एक समय था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी राजनीति पर छाये हुए थे. माना जाता था कि वे कुछ भी गलत नहीं कर सकते. तभी वे ‘बाल नरेंद्र’ बनकर मगरमच्छों का नाश कर सकते थे या भारतीय छात्रों के लिए परीक्षा के मसीहा बनकर उन्हें बोर्ड या दूसरी उन परीक्षाओं का मुक़ाबले करने के लिए प्रोत्साहित करते थे जिनका दबाव उन्हें खुदकशी तक करने को मजबूर कर देता था. वे ‘हिंदू हृदय सम्राट’, फकीर, चायवाला, तीन तलाक के कहर से पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के भाई, वगैरह-वगैरह थे. लेकिन अचानक ही, किसान आंदोलन ने ‘पॉप कल्चर’ का ऐसा नया माहौल बना दिया, जो मोदी के प्रति कतई हमदर्द नहीं है.
मीमे और तस्वीरें कुछ अलग ही कहानी दिखा रही हैं. उन्हें किसानों के लिए कांटों के कालीन बिछाने वाले कार्टून हों, या जेल में बंद पत्रकारों द्वारा अपने पैरों पर लिखे गए नोट हों, मोदी तस्वीरों की लड़ाई हार गए हैं. और ट्विटर पर सबसे लोकप्रिय हस्तियों में चौथे नंबर पर गिनी जाने वाली रिहाना जब किसानों के आंदोलन स्थल पर इन्टरनेट बंद करने के सरकारी फैसले पर ट्वीट करेंगी तो जाहिर है कि दुनिया उस फैसले को अच्छी नज़र से नहीं देखेगी. और तो और, अमेरिकी उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस ने, जो अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठित वकील हैं, भी किसानों के समर्थन में ट्वीट किया, और जल्दी ही आपको यह भी देखने को मिल सकता है कि दुनिया भर में प्रधानमंत्री मोदी की निंदा हो रही है.
किसान आंदोलन ने मोदी सरकार के लिए प्रचार के स्तर पर एक नयी चुनौती खड़ी कर दी है. एक ‘चायवाला’ से लोक कल्याण मार्ग तक के उनके सफर को लेकर बड़े जतन से जो छवि गढ़ी गई थी वह धूमिल होने लगी है. हर दिन किसान आंदोलन में नये किसान आकर शामिल होते हैं और हर दिन उन पर नयी मीमे बनाई और प्रसारित की जा रही हैं—चाहे वह किसानों से वार्ता की अपील करते और फिर उनके आगे कांटे से भरी कुर्सी पेश करते मोदी या गृहमंत्री अमित शाह की हों, या ट्रैक्टरों से खदेड़े जा रहे मोदी की हों, या ‘मोदी नौकर अंबानी का’ शीर्षक से मीमें हो जिसमें मोदी को मुकेश अंबानी की खिदमत बजाते अलादीन के रूप में दिखाया गया हो, या जिनमें मोदी को सिंघू बॉर्डर पर बिछाई गईं कीलों को पानी से सींचते दिखाया गया हो.
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बुरा नज़ारा
मोदी सरकार पर जो ये हमले हो रहे हैं उनके पीछे मूल वजह यह है कि वह समझ नहीं पा रही कि असहमति से कैसे निपटा जाए. और इसे शांत करने के लिए वह जो भी कदम उठाती है, वह ऐसा लगता है कि ‘असहमति से कैसे न निपटें’ नामक किताब से सीखा गया है. इसका नतीजा यह होता है, जैसा कि हम कई मामलों में देख चुके हैं कि सरकार से असहमति या नाराजगी जताने वाले लोग प्रायः जेल में नज़र आते हैं. जेल भेजे गए लोगों में ज़्यादातर पत्रकार औए सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
हालत इतनी बुरी हो गई है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकर कार्यालय ने ट्वीट करके किसानों और भारत सरकार से अपील की कि वे जारी आंदोलन में ‘अधिकतम संयम’ से काम लें कि शांतिपूर्ण सभा और अभिव्यति के अधिकारों की ऑनलाइन और वास्तविक स्तरों पर भी सुरक्षा की जाए. यह हिदायत उस सरकार के लिए है जिसने किसान आंदोलन ही नहीं बल्कि सीएए के खिलाफ आंदोलन के दौरान भी आंदोलनकारियों से सख्ती पेश आई थी.
हालांकि मोदी के पक्के समर्थकों का दावा है कि नये कृषि कानून कृषि क्षेत्र में सदियों पुरानी जड़ता को तोड़ेंगे इसलिए उन्हें आसानी से स्वीकार नहीं किया जा रहा है. लेकिन हकीकत यही है कि इन क़ानूनों के विरोध में ज्यादा से ज्यादा किसान आंदोलन में शामिल हो रहे हैं और उनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है. 26 जनवरी को जैसे हिंसा हुई उसे आगे न होने देने के लिए मोदी सरकार राष्ट्रीय राजमार्गों पर जिस तरह बाड़बंदी कर रही है कि उसकी छवि क्रूर शासन की बन रही है, जो जनता की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं है. राजमार्गों के बीच में कीलों से भरी दीवारें जैसे-जैसे खड़ी की जा रही हैं, वैसे-वैसे उन मीमों की संख्या भी बढ़ रही है जिनमें अपने ही देश के किसानों के प्रति मोदी सरकार की सख्ती और चीनी घुसपैठ के प्रति उसकी नरमी को लेकर खूब तंज़ कसे जा रहे हैं.
किसानों को बदनाम करने की कोशिशें
किसी प्रदर्शनकारी किसान की भूल के बावजूद उनके आंदोलन को जनता की काफी सहानुभूति इसलिए हासिल है कि भारतीय समाज में किसानों को अन्नदाता का यानी खुदा का दर्जा हासिल है. कोई उन्हें राष्ट्र विरोधी कैसे कह सकता है? यह नामुमकिन है. वास्तव में, किसानों के आंदोलन पर राष्ट्र विरोधी, ‘खालिस्तानी’, ‘साजिशी’ होने का ठप्पा लगाने का उल्टा ही असर हुआ है, क्योंकि यह आंदोलन अब मुख्यतः जाटों और सिखों के बूते चल रहा है. उत्तर प्रदेश में यह आंदोलन सरकार या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का विरोध करने वालों पर प्रशासन के दमन को उजागर कर रहा है.
किसानोंं ने इन कानूनों को कॉर्पोरेट हितों को आगे बढ़ाने के लिए ‘अडानी-अंबानी’ और सरकार की मिलीभगत से लाया गया बताकर एक ऐसी धारणा फैला दी है जो अमीरों से प्रताड़ित गरीबों के मन में घर करती जा रही है. मोदी की ‘चायवाला’, ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ तथा ‘फकीर’ वाली छवि से उपजी इसी धारणा ने उन्हें गरीबों के दिलो-दिमाग में उनका मसीहा बना दिया था. नोटबंदी ने इस धारणा को और मजबूत किया कि वे काले धन का अंबार लगाने वाले बड़े व्यवसायियों और उनके प्रिय नेताओं के खिलाफ हैं.
अब, इस मुकाम पर आकार मोदी यह नहीं समझते कि जिन बातों ने उन्हें लोकप्रिय बनाया था उन्हें उनकी नीतियां उलट दे रही हैं और वे अमीरों को और भी अमीर, तथा गरीबों को और भी गरीब बना रही हैं, तो उनके लिए आगे के दिन कठिन हो सकते हैं. जो कुछ दिख रहा है वह मोदी के पक्ष में तो नहीं ही है, और दुनिया इसे देख-समझ रही है.
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(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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