेलीविजन चैनल को तब कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया, जब समाचार केंद्रित एक टॉक शो में नेशनल असेंबली के एक सदस्य ने कह दिया: ‘जब एक नशेड़ी घर लौटता है, तो वह तमाम चीजों को बेचना शुरू कर देता है.’ सांसद ने किसी का नाम भी नहीं लिया था, फिर भी नियामक संस्था पेमरा ने कार्रवाई करने में कोई देरी नहीं की. इसके कारण लोगों के लिए ये अनुमान लगाना आसान हो गया कि टिप्पणी किस पर की गई थी या फिर टिप्पणी के पीछे कौन सी शरारत थी.
पिछले साल मशहूर कॉमेडियन खालिद बट्ट (मुर्तजा चौधरी) और मुस्तफा चौधरी को सरकार की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी, क्योंकि उन्होंने एक टीवी शो में प्रधानमंत्री इमरान खान को हूर वाला इंजेक्शन लेते दिखाया था. खान की पार्टी पीटीआई के एक सांसद ने कॉमेडियनों के खिलाफ मामला दर्ज कराने के लिए संघीय जांच एजेंसी के साइबर क्राइम सेल से संपर्क किया था, क्योंकि प्रधानमंत्री खान को ’खुद को ड्रग्स का इंजेक्शन लगाने वाले नशेड़ी’ के रूप में दिखाया गया था.
ऐसी प्रतिक्रियाओं के कारण केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ही सुरक्षित बच जाते हैं. लेकिन यहां भी राजनीतिक व्यंग्य करने पर सरकार के घटिया ऑनलाइन समर्थकों की जमात के हमले का जोखिम है. और जो ‘ऑफलाइन’ होता है वो ऑफलाइन ही रह जाता है. ठंड रखें और घबराना नहीं है.
पाकिस्तान में राजनीतिक व्यंग्य की परंपरा
पाकिस्तान में गाना राजनीतिक व्यंग्य का सबसे लोकप्रिय माध्यम रहा है. तानाशाही से लेकर मिश्रित लोकतांत्रिक दौर तक में पाकिस्तानी पॉप गायकों ने लेखकों, कवियों और पत्रकारों की तरह ही अपने श्रोताओं से संवाद के लिए व्यंग्य का इस्तेमाल किया है.
2011 में जब पाकिस्तान वर्षों के युद्ध और आतंक से त्रस्त था, अली अज़मत के गीत बम बम फटा में बताया गया था कि कैसे देश के नेता राजनीतिक सर्कस में लगे हुए हैं, जबकि जनता को भोजन, पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं.
इसी तरह, शहजाद रॉय के गाने लगा रह में वकीलों और राजनेताओं की तीखी आलोचना करते हुए बताया गया था कि कैसे उन्होंने अपने स्वार्थ के खातिर ‘आम आदमी’ को बंधक बना रखा है. जैसा कि कहावतों में कहा गया है आम जनता को ट्रक की बत्ती के पीछे चलने के लिए मजबूर किया जाता है. हालांकि इस गाने में तत्कालीन सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के दौर की कोई आलोचना नहीं की गई थी, जबकि वकीलों ने उन्हें हटाने के लिए ही आंदोलन किया था.
पॉप गायकों की पिछली पीढ़ी जनता और बुद्धिजीवी वर्ग को अपने व्यंग्य के केंद्र में रखती थी, जबकि पाकिस्तान के वास्तविक शासकों पर सवाल नहीं उठाया जाता था. पहली बार 2011 में, बेगैरत ब्रिगेड की ज़बरदस्त व्यंग्य कृति आलू अंडे में सामाजिक पाखंडों, मुल्लों, शासन की धर्मांधता और आलोचना से बचे रहने वाले वर्गों को निशाना बनाया गया था.
‘जहां पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर का हत्यारा क़ादरी नवाब है, 2008 के मुंबई हमलों का आतंकवादी अजमल कसाब हीरो है, मुल्ला बच निकलने के लिए बुर्के का इस्तेमाल करता है और जहां अहमदिया होने के कारण नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. अब्दुस सलाम को कोई नहीं पूछता.’ एक दशक बाद भी, ये शब्द सार्थक लगते हैं. इस बैंड ने 2013 में पैसे की गेम अलबम जारी किया था, जोकि पाकिस्तान के सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग के वर्चस्व के बारे में था.
धिनक धिनक में, देश के शासन में सेना की भूमिका की चर्चा है कि कुछ भी हो जाए कैसे आपके खिलाफ हमेशा उसकी ही जीत होती है– जरनैलों दा ऐ जादू, सब कर लेगा काबू. इसमें आज की हकीकत के अधिक करीब विषयों– पैसे खाने वाले टीवी विश्लेषकों, शासन में जड़ जमाए वर्ग और इन मुद्दों पर बात करने पर लापता किए जाने के वास्तविक डर की भी चर्चा है. बेगैरत ब्रिगेड के संगीतकार अली आफ़ताब सईद तहरीक-ए-लब्बाइक के कट्टरपंथी मौलवी खादिम हुसैन रिज़वी पर व्यंग्य करते हुए ‘पेन दी सिरी ’ नामक एकल गीत भी रिलीज कर चुके हैं. उल्लेखनीय है कि दिवंगत रिज़वी ने कई पाकिस्तानी संगीतकारों को प्रेरित किया था, भले ही ऐसा करने का उनका इरादा नहीं रहा हो.
इस समय तो सरकार सीनेट चुनाव के झमेले में ही उलझी हुई है और कोरोनावायरस टीके की हमारी योजना के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है. यहां तक कि पाकिस्तान में कोविड-19 के मामलों में तेज़ी आती है तो भी टीके की खरीद की तुलना में वोट खरीदने पर ही अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए. जब हम नया पाकिस्तान के इस दौर को पीछे मुड़कर देखेंगे, तो हम याद करेंगे कि जब रोम जल रहा था, तब हम कम से कम घबराना नहीं है के बोल गुनगुना रहे थे.
(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह @nailainayat हैंडल से ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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