देश जबकि अभी कोरोना महामारी से जूझ रहा है, अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष 2021 की पहली तिमाही में –23.9 प्रतिशत की दर के साथ झटके खा रही है और भारत अधिकृत रूप से ऐसे रास्ते पर चल पड़ा है जिस पर वास्तविकता और दुःस्वप्न में तब्दील होते एक हसीन सपने के बीच की रेखा धुंधली हो चुकी है, तब नयी दिल्ली में नये संसद-भवन और दूसरे सरकारी भवनों वाले 970 करोड़ रुपये के ‘सेंट्रल विस्टा’ के लिए भूमि पूजन किया गया है. इस धुंधलेपन के अंदर भारत के शासक वर्ग पर इस नये विकास की धुन सवार हुई है, जिसकी आधी-अधूरी-सी चर्चा 2017 में शुरू हुई थी. भारत में सत्ता के दो केंद्र दंतकथाओं में शुमार हो चुके हैं. एक समय था जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की ‘जुगलबंदी’ मशहूर थी, जिसमें आडवाणी ‘प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री’ ही बने रहे. आज नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी का जलवा है. लेकिन ऐसा लगता है, जल्दी ही कोई दूसरी जोड़ी उभर सकती है. भारतीय राजनीति सत्ता के एक नये, मोदी बनाम योगी खेल की गवाह बन सकती है.
पिछले सप्ताह सोशल मीडिया पर जारी तसवीरों में भारत के चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत और भारत के प्रधान महंत साथ बैठे नज़र आए. सीडीएस जनरल रावत नौसेना दिवस समारोह पर अपने फौजी भाइयों के बीच न जाकर गोरखपुर में महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज के वार्षिक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि बनने पहुंच गए, हालांकि सेना अध्यक्ष के रूप में वे नौसेना दिवस समारोह में नौ बार भाग ले चुके हैं. सीडीएस जनरल रावत ने नौसेना दिवस समारोह की बजाय एक अर्द्ध-राजनीतिक व धार्मिक संगठन गोरखनाथ मठ की एक संस्था के समारोह को अहमियत दी. सिद्धांततः तो यह सेना के किसी व्यक्ति के लिए पूरी तरह निषिद्ध है. लेकिन याद है न? हम धुंध वाले रास्ते पर चल रहे हैं.
गोरखपुर वाले समारोह में जनरल रावत की मौजूदगी को आप बिलकुल निरापद भी मान सकते हैं. लेकिन इसे इस संदर्भ के मद्देनजर देखिए कि प्रधानमंत्री मोदी सेना को कितनी अहमियत देते हैं. उन्हें पता है कि हिंदुत्ववाद और सेना उनके लिए भाग्यशाली ताबीज़ जैसी हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव वे पाकिस्तान में बालाकोट पर वायुसेना के हवाई हमलों से पैदा हुई ‘राष्ट्रवादी’ लहर के बूते ही जीते. यही वजह है कि नौसेना दिवस समारोह में सीडीएस रावत की अनुपस्थिति के तीन दिन बाद ही 7 दिसंबर को सशस्त्र बल झण्डा दिवस पर मोदी बिना मास्क लगाए ही सैनिकों को सम्मानित करने के लिए पहुंच गए. जब तक आप अलग-अलग बिंदुओं को नहीं जोड़ते तब तक आपको यह सब निरापद ही लगेगा. और ये बिंदु हैं- दिल्ली और लखनऊ.
लखनऊ का आकर्षण
ऐसा लग रहा है कि एक और ताकतवर राजनीतिक मंडली उत्तर प्रदेश में तैयार हो रही है, जहां इन दिनों कई महत्वपूर्ण लोग जुटने लगे हैं. आप सोच सकते हैं कि लखनऊ में एक समानांतर सत्ता-केंद्र तो नहीं सक्रिय हो गया है. इससे स्वाभाविक अनुमान यह लगाया जा सकता है कि क्या भाजपा के अंदर एक समानांतर सत्ता-केंद्र तो नहीं उभर रहा है? जरा सोचिए, कहीं आपको ‘मोदी है तो मुमकिन है’ नारे में ‘योगी है तो यकीन है’ की गूंज तो नहीं सुनाई दे रही है? इसे आप अटकलें मान सकते हैं, लेकिन भारत के राजनीतिक क्षितिज पर मोदी बनाम योगी समीकरण साफ तौर पर उभर रहा है.
2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान शायद ही किसी को उम्मीद थी कि योगी को मुख्यमंत्री चुना जाएगा, क्योंकि न तो उन्हें ‘स्टार प्रचारक’ के तौर पर इस्तेमाल किया गया था और न ही मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर पेश किया गया था. वास्तव में, ज़्यादातर लोगों को यही उम्मीद थी कि तत्कालीन टेलिकॉम राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ही यूपी की गद्दी संभालेंगे क्योंकि वे मोदी की पहली पसंद थे. राजनीतिक पंडितों का भी यही मत था कि मोदी के खिलाफ योगी को आरएसएस ने खड़ा किया ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि न तो कोई व्यक्ति अपरिहार्य है और न कोई व्यक्ति संगठन से ऊपर है. मोदी भी नहीं. आज यह सच होता दिख रहा है.
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भाजपा में योगी आदित्यनाथ ही ऐसे नेता हैं जो मोदी या शाह के साये के तले नहीं बल्कि खुद अपने बूते खड़े हो सकते हैं. अक्षय कुमार अगर प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लेकर उनसे करीबी बनाते हैं, तो वे अपनी अगली फिल्म ‘राम सेतु’ की शूटिंग अयोध्या में करने के लिए योगी से अनुमति और आशीर्वाद लेना भी नहीं भूलते. इतना ही नहीं, बॉलीवुड अगर मोदी के साथ सेल्फी खिंचवाता है, तो योगी भी फिल्मी सितारों को अपने साथ लाने में जुट जाते हैं. यह मोदी की तरह व्यक्तिपूजा को बढ़ावा देने का ही खेल है, जिसमें मोदी महारत हासिल कर चुके हैं. सुभाष घई, बोनी कपूर, राजकुमार संतोषी, सुधीर मिश्रा, रमेश सिप्पी, तिग्मांशु धूलिया, मधुर भंडारकर, भूषण कुमार और सिद्धार्थ राय कपूर जैसे निर्माता-निर्देशक और अर्जुन रामपाल, रवि किशन जैसे अभिनेताओं ने उत्तर प्रदेश में बन रही फिल्म सिटी के बारे में विचार-विमर्श करने के लिए हाल में योगी से मुंबई में मुलाक़ात की.
अपनी जगह बनाने में जुटे मोदी
अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी कट्टरपंथी बहुसंख्यकवादी नेता वाली अपनी छवि से मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं. अब उन्हें तिलक धारण किए नहीं बल्कि मोर और तोते को दाना खिलाते देखा जा सकता है. अब हल्के रंग वाले वस्त्रों में वे खुद को एक मनमौजी एवं दार्शनिक किस्म के परंपरा भंजक के रूप में पेश करने की जद्दोजहद कर रहे हैं. लेकिन योगी ठेठ हिंदुत्व प्रचारक ‘आइकॉन’ हैं. राम मंदिर भूमि पूजन के समय मोदी के साथ उनकी मौजूदगी बहुत कुछ कहती है. उस अवसर पर मोदी के अलावा केवल दो और महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियां वहां मौजूद थीं, आरएसएस सरसंघ चालक मोहन भागवत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी. यहां तक कि अमित शाह भी इस ऐतिहासिक अवसर पर अनुपस्थित थे, जिसकी छवि हरेक ‘निष्ठावान’ हिंदू के मानसपटल पर हमेशा के लिए दर्ज हो जाने वाली थी, एक ऐसी भावनात्मक घड़ी जिसकी याद दशकों तक कई वोट दिलवाती रहेगी.
योगी मोदी के मुक़ाबले अपने व्यक्तित्व की कमियों को दूर करने का कोई भी अवसर कभी भी गंवाना नहीं चाहेंगे. मोदी की तरह वे भी अपनी छवि एक ऐसे नेता के रूप में बनाने में जुटे हैं, जो किसी के दबाव में नहीं है. ब्रह्मचारी होने के नाते योगी अपने पिता की अन्त्येष्टि में भी नहीं गए और एक पत्र में अपने पिता को उन्होंने ‘पूर्वाश्रम के जन्मदाता’ कहा, यानी उनके ‘पूर्व संसार’ के पिता, जब उन्होंने संन्यास नहीं लिया था. जिस दिन उनके पिता का निधन हुआ, योगी अपने ‘राजधर्म’ से बंधे अपने दफ्तर में काम करते रहे और कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन को तोड़ने की कोशिश नहीं की.
चाहने वालों का आधार
कुछ भाजपाई योगी आदित्यनाथ को जिस तरह ‘महाराज जी’ कह कर संबोधित करते हैं वह एक तरह की चेतावनी जैसी लगती है. जैसे कि भाजपा के पूर्व राज्यसभा सांसद तरुण विजय ने अपने ब्लॉग में उन्हें संबोधित किया. तरुण विजय का मानना है कि योगी ने ‘एक जन नेता के तौर पर आदर्शों का असंभव प्रतिमान स्थापित किया है’, और वे इस बात से नाखुश थे कि मीडिया उनकी महानता को पर्याप्त रूप से प्रस्तुत नहीं कर रहा है.
सरकार में भी योगी के चाहने वाले कम नहीं हैं. अजित डोभाल ने इस बात के लिए उनका महिमागान करने में कोई संकोच नहीं किया कि अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद योगी ने उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था बड़ी मजबूती से बनाए रखी. यह और बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों से इस फैसले के बाद शांति बनाए रखने की अपील की थी.
मोदी बनाम योगी को कवित्वमय लहजे में फकीर बनाम योगी भी कहा जा सकता है. सत्ता के ये दो केंद्र 2021 से 2024 के बीच या तो और मुखर-प्रखर होकर उभरेंगे या दोनों के बीच सुलह कोई जमीन खोज ली जाएगी. सिंहासन के इस खेल में देखने वाली दिलचस्प बात यह होगी कि अमित शाह का क्या हश्र होता है, कहीं उनका खेल तो खराब नहीं हो जाएगा!
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Aap apna Gyan ko apne Tak hi rakho….
Yogi ho ya bhog sab bharat ko loot khasot or bhog k bhaag jayenge.
Jai shree raam
aap ya to pagal ho ya honewale ho….. so jao modi yogi or shah ek h or ek hi rhenge
इतने बड़े पत्रकार हो फिर भी ऐसी बात करते हो आखिर सब लोग मोदी योगी या BJP को अलग अलग क्यों मानते हैं, चाहे मोदी हो या अमित शाह योगी हो या पूरी BJP सबका प्रमुख है आरएसएस और कौन किस भूमिका में रहेगा आरएसएस ही तय करता है, और सब लोग उसको खुशी खुशी स्वीकार करते हैं, क्योंकि आरएसएस से जुड़ा हुआ हर स्वयं सेवक निश्वार्थ रूप से देश की सेवा के लिए ही जीवन जीता है, इसलिये आरएसएस से ऊपर कुछ भी नहीं है, 2024 में भी सबकी भूमिका आरएसएस ही तय करेगा।
जय श्री राम
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