नई दिल्ली: केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस हफ्ते दिल्ली एनसीटी सरकार अधिनियम में कुछ प्रस्तावित संशोधनों को मंज़ूरी दे दी, जिनमें उप-राज्यपाल को और अधिकार देने की बात कही गई है. अरविंद केजरावाल की आप सरकार ने इसे ‘संवैधानिक लोकतंत्र की हत्या’ क़रार दिया है.
दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा, कि कैबिनेट ने जो एनसीटी बिल पास किया है, उसका उद्देश्य ‘दिल्ली की चुनी हुई सरकार की शक्तियां छीनकर, उन्हें केंद्र द्वारा नियुक्त उप-राज्यपाल को देना है’.
सिसोदिया ने ये भी कहा कि ‘बीजेपी पिछले दरवाज़े से दिल्ली पर राज करना चाहती है, चूंकि लगातार तीन चुनावों में, लोगों ने उन्हें नहीं चुना है’.
एनसीटी बिल, जिसे कैबिनेट ने बुद्धवार को मंज़ूरी दी, उन 20 बिलों में से एक है, जिन्हें संसद के इस सत्र में पेश किए जाने का प्रस्ताव है.
दिप्रिंट के हाथ लगी बिलों की सूची के अनुसार, जिसे संसद में पेश किया जाना है, ‘बिल में प्रस्ताव किया जाता है, कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली अधिनियम1991 में, 2017 के सिविल अपील नंबर 2357 और उससे जुड़े अन्य मामलों में, माननीय उच्चतम न्यायालय (खंपीठ) के 14.02.2019 के फैसले के संदर्भ में, संशोधन किया जाए’.
इस फैसले के अनुसार, दिल्ली सरकार का एंटी-करप्शन ब्यूरो (एसीबी), केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों की जांच नहीं कर सकता, और किसी जांच आयोग को नियुक्त करने का अधिकार केंद्र के पास है.
फिलहाल, क़ानून व्यवस्था और पुलिस, गृह मंत्रालय के अंतर्गत आते हैं. लेकिन, प्रशासनिक शक्तियां दिल्ली सरकार के पास हैं.
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बिल में क्या है?
इस विधान से दिल्ली सरकार और एलजी के अधिकार, और उनके कामकाज से जुड़े 1991 के एक क़ानून में, बदलाव किए जाने की अपेक्षा है.
अपेक्षा है कि बिल में, सुप्रीम कोर्ट के फरवरी 2019 के फैसले के हिसाब से, एलजी और दिल्ली सरकार की शक्तियों को, स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाएगा. इसका मतलब है कि इसमें एलजी कार्यालय को ज़्यादा शक्तियां दी जाएंगी.
दिल्ली सरकार के सूत्रों के अनुसार, प्रस्तावित संशोधनों में विधेयकों की एक नई श्रेणी जोड़ी जाएगी, जो दिल्ली विधान सभा के अधिकार क्षेत्र से बाहर होंगे, और जिन्हें उप-राज्यपाल को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखना होगा.
इसका अर्थ है कि संविधान एलजी को अधिकार देता है, कि जिस मामले में उसके विचार मंत्री परिषद के विचारों से मेल न खाते हों, उसे वो निर्णय के लिए राष्ट्रपति के पास भेज सकता है, और जिन मामलों में राष्ट्रपति का निर्णय लंबित हो, वहां एलजी तत्काल स्वयं निर्णय ले सकता है, यदि उसे लगता है कि मामला अत्यंत महत्वपूर्ण है.
लेकिन, ये संवैधानिक प्रावधान उस समय निष्क्रिय या अप्रभावी हो गया, जब जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, कि रोज़मर्रा के शासन से जुड़े हर मामले में, दिल्ली सरकार को एलजी की सहमति लेने की ज़रूरत नहीं है, बस केवल उन्हें सूचित कर देना चाहिए.
केंद्रीय और दिल्ली सरकार के सूत्रों के अनुसार, प्रस्तावित संशोधनों में ये भी कहा गया है, कि चुनी हुई सरकार को अपने विधायी प्रस्ताव, कम से कम 14 दिन पहले, एलजी की राय जानने के लिए भेजने होंगे, ताकि देरी से बचा जा सके.
मामला अदालतों में कैसे पहुंचा?
दिल्ली में केंद्र और आप प्रशासन के बीच कई वर्षों से, शक्तियों के बटवारे के मामले पर, तीखी बहस चलती आ रही है. ऐसा इसलिए क्योंकि केंद्र सरकार ने, सार्वजनिक व्यवस्था जैसे कुछ मामलों पर अधिकार अपने पास रखे हुए हैं.
केंद्र और आप सरकार के बीच शक्ति का ये टकराव, 2017 में सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया था.
जुलाई 2018 में, शीर्ष अदालत ने दिल्ली में एलजी की भूमिका परिभाषित कर दी, और फैसला दिया कि वो ‘दिल्ली सरकार के हर फैसले में दख़लअंदाज़ी नहीं कर सकता’.
कोर्ट ने इस बात पर भी ज़ोर दिया, कि एलजी की हैसियत प्रांतों के राज्यपालों से अलग थी. बेंच ने कहा था कि ‘इसमें न तो निरंकुशता के लिए कोई जगह है, और न ही आराजकता की गुंजाइश है’.
उन्होंने कहा, ‘उप-राज्यपाल को चुनी हुई सरकार के साथ, सामंजस्य में काम करना होगा. एलजी प्रशासनिक प्रमुख है, लेकिन वो एक अवरोधक के रूप में काम नहीं कर सकता’.
लेकिन सेवाओं के मामले ने, फैसला सुनाने वाली बेंच को विभाजित कर दिया, और मामले को सुप्रीम कोर्ट की एक तीन-सदस्यीय बेंच के हवाले कर दिया गया. इसकी सुनवाई अभी पूरी होनी है.
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ये सब शुरू कैसे हुआ?
केजरीवाल और एलजी के बीच सत्ता की ये खींचतान फरवरी 2014 में शुरू हुई थी.
एसीबी ने उद्योगपति मुकेश अंबानी और अन्य के खिलाफ, एक एफआईआर दर्ज कराई थी, जिसमें केंद्रीय मंत्री एम वीरप्पा मोइली और मुरली देवरा के नाम भी शामिल थे. केजरीवाल ने उन पर मनमाने तरीक़े से, गैस के दाम तय करने का आरोप लगाया था.
अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज़ मई 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट चली गई, जहां उसने एफआईआर को रद्द करने की गुजारिश की. उसने केंद्र के 1993 के नोटिफिकेशन को भी चुनौती दी, जिसमें एसीबी को केंद्र सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ जांच शुरू करने के अधिकार दिए गए थे.
मनमोहन सिंह सरकार ने भी हाईकोर्ट पहुंचकर, एफआईआर में केंद्रीय मंत्री को नामज़द करने की, एसीबी की शक्तियों को चुनौती दी. उसने कहा कि केंद्रीय मंत्रियों की जांच करना, एसीबी के अधिकार क्षेत्र से बाहर था.
20 मई तक, अपने कई आदेशों में हाईकोर्ट ने केंद्र और रिलायंस इंडस्ट्रीज़ से कहा, कि वो एसीबी जांच में सहयोग करें. उसी महीने नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आ गई, और जुलाई 2014 में उसने एक नई अधिसूचना जारी की, जिसके तहत एसीबी से केंद्र सरकार के कर्मचारियों की जांच का अधिकार, वापस ले लिया गया.
उसके कुछ समय बाद ही, फरवरी 2015 में आप ने दिल्ली विधानसभा चुनाव जीत लिए.
21 मई 2015 को, केंद्र ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की, एसीबी की शक्ति को सीमित कर दिया गया. उसमें एलजी को दिल्ली में, नौकरशाहों की नियुक्ति का अधिकार भी दे दिया गया.
चार दिन बाद, दिल्ली हाईकोर्ट ने फैसला दिया, कि एसीबी के पास पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार करने का अधिकार है. हाईकोर्ट ने केंद्र के नोटिफिकेशन को भी ‘संदिग्ध’ क़रार दिया.
28 मई को केजरीवाल सरकार हाईकोर्ट चली गई, जहां उसने केंद्र के उस नोटिफिकेशन को चुनौती दी, जिसमें एलजी को दिल्ली में नौकरशाहों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया था.
हाईकोर्ट ने अगस्त 2016 में अपना फैसला सुनाया, जिसमें एलजी को दिल्ली का प्रशासनिक प्रमुख घोषित किया गया. उसने कहा कि केजरीवाल सरकार के इस तर्क में, कि एलजी मंत्रि परिषद की सहायता और सलाह मानने को बाध्य हैं, ‘कोई दम नहीं है’.
मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया, जिसने फरवरी 2017 में एक संवैधानिक पीठ का गठन कर दिया. उस साल नवंबर में मामले की सुनवाई शुरू हुई, जब एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में शीर्ष अदालत ने कहा, कि एलजी के पास निरंकुश शक्तियां नहीं हैं.
दिसंबर 2017 में सुनवाई पूरी हो गई, और सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया, जिसे जुलाई 2018 में सुनाया गया.
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि एलजी, एक ‘अवरोधक’ के तौर पर काम नहीं कर सकता’, और वो ‘मंत्रि परिषद की सहायता और सलाह पर काम करने के लिए बाध्य है’.
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