बताया जा रहा है कि मोदी सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी सुविधाओं) सेक्टर की वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास वित्त संस्थाओं (डीएफआई) की स्थापना करने पर विचार कर रही है. लेकिन कोश के लिए टिकाऊ स्रोत का अभाव प्रस्तावित ‘डीएफआई’ की गंभीर कमजोरी का कारण बन सकता है.
सरकार और रिजर्व बैंक से रियायती ऋण पहले भी कोई टिकाऊ स्रोत नहीं साबित हुआ है. वैसे, भारत का बॉन्ड बाज़ार अभी भी सुधारों का इंतजार कर रहा है ताकि यह एक मजबूत और तरल स्रोत बन सके. यह पुराना उपाय नये रूप में इसलिए सामने आ रहा है क्योंकि भारत में बैंकिंग सेक्टर संकट में है. यह संकट इसलिए पैदा हुआ है कि तमाम बैंक इन्फ्रास्ट्रक्चर की परियोजनाओं के लिए कोश जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
डीएफआई की स्थापना के पीछे मंशा इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए दीर्घकालिक वित्तीय जरूरत पूरी करने की है, और बैंक इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को वित्त उपलब्ध कराने के लायक नहीं होते. अपनी देनदारियों के कारण बैंक दीर्घकालिक और जोखिम वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर वित्तीय साधन नहीं उपलब्ध करा सकते. इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए बैंकों से वित्त उपलब्ध कराने की रणनीति 2000 के पहले दशक में लागू करने की कोशिश की गई थी. 2003-08 में बैंकों से दिए गए ऋण में 40 प्रतिशत तक की बड़ी वृद्धि हुई. इसमें से ज़्यादातर ऋण इन्फ्रास्ट्रक्चर और कंस्ट्रक्सन सेक्टर को गया.
लेकिन 2012 के बाद से अर्थव्यवस्था में मंदी और वैश्विक वित्तीय संकट के कारण कर्ज का भुगतान मुश्किल हो गया. इसके चलते बैंकों के खराब कर्जों (एनपीए) में भरी वृद्धि हुई. कॉर्पोरेट कर्ज पुनर्निर्धारण, दबावग्रस्त परिसंपत्तियों का टिकाऊ निर्धारण, कर्ज का रणनीतिक निर्धारण, और साझा कर्जदार फोरम जैसी योजनाओं के कारण कर्जों के भुगतान के लिए कर्ज पर और कर्ज देने का चलन (एवरग्रीनिंग) शुरू हो गया. बैंकों से जारी कर्जे अटक गए, जिसके चलते बैंक क्रेडिट की वृद्धि में गिरावट आ गई.
भारत में ‘डीएफआई’ के गठन पर कोई पहली बार विचार नहीं हो रहा है. पहले भी ‘डीएफआई’ अच्छा काम नहीं कर पाए. ऐसा क्यों हुआ इस पर विचार करना जरूरी है.
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पिछली कोशिशें
1950 वाले दशक में उद्योग क्षेत्र की दीर्घकालिक वित्तीय जरूरतों को पूरा करने के लिए विकास वित्त संस्थान के रूप में नये तरह के वित्तीय संस्थानों का गठन किया गया था. 1948 में गठित भारतीय औद्योगिक वित्त निगम पहला ‘डीएफआई’ था. इसके बाद, एसएफसी एक्ट 1951 पास होने के बाद राज्य स्तर पर राज्य वित्त निगमों (एसएफआई) का गठन किया गया.
नियोजित आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में जो ‘डीएफआई’ गठित किए गए उनमें आइसीआइसीआई (1955), यूटीआई और औद्योगिक विकास बैंक (1964) शामिल थे. 1974 के बाद सेक्टर-केन्द्रित वित्तीय संस्थाओं के रूप में दूसरी पीढ़ी के ‘डीएफआई’ स्थापित किए गए. इस दौर में जो संस्थान स्थापित किए गए उनमें नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर, और रूरल डेवलपमेंट, एक्सपोर्ट इम्पोर्ट बैंक ऑफ इंडिया, पावर फाइनांस कॉर्पोरेशन लि., इंडियन रेलवे फाइनांस कॉर्पोरेशन लि. और नेशनल हाउसिंग बैंक शामिल थे.
‘डीएफआई’ को सरकार से रियायती दर पर ऋण मिलता था. उन्हें रिजर्व बैंक से भी कुछ छूट के साथ वित्त उपलब्ध होता था. इसके अलावा वे बहुपक्षीय और द्विपक्षीय एजेंसियों से सरकारी गारंटी के साथ सस्ते में फंड भी हासिल कर सकते थे. ‘डीएफआई’ द्वारा जारी बॉन्ड को बैंक द्वारा जारी ‘एसएलआर’ (वैधानिक तरलता अनुपात) वाले निवेश जैसा माना जाता था.
1990 के दशक में वित्त सेक्टर में सुधारों के बाद रियायती ऋण की व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म कर दी गई. ‘डीएफआई’ को बाजार से उधार लेने पर मजबूर किया गया. हालांकि भारत में इक्विटी मार्केट के नियमन तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार किए गए लेकिन उधार के बाज़ार का इन्फ्रास्ट्रक्चर कमजोर ही बना रहा.
फंड का सवाल
रियायती ऋण तो खत्म कर दिया गया मगर उसकी जगह उधार के बाज़ार को मजबूत नहीं बनाया गया. इसका अर्थ यह हुआ की ‘डीएफआई’ नीची दरों पर ऋण तो देते रहे मगर सस्ते फंड तक उनकी पहुंच नहीं रही. जाहीर है, ‘डीएफआई’ मॉडल पर दबाव बढ़ गया. रिजर्व बैंक की कई कमिटियों ने पाया कि इस मॉडल में ढांचागत दिक्कतें हैं. इन कमिटियों ने ‘डीएफआई’ को बैंकों—जैसे आइडीबीआई और आइसीआइसीआई— में या गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों में बदल देने की सिफ़ारिश की.
भारत के बॉन्ड मार्केट में विकसित तथा तरल सरकारी बॉन्ड मार्केट की कमी है. कॉर्पोरेट बॉन्ड मार्केट के नीची दर वाले बॉन्डों में पूरी तरलता नहीं है. मार्केट में मुख्यतः प्राइवेट प्लेसमेंट होती है, जिन्हें परिपक्व होने तक रोके रखा जाता है. वित्तीय संस्थाएं बीमा और पेंशन फंड संबंधी बाध्यताओं सरीखे नियमन प्रतिबंधों के कारण इन्फ्रा फ़ाइनांसिंग में भाग नहीं ले पातीं. इसके चलते बॉन्ड के लिए जीवंत, तरल और कार्यकुशल बाज़ार नहीं बन पाता.
बैंकिंग सेक्टर में ‘एनपीए’ की बाढ़ और आर्थिक वृद्धि में फिर से जान फूंकने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर को ज्यादा वित्तीय साधन जुटाने की जरूरत ने ‘डीएफआई’ के गठन की ओर फिर ध्यान आकर्षित किया है. टिकाऊ आर्थिक वृद्धि के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में निवेश को बढ़ावा देना तो जरूरी है ही, आज की प्राथमिकता ऋण बाज़ार की समस्याओं को दूर करना है जिनके चलते दीर्घकालिक वित्तीय साधन की उपलब्धता में अड़चनें पैदा हो रही हैं.
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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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