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Friday, 22 November, 2024
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नेपाल की ओली सरकार ने संसद भंग करने का लिया फैसला, संवैधानिक परिषद अध्यादेश का हो रहा था विरोध

सुबह हुई ओली मंत्रिमंडल की आपात बैठक में संसद को भंग करने के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करने का फैसला किया गया. इसके बाद ओली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पास यह सिफारिश लेकर पहुंचे.

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काठमांडू: नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने रविवार को हुई मंत्रिमंडल की आपात बैठक में संसद भंग करने की सिफारिश की है.

सुबह हुई ओली मंत्रिमंडल की आपात बैठक में संसद को भंग करने के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करने का फैसला किया गया. इसके बाद ओली राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के पास यह सिफारिश लेकर पहुंचे.

ओली कैबिनेट में ऊर्जा मंत्री वर्षमान पून ने कहा, ‘आज की कैबिनेट की बैठक में राष्ट्रपति को संसद भंग करने की सिफारिश करने का फैसला किया है.’

ओली कैबिनेट में ऊर्जा मंत्री वर्षमान पून ने कहा, ‘आज की कैबिनेट की बैठक में राष्ट्रपति को संसद भंग करने की सिफारिश करने का फैसला किया है.’

इस बीच सत्तारूढ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के प्रवक्ता नारायणजी श्रेष्ठ ने कहा, ‘यह निर्णय जल्दबाजी में किया गया है क्योंकि आज सुबह कैबिनेट की बैठक में सभी मंत्री उपस्थित नहीं थे. यह लोकतांत्रिक मानदंडों के खिलाफ है और राष्ट्र को पीछे ले जाएगा. इसे लागू नहीं किया जा सकता.’

ओली पर संवैधानिक परिषद अधिनियम से संबंधित एक अध्यादेश को वापस लेने का दबाव है, जो उन्होंने मंगलवार को जारी किया था. नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने उस पर हस्ताक्षर कर उसे उसी दिन मंजूरी दे दी थी.

इसके तहत कथित तौर पर संवैधानिक परिषद में चेक और बैलेंस बिगड़ जाता और कांस्टिट्यूशनल काउंसिल की बैठक बुलाई जा सकती थी अगर इसके ज्यादातर सदस्य हिस्सा लेते. परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं और इसमें, मुख्य न्यायाधीश, स्पीकर, राष्ट्रीय असेंबली के अध्यक्ष, विपक्ष के नेता शामिल है. ये प्रमुख संवैधानिक पदों पर नियुक्तियां सुझाता है.

ओली ने सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं और मंत्रियों के साथ शनिवार को सिलसिलेवार मुलाकातों के बाद मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई थी. यह खबर हिमालयन टाइम्स अखबार ने प्रकाशित की.

ओली ने पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ के साथ सत्ता संघर्ष के बीच यह कदम उठाया है.

राजशाही के समर्थन और हिंदू राष्ट्र का समर्थन

बता दें कि पिछले दिनों नेपाल को हिंदू राष्ट्र घोषित किए जाने को लेकर और राजशाही के समर्थन को लेकर कई रैलियां भी निकाली गई हैं. जिनमें मांग की गई थी कि संवैधानिक राजशाही को बहाल किया जाए और नेपाल को फिर से एक हिन्दू राष्ट्र घोषित किया जाए.

नेपाली कांग्रेस के प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने मध्य नेपाल के हेटौडा में आयोजित सरकार विरोधी प्रदर्शन को संबोधित करते हुए आरोप लगाया, ‘ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ओली उन लोगों के पीछे खड़े हैं जो प्रदर्शन कर रहे हैं. अन्यथा वे इस समय कैसे सड़कों पर आ सकते हैं ?’

हालांकि देउबा ने राजशाही को फिर से बहाल करने की किसी भी संभावना से इनकार किया था. उन्होंने कहा था, ‘किसी को भी देश में राजशाही की बहाली को लेकर कोई भ्रम नहीं होना चाहिए.’

देउबा का निशाना हाल में पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र के वफादारों द्वारा देश के अलग-अलग हिस्सों में आयोजित किए गए प्रदर्शनों पर था. नेपाल 2008 में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना था. इससे पहले 2006 में जन आंदोलन हुआ था और राजशाही को खत्म कर दिया गया था.

ओली पर उनकी पार्टी में ही उनका पद छोड़ने को लेकर रह रह कर दबाव बनता रहा है.

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