कश्मीर दिवस भले ही बीत गया हो, लेकिन वेलेंटाइन डे बस आने ही वाला है. संबंध तोड़ चुके अपने पड़ोसी को कौन सा फूल देना चाहिए जो बात तक करने से इनकार करता हो? वैसे ‘मैं बात करना चाहता हूं’ कहने के लिए मिस्ड कॉल से बेहतर कोई ज़रिया नहीं हो सकता. ज़ाहिर है प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने बहुत सारे मिस्ड कॉल किए, लेकिन नरेंद्र मोदी का जवाब हमेशा एक ही रहा — ‘बात नहीं, सिर्फ व्हाट्सएप’.
इस स्थिति में बदलाव कैसे हो?
जैसे कश्मीर का मुद्दा हम लोगों और हमारे पूर्वजों के लिए ताउम्र जारी रहा है, हमने उम्मीद की थी कि भारत-पाकिस्तान वार्ता भी चलती रहेगी. लेकिन कहानी में मोड़ आया, और ऐसा नहीं हुआ. 2008 के बाद से, दोनों देशों के बीच कोई द्विपक्षीय वार्ता नहीं हुई है, और 2015 में मोदी और नवाज़ शरीफ की लाहौर, पाकिस्तान में हुई औचक मुलाकात के बाद से दोनों देशों के नेता बिल्कुल ही नहीं मिले हैं. यहां तक कि ‘किसने किसकी ओर हाथ हिलाया‘ को लेकर दिखने वाला मीडिया का उत्साह भी काफूर हो चुका है.
आखिर, इस समय क्या स्थिति है?
भले ही फिज़ा में प्यार नहीं बिखरा हो, कम से कम शांति तो है. या कम से कम अतीत के अच्छे दिनों की तरह अमन-चैन की बातें तो हो रही हैं. शांति का संकेत देने के लिए पाकिस्तान के सेना प्रमुख से बेहतर भला और कौन होगा? जनरल क़मर जावेद बाजवा ने हाल ही में कहा, ‘ये सभी दिशाओं में अमन का हाथ बढ़ाने का समय है.’ एक हाथ शांति के लिए बढ़ रहा है, तो दूसरा अपनी आमलेट की प्लेट पकड़े हुए है — कोई और उम्मीद भी क्या कर सकता है? या बातचीत के पिछले अनुभवों को देखते हुए, कहीं भारत को ये तो नहीं लगता कि हाथ बढ़ाने का मतलब हाथ कर जाना होगा?
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यार या नहीं यार?
और फिर प्रधानमंत्री ख़ान का दिलचस्प मामला है, जो अभी भी मोदी द्वारा अनदेखी किए जाने से उबरे नहीं हैं. वह शायद सोच रहे हों, ‘समझ नहीं आता कि मोदी बात क्यों नहीं करना चाहते’. लेकिन ख़ान इतना तो समझते हैं कि वह कश्मीर पर मोदी से बात करना चाहते हैं, उसी मोदी से जिन्हें वह दोबारा चुने जाना और कश्मीर के मुद्दे को हल करते देखना चाहते थे. लेकिन, एक भाषण में तो आप मोदी सरकार की तुलना ‘नाज़ियों’ से करते हैं, जबकि अगले में आप चाहते हैं कि मोदी आपके ‘यार’ हों. ये कैसे चलेगा? निरंतर बयानबाज़ी आपको हैशटैग दिला देगी, लेकिन उससे द्विपक्षीय संवाद आगे नहीं बढ़ता.
फिर विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी की भी दुविधा है. एक दिन, वह हमें बताते हैं कि पाकिस्तान तब तक भारत से बात नहीं करेगा, जब तक कि वो धारा 370 खत्म करने का फैसला वापस नहीं लेता. अगले दिन, वह सवाल करते हैं कि भारत आखिर पाकिस्तान से बात करने से डरता क्यों है? इस दुविधा को अल्लामा इक़बाल के ‘शिकवा, जबाव-ए-शिकवा’ का नया संस्करण माना जा सकता है. और, क़ुरैशी की नाटकीयता इसे और अधिक प्रभावी बना देती है. दुर्भाग्य से इक़बाल ये सब देखने के लिए मौजूद नहीं है. हम सौभाग्यशाली हैं, या शायद नहीं.
इमरान ख़ान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद युसूफ़ कैसे पीछे रहते, उन्होंने ही सबसे पहले न्यूज़ ब्रेक किया कि भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू करना चाहता है. युसूफ़ शायद ये दिखाना चाह रहे थे कि भारत पाकिस्तान से बातचीत करने के लिए बेताब है लेकिन जैसा कि हमें बाद में पता चला, खुद भारत अपनी कथित बेताबी से अंजान था.
जारी है कश्मीर का ड्रामा
अब क्या होगा? पाकिस्तान भारत से बातचीत को तैयार है, लेकिन भारत से कोई नहीं पूछ रहा कि वो क्या चाहता है, या उसे इसकी परवाह भी है कि नहीं.
वार्ताएं, परस्पर भरोसा बढ़ाने के उपाय, जनता के स्तर पर संपर्क, थोड़ा-बहुत कश्मीर चूरन, फिर आतंकवाद की एक बड़ी वारदात (मुंबई 2008, पठानकोट 2016) और फिर संबंधों को रीसेट करना — दुर्भाग्य से वार्ताओं का वो स्वर्णिम दौर बीच चुका है कि जिसमें लौटने की पाकिस्तान उम्मीद कर रहा है. भले ही पाकिस्तान देखना नहीं चाहता हो, लेकिन नई वास्तविकता ये है कि वे दिन बीत चुके हैं और कश्मीर वार्ता के चूरन में शायद किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई है. खासकर इमरान ख़ान की अक्षम सरकार के कारण, कि जिसके साथ स्वदेश में उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी तक बात नहीं करना चाहते.
हमें बताया गया कि दिल्ली के कश्मीर प्लान को पटखनी देने के लिए एक रणनीति की जरूरत है. तो, दो साल के बाद भी हमारे पास एक रणनीति नहीं है? अभी के लिए, पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी कश्मीर दिवस पर ‘आजाद जम्मू और कश्मीर’ के प्रधानमंत्री राजा फारूख हैदर के साथ सोलिडेरिटी वॉक कर सकते हैं. याद रहे हैदर के खिलाफ हाल में पाकिस्तान सरकार ने देशद्रोह का मामला दर्ज किया है. ये बात आंखों में चुभेगी.
President Dr. Arif Alvi leading the Kashmir Solidarity Walk, at Muzaffarabad.#KashmirSolidarityDay pic.twitter.com/HPgDrouTfC
— The President of Pakistan (@PresOfPakistan) February 5, 2021
इस हाइब्रिड शासन की गंभीरता की असलियत सबके सामने है, बस पिछले सप्ताह कश्मीर दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण को ही देख लें. उन्होंने कहा कि कश्मीरियों को स्वतंत्र होने का विकल्प दिया जाएगा. और विदेश मंत्रालय को देर रात बयान जारी करना पड़ा कि पाकिस्तान की कश्मीर नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है. हालांकि ख़ान जो पेशकश कर रहे थे वह पाकिस्तान के संविधान में अंकित है, और कोई नई बात नहीं है.
संविधान कहता है कि जनमत संग्रह के बाद, यदि कश्मीर पाकिस्तान को चुनता है, ‘पाकिस्तान और उस राज्य के बीच का संबंध उस राज्य के लोगों की इच्छा के अनुसार तय किया जाएगा.’ लेकिन विदेश मंत्रालय ने सोचा कि प्रधानमंत्री के मुंह से निकलने वाली हर बात की तथ्यात्मक जांच की जानी चाहिए (इसके लिए मैं उसे दोष नहीं देती). इससे यही लगा कि विदेश मंत्रालय के किसी भी अधिकारी ने स्कूल के दिनों में पाकिस्तान स्टडीज़ की कक्षा में पढ़ाई गई बातों पर ध्यान नहीं दिया होगा. हालांकि इस स्थिति में उन नेताओं का भी योगदान है जिन्होंने हमें सिखाया है कि संविधान कागज़ का एक टुकड़ा भर है जिसे कूड़ेदान के हवाले किया जा सकता है.
कितनी हास्यास्पद बाद है कि दशकों तक एक उद्देश्य को लेकर चलने वाले देश को ये नहीं सूझ रहा कि आखिर वो उसके बारे में करे तो क्या. या ये तय है कि ’कश्मीर नीति’ कभी अपने अंजाम तक नहीं पहुंचेगी. संवाद जारी रहेगा, भले ही अपने आप से.
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह @nailainayat हैंडल से ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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