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Friday, 22 November, 2024
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नक्सली हिंसा के विस्थापितों के डिजिटल डेटा बेस ‘विक्टिम्स रजिस्टर’ पर सरकार नहीं जता रही विश्वास

पिछले 20 वर्षों में करीब 65 हजार लोग नक्सल से प्रभावित होकर बस्तर से पलायन कर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रह रहे हैं.

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रायपुर: ‘नक्सलियों ने 2001 में मेरे घर को तहस नहस कर दिया था. सबकुछ लूट लिया और मुझे बेहोश होने तक बहुत मारा. मेरे होश में आने के बाद घर में कुछ भी नहीं बचा था. वर्ष 2004-05 में दूसरे हमले में मैं वहां से भाग निकला. तब से बीजापुर शहर में रहकर मजदूरी करता हूं. नक्सलियों ने इतना मारा कि आज भी दर्द होता है.’ यह कहना है छत्तीसगढ़ के नक्सली प्रभावित गोमारा गांव के नक्सल पीड़ित बेलाराम का.

दंतेवाड़ा के मृतक ग्रामीण कोड़तंम की पत्नि भीमे कहतीं हैं, ‘नक्सलियों को जब पता चला के मेरे पति पुलिस में हैं तो एक रात लगभग 60-70 लोग 9 बजे उनको घर से उठाकर जंगल में ले गए और वहां उन्हें जान से मार दिया. उसके बाद हम गांव छोड़ दंतेवाड़ा शहर में रहने लगे.’

विजयनगर के अशोक मिंज के पिता की नक्सलियों ने 2005 में सलवा जुडूम का समर्थन करने के आरोप में हत्या कर दी जिसके बाद में मिंज गांव छोड़कर नारायणपुर शहर में रहने लगे.

‘विक्टिम्स रजिस्टर’

राज्य के गठन के बाद बेलाराम, भीमे और अशोक मिंज जैसे बस्तर के हजारों नक्सल हिंसा से पीड़ित ग्रामीण अपने गांव से पलायन कर छत्तीसगढ़ सहित पड़ोसी राज्यों में इंटर्नली डिस्प्लेसड पर्सन्स (आईडीपी) के रूप में रह रहे हैं. अब कुछ वालेंटियर्स इनका डिजिटल डेटा बेस ‘विक्टिम्स रजिस्टर’ बना रहे है जिसमें पीड़ितों की त्रासदी उनकी ज़ुबानी लिखी जा रही है ताकि उनके पुनर्वास के लिए कोई ठोस योजना बन सके. राज्य सरकार वालेंटियर्स के कदम को सराह रही है लेकिन विश्वसनीयता का अभाव बताया.

डिजिटल रजिस्टर को ‘न्यू पीस प्रोसेस’ के बैनर तले बनाने वाले वालेंटियर्स का कहना है कि राज्य के भीतर 5,000 आईडीपी शरणार्थियों की पहचान हो चुकी है और इनके डॉक्यूमेंटेशन का काम चल रहा है. इनके अनुसार पिछले 20 वर्षों में करीब 65 हजार लोग बस्तर से पलायन कर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रह रहे हैं. करीब 30,000 विस्थापित ग्रामीण छ्त्तीसगढ़ के शहरी क्षेत्रों में रह रहे हैं.

पिछले 20 वर्षों में करीब 65 हजार लोग नक्सल से प्रभावित होकर बस्तर से पलायन कर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रह रहे हैं./फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

‘न्यू पीस प्रोसेस’ के संयोजक (convener) शुभ्रांशु चौधरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘विक्टिम्स रजिस्टर पूर्णतः डिजिटल है. जिसमें माओवादियों और सुरक्षाबल दोनों के डर से पलायन कर चुके पीड़ितों की आपबीती उनकी ही आवाज में रिकॉर्ड की जा रही है. हमारा मकसद बस्तर के विस्थापितों के सभी आईडीपी क्लस्टर्स का पता लगाना है. अब तक 179 का पता चला है. सभी तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में हैं.

शुभ्रांशु चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्होंने लंबे समय तक नॉर्थ ईस्ट और छत्तीसगढ़  राज्यों में आंतरिक विद्रोह होता रहा है उसपर लंबे समय तक काम किया है. फिलहाल चौधरी बस्तर में नक्सली इलाकों शांति को लेकर काम कर रहे हैं और पिछले कुछ वर्षों में कई शांति मार्च भी निकाला है. उन्होंने नक्सल को लेकर किताब ‘नो वन किल्ड वासु’ लिखी है जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया है. वह ब्लूटूथ रेडियो स्टेशन CGNET स्वरा चलाते हैं.

इनके अलावा बड़ी संख्या में ऐसे सेटलेमेंट्स हैं जिनकी जानकारी नही है. दोनों राज्यों में बस्तर के आईडीपी विस्थापितों की संख्या करीब 65 हजार है. अभी राज्य के भीतर 5000 आईडीपी शरणार्थियों की जानकारी विक्टिम्स रजिस्टर में डाली जा रहा है. इस काम के लिए कई युवा वालेंटियर्स को साथ में जोड़ा गया है जिसमें कई संस्थाओं के छात्र भी हैं. ये स्वयं पीड़ितों की आपबीती रिकॉर्ड कर रजिस्टर में एंट्री करते हैं.’

चौधरी के अनुसार, ‘विक्टिम्स रजिस्टर दशकों से अन्तराष्ट्रीय स्तर पर आईडीपी विस्थापितों को न्याय दिलाने का एक सशत्र माध्यम रहा है. कोलंबिया, नेपाल और फिलिपीन्स में ड्रग्स माफिया और माओवाद पर काबू इसी से पाया गया था.

कोलंबिया में लाखों विस्थापितों को वहां की सरकार ने कुछ ऐक्टिविस्ट्स द्वारा बनाए गए ‘विक्टिम्स रजिस्टर’ की मदद से 2011 में विक्टिम्स लॉ’ (पीड़ितों का कानून’) बनाकर न्याय दिलाया. हमारे यहां भी यह प्रक्रिया सरकार के समर्थन के बिना पूरी नही हो सकती. हमने राज्य सरकार से मदद के लिए आवेदन किया है लेकिन अब तक कोई जवाब नही आया है.’


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सरकार ने कहा काम ठीक है लेकिन कैसे करें विश्वास

अपर मुख्य सचिव और राज्य के कार्यवाहक मुख्य सचिव सुब्रत साहू ने दिप्रिंट को बताया, ‘न्यू पीस प्रोसेस की पहल अच्छी है लेकिन इस डेटा पर ‘विश्वास’ कैसे किया जाए.’

अधिकारी ने आगे कहा, ‘विक्टिम्स रजिस्टर’ बनाने के पीछे एक अच्छी मंशा हो सकती है लेकिन सरकार विक्टिम्स रजिस्टर के डेटा की विश्वसनीयता को कैसे परखे. यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है. यदि सरकार इस डेटा को सही मानकर कोई कार्यक्रम बनाती है तो कल कई और स्व सहायता समूह सामने आकर अपनी आवश्यकता अनुसार डिमांड कर सकते हैं. हालांकि सरकार इस कवायद के खिलाफ भी नही है क्योंकि इससे एक आंकड़ा सामने आएगा.’

पिछले 20 वर्षों में करीब 65 हजार लोग नक्सल से प्रभावित होकर बस्तर से पलायन कर तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रह रहे हैं./फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

2009 में आंध्र प्रदेश सरकार ने किया था सर्वे

छ्त्तीसगढ़ सरकार भले ही बस्तर के विस्थापितों की पूरी जानकारी नहीं रख रही है लेकिन 2009 में आंध्र प्रदेश सरकार और कुछ गैरसरकारी संस्थाओं के एक सयुंक्त सर्वे में बस्तर के 203 आईडीपी सेटलेमेंट्स चिन्हित किए गए थे.

इस सर्वे में शामिल सामाजिक कार्यकर्ता वेंकेटेश जतवाती कहते हैं, ‘सर्वे केंद्रीय संस्थान नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) के निर्देश पर तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा कराया गया था.

छत्तीसगढ़ के करीब 16,000 विस्थापितों के 203 आईडीपी सेटलेमेंट्स खम्मम जिले में गोदावरी नदी के किनारे चिन्हित किए गए थे जो तेलंगाना के गठन के बाद अब आंध्र प्रदेश के ईस्ट और वेस्ट गोदावरी जिलों में आ गए हैं. कई आईडीपी क्लस्टर्स करीमनगर, हैदराबाद और अन्य जिलों में भी हैं जिनका सर्वे कभी नही हुआ.’

अप्रैल में होगा डांडी मार्च, गांधी करेंगे अगुवाई

न्यू पीस प्रोसेस आईडीपी शरणार्थियों को एक साथ लाने और उनके पुनर्वास के लिए दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी मंदिर से राजधानी रायपुर तक 24 दिनों की दांडी निकालेगी.

यात्रा प्रतीकात्मक रूप से 12 मार्च से 6 अप्रैल के बीच 1930 में महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली नामक सत्याग्रह डांडी यात्रा वर्षगांठ के समय रखी गई है. इसकी दूरी भी गाँधी की डांडी यात्रा के बराबर 390 किलोमीटर रखी गई है.

बतौर चौधरी,’यात्रा की अगुवाई महात्मा गांधी के पोते गोपाल कृष्ण गांधी सहित और भी कुछ जानी मानी हस्तियां करेंगी. इसका मुख्य उद्देश्य दोनों प्रकार के पीड़ितों को साथ लाना है. वे अभी एक दूसरे को अपना विरोधी मानते हैं. पीड़ित तो पीड़ित है चाहे माओवादियों हिंसा से हों या सुरक्षाबलों के हाथों.’


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