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Friday, 1 November, 2024
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मोदी का रवैया बदला है, विकास पर दांव लगाते हुए वो आर्थिक मसलों पर बड़ा जोखिम उठा रहे हैं

नये वित्तीय कदमों के साथ मुद्रास्फीति का खतरा जुड़ा है, जो मतदाताओं को सरकार के विरोध में खड़ा कर देता है. और, दांव पर अगर आर्थिक वृद्धि है, तो इसने अगर निराश किया तब क्या होगा? मोदी को इस बारूदी रास्ते पर संभलकर ही चलना होगा.

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आर्थिक मसलों के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रवैया बदल गया है. यह बदलाव 21 महीने पहले आया, जब 2019 में वे और भी बड़े बहुमत के साथ दोबारा सत्ता में आए. राज्य सभा में भी बहुमत हासिल कर लेने के बाद उनमें आत्मविश्वास इस कदर बढ़ गया है कि वे जरूरत के मुताबिक दिशा बदलने और पारंपरिक समझ को भी चुनौती देते हुए लंबे समय से अटके पड़े आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने की महत्वाकांक्षा पल रहे हैं.

श्रम कानूनों में बदलाव और कृषि मार्केटिंग के दरवाजे खोलने के बाद उनकी सरकार ने अब निजीकरण की व्यापक नीति घोषित कर दी है जिसके तहत गैर-महत्वपूर्ण सरकारी कंपनियों को या तो बेच दिया जाएगा या बंद कर दिया जाएगा. ये सब के सब बड़े नाजुक मसले हैं.

इस प्रक्रिया में मोदी ने उन मामलों में भी दखल दे दिया है जिन्हें राज्य अपना क्षेत्र मानते हैं. एक बार तो वे राहुल गांधी के ‘सूट-बूट की सरकार ‘ वाले कटाक्ष के कारण ठिठक गए थे मगर अब उन्होंने निजी उपक्रम वाली भूमिका अपना ली है और स्थायी सरकारी सेवा पर सोचा-समझा हमला किया है, सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका उन्होंने चार सेक्टरों में सीमित कर दी है.

आश्चर्य की बात यह है कि यह सब उन्होंने किसान आंदोलन जारी रहने के दौरान किया है, जिसका ज़ोर इस आशंका पर है कि कृषि बाज़ारों पर कॉर्पोरेट हितों का कब्जा हो जाएगा. इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी अपनी स्थिति को दांव पर लगाने को तैयार दिखते हैं क्योंकि वे जो कुछ कर रहे हैं उनमें से कुछ प्रस्ताव ऐसे हैं जो नए कृषि कानूनों की तरह विवादास्पद साबित हो सकते हैं और उन्हें लागू करना आसान नहीं होगा. यहां दांव पर जो लगा है उससे बचने का कोई विकल्प नहीं है.

मोदी ने वित्तीय मामले में अपनी रूढ़िवादिता त्याग दी है और घाटे और सार्वजनिक कर्ज के मामलों पर ज्यादा व्यापक रुख अपना लिया है. उनके पहले कार्यकाल में हमने देखा कि विरासत में उन्हें जो मुक्त व्यापार समझौते मिले उनके प्रति उनमें आस्था की कमी थी और शुल्कों में वृद्धि तभी शुरू हो गई थी.

पिछले साल शुरू किए गए ‘आत्मनिर्भरता’ अभियान ने विरासत में मिले अर्थनीतिक ज्ञान के प्रति खुला उपेक्षा-भाव उजागर किया, जबकि ‘मेक इन इंडिया’ वाली रणनीति पर पुनर्विचार होता भी देखा गया. प्रधानमंत्री अपना असली हाथ दिखाने में भी अब संकोच नहीं कर रहे हैं, जो कि जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदले जाने और नए नागरिकता कानून से जाहिर है.


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आर्थिक मोर्चे पर बदला रुख पूंजीगत निवेश पर सरकारी खर्चों के मामले में पुनर्विचार से जाहिर होता है. इस पुनर्विचार के पीछे तर्क यह है कि इससे आर्थिक वृद्धि में कई गुना इजाफा हो सकता है. इसके बदले, उनके पुराने लक्ष्यों के लिए बजट में वास्तविक वृद्धि को छोड़ दिया गया है, कई सामान एवं सेवाओं का सार्वभौमिकरण किया गया है और सुरक्षा कवच का विस्तार किया गया है. महामारी ने जबकि लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया है और गरीबों की संख्या में गिरावट की धीमी रफ्तार को भी उलट दिया है, तब खर्चों के स्वरूप में परिवर्तन उल्लेखनीय है.

इसी तरह, बढ़ती विषमता के मद्देनजर टैक्स नीति पर पुनर्विचार और वित्तीय आवंटन के जरिए पुनर्वितरण से साफ इनकार भी इतना ही उल्लेखनीय है. अपने हर कदम के साथ मोदी नयी दिशाओं की ओर मुड़ रहे हैं.

रुख में बदलाव के कारणों का अनुमान ही लगाया जा सकता है. वजह शायद यह है कि सत्ता दल को राज्य सभा में बहुमत हासिल हो गया है, जो 2015 में नहीं था जब मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानूनों को बदल पाने में विफल रही थी.

महामारी से पहले ही आर्थिक वृद्धि की दर जिस तरह गिर रही थी उसने भी शायद आर्थिक रणनीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया. इसने शायद पर्यावरण संबंधी चिंताओं को भी परे करने के लिए तैयार कर दिया ताकि पारिस्थितिकी के मामले में कमजोर हिमालय जैसे क्षेत्रों में भी अर्थव्यवस्था के भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण को आगे बढ़ाया जा सके.

सरकारी बैंकों और ताजा पूंजी की उनकी असीमित मांग के अलावा जीडीपी की तुलना में कर-राजस्व और करों से इतर राजस्व में गिरावट से उपजी हताशा भी निजीकरण पर ज़ोर देने की वजह हो सकती है. अंत में, मोदी शायद यह सोचने लगे हैं कि वे राजनीतिक रूप से इतने मजबूत हो गए हैं कि कुछ जोखिम तो उठा ही सकते हैं.

जोखिम तो बेशक हैं. 1991 के आर्थिक सुधारों की सफलता और लाए गए परिवर्तनों के बावजूद देश का बड़ा हिस्सा एक नरम राज्यसत्ता की व्यापकता में मानसिक सुकून महसूस करता है, जो लाड़ जताते हुए सख्ती करने के साथ-साथ भ्रष्ट भी करती है. निजी क्षेत्र में ज़्यादातर लघु उपक्रम ही हैं, ऐसी बड़ी व्यावसायिक इकाइयां कम ही हैं जो सरकारी कंपनियों की खरीद के लिए पैसे निकाल सकें. ऐसे में निजीकरण एक बोझिल उपक्रम दिखाई देता है.

नये वित्तीय कदमों के साथ मुद्रास्फीति का खतरा जुड़ा है. ये ऐसा आर्थिक मसला है जो मतदाताओं को सरकार के विरोध में खड़ा कर देता है. और, दांव पर अगर आर्थिक वृद्धि है तो इसने अगर निराश किया तब क्या होगा? मोदी को इस बारूदी रास्ते पर संभलकर ही चलना होगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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