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Monday, 25 November, 2024
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बजट 2021 में ‘निजीकरण’ के अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पाने के लिए मोदी सरकार को करना होगा इस पर अमल

अगर सरकार निजीकरणके लिए पूरा ज़ोर लगाती है तथा यूनियनों, नौकरशाही या विपक्ष को अपनी योजनाओं को बेपटरी करने की अनुमति नहीं देती है, तोवास्तव में भारत के लिए यह एक परिवर्तनकारी बजट साबित होगा.

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‘गुपचुप सुधार’ का जुमला एक समय भारत में लोकप्रिय हुआ करता था, क्योंकि ज्यादातर सरकारों के पास या तो संसद में अपेक्षित संख्या नहीं होती थी या उनमें बाजारों के लिए बौद्धिक प्रतिबद्धता नहीं थी. सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के शेयरों की बिक्री को लेकर वित्तमंत्री ‘निजीकरण’ शब्द के इस्तेमाल से बचते थे और इसके बजाय इसे ‘विनिवेश’ कहना पसंद करते थे.

‘गुपचुप सुधार’ के रास्ते से हटते हुए, सरकार ने बजट 2021 में घोषणा की है कि वह सामरिक महत्व के उपक्रमों को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र के बाकी तमाम उद्यमों का निजीकरण करेगी. बजट में सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों (जिनके नाम नहीं बताए गए हैं) के निजीकरण की भी घोषणा की गई है. सार्वजनिक रूप से की गई ये घोषणा मोदी सरकार का एक साहसिक कदम है, जिसका बैंक यूनियन और विभिन्न दल विरोध कर सकते हैं.

सुधार की यह प्रतिबद्धता नए कृषि कानूनों, जिनके लिए सरकार को विरोध प्रदर्शनों का सामना करना पड़ रहा है, के मद्देनजर विशेष रूप से महत्वपूर्ण है.

भारत में निजीकरण की स्वीकार्यता का अभाव

आमतौर पर, भारत में निजीकरण की नीति मुश्किल वित्तीय परिस्थितियों में संसाधन जुटाने की ज़रूरत से प्रेरित होती है. यह ‘निजीकरण’ की जगह ‘विनिवेश’ शब्द के उपयोग से स्पष्ट है, क्योंकि निजीकरण का सीधा मतलब होता है कंपनियों या परिसंपत्तियों का स्वामित्व और प्रबंधन निजी हाथों में चला जाना. उच्च उत्पादकता और संसाधनों के बेहतर आवंटन के उद्देश्य से कार्यक्षमता बढ़ाने के एक साधन के रूप में निजीकरण का उपयोग पूर्व के बजटों का मार्गदर्शक सिद्धांत नहीं रहा था.

रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े सेक्टरों में, जिन्हें ‘सामरिक’ कहा जा सकता है, सरकार शायद आगे भी भूमिका निभाती रहेगी. लेकिन ऐसे सेक्टरों से जिनमें कि निजी कंपनियां सक्रिय हैं और जहां पहले से ही एक प्रतिस्पर्धी बाजार है (जैसे स्टील, दवाइयां), या जिनमें कुछेक कंपनियों का वर्चस्व है लेकिन जहां बाजार अच्छी तरह विनियमित है (जैसे दूरसंचार), सरकार का बाहर निकलना उचित होगा.

रणनीतिक बिक्री के माध्यम से निजीकरण के अतीत के प्रयासों—2000 के दशक की शुरुआत में पहली एनडीए सरकार द्वारा की गई कोशिश — को कई अवरोधों का सामना करना पड़ा था. इसकी एक वजह है अंतहीन मुकदमेबाज़ी— कभी श्रमिक संघों द्वारा, तो कभी सरकारी परिसंपत्तियों की तय कीमत (वैल्यूएशन) और उनके बिक्री मूल्य के नाम पर.
कीमत निर्धारण से जुड़े मामलों में विनिवेश के प्रभारी अधिकारियों को भी कानूनी पचड़े में फंसना पड़ा है, यहां तक कि सेवानिवृत्ति के बाद भी. इस कारण नौकरशाहों में निजीकरण के किसी भी सौदे को, किसी भी कीमत पर, मंज़ूरी देने के जोखिम से बचने की प्रवृति आ गई.


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कैसे बचें इन समस्याओं से

इन समस्याओं से बचने का एक तरीका है सूचीबद्ध केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (सीपीएसई) के शेयरों को बाज़ार में ‘किस्तों’ में उतारना. सरकार यह घोषणा कर सकती है कि वह तय अंतराल पर बाजार में शेयरों का एक हिस्सा बेचेगी, जिससे किसी बड़ी निजी कंपनी को सस्ते में एकमुश्त शेयर बेचे जाने की चिंताओं पर लगाम लग सकेगा. इस तरीके को अपनाकर सरकार बिक्री की ‘टाइमिंग’ को लेकर उठाए जाने वाले सवालों से भी बच सकेगी.

एक और रणनीति भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 को संशोधित करने की हो सकती है, ताकि निर्णय लेने की प्रक्रिया से जुड़ी ‘त्रुटियों’ और नौकरशाहों के ‘भ्रष्ट कृत्यों’ के बीच अंतर को स्पष्ट किया जा सके.

सरकार को बड़ी हिस्सेदारी बेचने की प्रतिबद्धता जताते हुए विनिवेश के साधनों के तौर पर शेयर बाज़ार या एक्सचेंज ट्रेडेड फंड (ईटीएफ) का उपयोग करना जारी रखना चाहिए.

परिसंपत्ति मुद्रीकरण योजनाओं के संबंध में भी वैल्यूएशन से जुड़ी चिंताएं देखी गई हैं. सरकारी नियंत्रण वाली परिसंपत्तियों की अक्सर ऊंची कीमत नहीं होती है. वे केवल तभी मूल्यवान बनती हैं जब वे निजी हाथों में जाती हैं, जो उन्हें उपयोगी बनाने में सफल रहते हैं. लेकिन इस प्रक्रिया में किसी परिसंपत्ति के बढ़े मूल्य को बेंचमार्क नहीं माना जा सकता है, जिस पर कि अतीत में उसे बेचा जाना चाहिए था.

निजीकरण के लक्ष्यों को पूरा करने में 1990 के दशक से ही सरकारों का ट्रैक रिकॉर्ड खराब रहा है. पिछले कुछ वर्षों में, आय का एक बड़ा हिस्सा बाय-बैक या सीपीएसई-टू-सीपीएसई हस्तांतरण, या उन सार्वजनिक बिक्रियों के ज़रिए आया है जहां एलआईसी जैसी सरकारी संस्थाएं खरीदार थीं. भले ही इन प्रक्रियाओं से संसाधन जुटाने में मदद मिली हो, लेकिन वास्तव में इनसे उपक्रमों में सरकार की हिस्सेदारी कम नहीं हो पाई.

अगर सरकार सचमुच में अर्थव्यवस्था के भीतर कार्यक्षमता में सुधार के लिए निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ना चाहती है तो उसे एक जेब से दूसरे में पैसा डालने की इन तरकीबों से तौबा करना चाहिए.

निजी क्षेत्र की चिंताओं को दूर करना

निजीकरण का एक अन्य तत्व है सार्वजनिक क्षेत्र की बुनियादी ढांचा परिसंपत्तियों का संचालन निजी कंपनियों को सौंपना.
बुनियादी ढांचा विकास के पीपीपी मॉडल के पुनरावलोकन और पुनरोद्धार पर विजय केलकर की अध्यक्षता वाली समिति (2015) ने सार्वजनिक-निजी भागीदारी अनुबंधों से जुड़ी जोखिमों का उल्लेख किया था. पर्यावरणीय मंजूरी और भूमि अधिग्रहण से संबंधित निर्माण संबंधी शुरुआती जोखिमें कई पीपीपी परियोजनाओं को संकट में डाल चुकी हैं क्योंकि निजी क्षेत्र इन मुद्दों को हल करने में सक्षम नहीं है.

उन परियोजनाओं में साझेदारी निजी क्षेत्र के लिए कम जोखिम वाली साबित हो सकती है, जहां सरकार पहले ही जोखिम उठा चुकी हो (जैसे सड़क का निर्माण). इसलिए बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए टोल-ऑपरेट-ट्रांसफर (टीओटी) मॉडल अधिक उपयुक्त हो सकता है, जहां निवेशक दीर्घावधि के टोल संग्रह अधिकारों के बदले में एकमुश्त भुगतान करता है. इस मॉडल को हाल के वर्षों में कुछ सफलता मिलती दिखी है.

इस अवधारणा को और आगे बढ़ाते हुए, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि सार्वजनिक आधारभूत ढांचा परिसंपत्तियों का मुद्रीकरण नए बुनियादी ढांचा निर्माण के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण फाइनेंसिंग विकल्प है. उन्होंने संभावित ब्राउनफील्ड आधारभूत परिसंपत्तियों के लिए एक नेशनल मोनेटाइज़ेशन पाइपलाइन शुरू करने का प्रस्ताव किया है.

इन परियोजनाओं में शामिल हैं: पहले से कार्यरत टोल रोड और ट्रांसमिशन परिसंपत्तियों समेत भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और पावर ग्रिड कॉरपोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड की परिसंपत्तियां; डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर परिसंपत्तियों का संचालन और रख-रखाव (निर्माण के बाद); हवाई अड्डों का संचालन और प्रबंधन; गेल, आईओसीएल और एचपीसीएल की तेल और गैस पाइपलाइनें, टीयर 2 और 3 श्रेणी के शहरों में एएआई के हवाई अड्डे; रेलवे की अन्य आधारभूत ढांचा परिसंपत्तियां, सेंट्रल वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन और नाफेड जैसे सीपीएसई की वेयरहाउसिंग परिसंपत्तियां और खेल स्टेडियम.

इसके अलावा, सीतारमण ने इस संबंध में प्रगति पर नज़र रखने और निवेशकों को ताज़ा जानकारी उपलब्ध कराने के लिए एक परिसंपत्ति मुद्रीकरण डैशबोर्ड तैयार करने का भी प्रस्ताव किया है. सरकार अज्ञात जोखिमों के बारे में निवेशकों की चिंताओं को दूर करने के लिए परिसंपत्ति विशेष के निजी क्षेत्र द्वारा मूल्यांकन के लिए उससे संबंधित तमाम जानकारियों वाली वेबसाइट शुरू कर सकती है. बिक्री से पहले संबंधित परिसंपत्तियों को लेकर पूरी पारदर्शिता बरते जाने और उनसे संबंधित कानूनी और अन्य मुद्दों को हल किए जाने, और संबंधित सूचनाओं को उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है. वैल्यूएशन की समस्या का नीलामी के माध्यम से समाधान किया जा सकता है ताकि बाजार स्वयं परिसंपत्ति विशेष का ‘उचित मूल्य’ निर्धारित कर सके.

इन साहसिक प्रस्तावों के बाद, सरकार द्वारा इनके कार्यान्वयन पर पैनी नज़र रखी जाएगी. वित्तमंत्री ने प्रतिबद्धता व्यक्त की है कि बीपीसीएल, एयर इंडिया, शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया, आईडीबीआई बैंक, बीईएमएल, पवन हंस और नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड की बिक्री 2021-22 में पूरी कर ली जाएगी, और इसी दौरान आईडीबीआई बैंक तथा सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों और एक सामान्य बीमा कंपनी का भी निजीकरण किया जाएगा.
अगर सरकार इन लक्ष्यों के लिए पूरा ज़ोर लगाती है तथा यूनियनों, नौकरशाही या विपक्ष को अपनी योजनाओं को बेपटरी करने की अनुमति नहीं देती है, तो ये वास्तव में भारत के लिए एक परिवर्तनकारी बजट साबित होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और रेणुका साने एनआईपीएफपी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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