नई दिल्ली: शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय ने, 2018 के आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में, रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ अर्णब गोस्वामी और दो अन्य को, 11 नवंबर को ज़मानत देने के पीछे विस्तृत कारण सार्वजनिक किए.
अपने फैसले में, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की एक बेंच ने, एफआईआर की भी जांच की और कहा, कि ‘पृथम दृष्ट्या, उस टेस्ट को लागू करने पर, जिसे इस कोर्ट ने ही एक लाइन ऑफ अथॉरिटी के तहत क़ायम किया है…ये नहीं कहा जा सकता कि अपीलकर्ता, आईपीसी के अनुच्छेद 306 के अर्थ के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी था’.
अदालत ने अपने फैसले से दो दिन पहले, बॉम्बे हाईकोर्ट के अर्णब गोस्वामी को ज़मानत न देने के फैसले पर नाराज़गी का भी इज़हार किया. पहली नज़र में एफआईआर की जांच न करके, ‘हाईकोर्ट ने अपने संवैधानिक कर्तव्य और आज़ादी का संरक्षक होने के दायित्व का त्याग किया’.
उसने आगे कहा, ‘…सभी अदालतों का कर्तव्य है- ज़िला अदालतें, उच्च न्यायालय, और सर्वोच्च न्यायालय- कि वो सुनिश्चित करें कि आपराधिक क़ानून, नागरिकों को चुने हुए तरीक़े से परेशान करने का हथियार न बन जाएं’.
लेकिन, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसकी ये टिप्पणियां ‘पृथम दृष्ट्या इस स्टेज पर हैं’, और कहा कि हाईकोर्ट को अभी गोस्वामी की, उनके खिलाफ दायर एफआईआर को ख़ारिज करने की, याचिका पर सुनवाई करनी है.
कोर्ट ने आगे कहा, ‘अपीलकर्ता भारत के नागरिक हैं, और जांच अथवा मुक़दमे के दौरान उनके भाग जाने का ख़तरा नहीं है. सबूतों या गवाहों से छेड़छाड़ की आशंका नहीं है. इन बातों को ध्यान में लेते हुए, 11 नवंबर के आदेश में, अपीलकर्ताओं की ज़मानत पर रिहाई की बात कही गई थी’.
55 पन्नों के फैसले में, जिसे जस्टिस चंद्रचूड़ ने लिखा, रोमिला थापर केस में ख़ुद उनकी असहमत राय का भी हवाला दिया गया, जिसमें भीमा-कोरेगाव गिरफ्तारियों के मामले में, एसआईटी जांच की मांग ठुकरा दी गई थी.
अपनी असहमत राय में, जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि ‘जिस भी नागरिक पर आपराधिक गतिविधियों का आरोप है, उसका बुनियादी हक़ है कि जांच प्रक्रिया निष्पक्ष होनी चाहिए’.
गोस्वामी को महाराष्ट्र पुलिस ने 4 नवंबर को गिरफ्तार किया था, और उसी दिन अलीबाग़ की निचली अदालत ने, उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया था.
उन्होंने फिर बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, और पुलिस के दोबारा जांच शुरू करने पर सवाल खड़े करते हुए, 2019 में दायर एक क्लोज़र रिपोर्ट का हवाला दिया जिसे, उनके अनुसार, मजिस्ट्रेट ने स्वीकार कर लिया था.
उन्होंने ये भी कहा, कि केस की फिर से जांच शुरू करने के लिए, पुलिस ने कोर्ट से अनुमति नहीं ली, और इसलिए, उन्होंने अपनी गिरफ्तारी को ‘अवैध’ क़रार देते हुए चुनौती दी. उन्होंने आरोप लगाया है कि उनकी गिरफ्तारी ‘बदले की राजनीति’ का परिणाम थी, जिसका कारण ‘उनकी न्यूज़ कवरेज’ थी.
लेकिन, 9 नवंबर को हाईकोर्ट ने उन्हें अंतरिम ज़मानत देने से इनकार कर दिया, और स्पष्ट किया कि ज़मानत के लिए, वो सेशंस कोर्ट जाने को आज़ाद हैं. कोर्ट ने कहा कि अगर ऐसी अर्ज़ी दायर की जाती है, तो उसपर चार दिन के अंदर फैसला हो जाना चाहिए.
गोस्वामी ने फिर अलीबाग़ सेशंस के सामने नियमित ज़मानत की अर्ज़ी दाख़िल की, लेकिन हाईकोर्ट के अंतरिम ज़मानत से इनकार को चुनौती देने के लिए, सुप्रीम कोर्ट भी चले गए.
उनकी मुख्य याचिका, जिसमें एफआईआर और उनकी गिरफ्तारी को ख़ारिज करने की मांग की गई है, अभी हाईकोर्ट में लंबित है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर दोनों पक्ष, हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हैं, तो ऐसी सूरत में गोस्वामी को गिरफ्तारी से दी गई अंतरिम राहत, बॉम्बे हाईकोर्ट में मुकॉदमे के निपटारे के, चार हफ्ते बाद तक जारी रहेगी.
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‘स्वतंत्रता का हनन हुआ है’
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है, कि हाईकोर्ट को ‘उस विशेष आधार को संज्ञान में लेना चाहिए था, जिसे अपीलकर्ता ने उसके सामने उठाया था, कि उसे उन सिलसिलेवार घटनाओं की कड़ी के तौर पर, निशाना बनाया जा रहा था, जो अप्रैल 2020 के बाद से घट रही हैं’.
कोर्ट ने कहा, ‘अपीलकर्ता का मुख्य रूप से ये कहना है, कि उसे इसलिए निशाना बनाया गया है, कि उसके टेलीवीज़न चैनल पर उसके विचार अथॉरिटी के गले नहीं उतरते’.
फिर कोर्ट ने कहा कि किसी एफआईआर को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई के दौरान, अगर हाईकोर्ट को लगता है कि पृथम दृष्ट्या कोई मामला नहीं बनता, तो संविधान की धारा 226 के तहत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए, वो अभियुक्त को ज़मानत दे सकता है.
फैसले में उन बातों को भी सूचीबद्ध किया गया, जिन्हें उच्च न्यायालयों को संविधान की धारा 226 के तहत ज़मानत याचिका की सुनवाई करते समय ध्यान में रखना चाहिए, जो हाईकोर्ट को कुछ आज्ञापत्र जारी करने की ताक़त देती है. इनमें से एक शर्त ये मूल्यांकन करना है, कि ‘क्या पहली नज़र में, अपराध के घटक वही हैं, जिन्हें एफआईआर में आधार बनाया गया है’.
शार्ष अदालत ने कहा कि बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस बात का मूल्यांकन नहीं किया, कि क्या पहली नज़र में कोई मामला बनता था. उसने कहा, ‘इस बीच स्वतंत्रता का हनन हुआ है’
सुप्रीम कोर्ट ने फिर स्वयं पृथम दृष्ट्या जांच की, और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि ‘पहली नज़र में एफआईआर का मूल्यांकन, आईपीसी के अनुच्छेद 306 के तहत, आत्महत्या के लिए उकसाने के घटकों को स्थापित नहीं करता’.
‘बुनियादी नियम बेल है, जेल नहीं’
कोर्ट ने 1977 के ऐतिहासिक केस का हवाला देते हुए दोहराया, कि ‘हमारी अपराधिक न्याय प्रणाली का बुनियादी नियम बेल है, जेल नहीं’.
अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालयों तथा ज़िला अदालतों को, ‘इस सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए, और अपने उस कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए, जिसकी वजह से इस कोर्ट को, हर समय दख़ल देना पड़ता है’.
‘आज़ादी सिर्फ कुछ लोगों के लिए उपहार नहीं है’, इस पर ज़ोर देते हुए कोर्ट ने देशभर के उच्च न्यायालयों और ज़िला अदालतों में लंबित पड़े मामलों के आंकड़ों का उल्लेख किया. फिर उसने कहा कि ज़रूरत इस बात की है, कि अदालतें ज़मानत अर्ज़ियों की समस्या को सुलझाने की कोशिश करें, जिन्हें तेज़ी के साथ नहीं सुना जा रहा है.
अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालयों पर बोझ बढ़ जाता है, जब ज़िला अदालतें योग्य मामलों में अंतरिम ज़मानत या ज़मानत देने से मना कर देती हैं, और सुप्रीम कोर्ट पर बोझ तब बढ़ता है, जब उच्च न्यायालय ऐसी राहत देने से इनकार कर देते हैं.
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