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Wednesday, 6 November, 2024
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RSS-VHP की मुहिम के बीच झारखंड सरकार ने पारित किया सरना धर्म कोड, क्या 705 जनजातियां इसे स्वीकारेंगी

एक तरफ विभिन्न जनजातियों के बीच का तालमेल, आरएसएस और वीएचपी का इसको लेकर चलाए जा रहे आंदोलन, इस पूरे मसले पर भारत सरकार का अब तक का आधिकारिक स्टैंड, इन तीन बाधाओं को पार करने के बाद ही आदिवासियों के अलग धर्मकोड की मांग पूरी हो सकती है.

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रांची: बीते विधानसभा उपचुनाव के दौरान झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने कहा कि वह वर्षों से सरना-आदिवासी धर्म कोड की लंबित मांग को पूरा करेंगे. इसके लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया जाएगा. 10 नवंबर को मतगणना के बाद अगले दिन विधानसभा बैठी और विपक्ष की हल्की आपत्ति के बाद इसे पारित  कर दिया गया. चूंकि इसे तय केंद्र सरकार को करना है, ऐसे में गेंद अब नरेंद्र मोदी सरकार के पाले में है लेकिन असल सवाल ये है कि क्या आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड को हासिल करना इतना आसान है. जवाब है, नहीं.

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि आगामी जनगणना में आदिवासी धर्म वाले कॉलम में अपना धर्म हिन्दू लिखे, इसके लिए अभियान चलाएगा. उसका मानना है कि ईसाई मिशनरी आदिवासियों को इस बात के लिए उकसा रही हैं कि जनगणना में वह धर्म वाले कॉलम में अपनी जनजाति का जिक्र करें, न कि हिन्दू धर्म में खुद को शामिल करें. इधर, रांची में कैथोलिक चर्च के बिशप थियोडोर मैस्करेन्हांस का कहना है कि आदिवासियों को उनका धर्म कोड मिले, चर्च इसका पुरजोर समर्थन करता है. इससे हमारे ऊपर सालों से लग रहे धर्मांतरण के आरोप की वास्तविक स्थिति भी स्पष्ट हो जाएगी.

वहीं विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष चंपत राय ने कहा कि, ‘झारखंड का समाज क्या चाहता है, इस पर भी बात होनी चाहिए. हम सारे देश को एक मानते हैं. अलग धर्म की बात वहां के आदिवासी समाज से पूछा जाना चाहिए.’

केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देशभर के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं. झारखंड सरकार ने ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ का प्रस्ताव पारित किया है. सरना धर्म को मानने वाले आदिवासियों की संख्या बहुत कम है. झारखंड में अधिकतर उरांव जनजाति के लोग सरना धर्म को मानते हैं. आदिवासी मामलों के जानकार और लेखक अश्विनी पंकज कहते हैं, ‘सरना तो कोई धर्म ही नहीं था. वह तो आदिवासियों के पूजा स्थल को सरना स्थल कहा जाता है. ऐसे में सरना के नाम पर अन्य आदिवासियों की आपत्ति भी इस बिल के पास होने में बाधा साबित हो सकती है. केवल झारखंड में ही कुल 32 जनजातियां रहती हैं.’

विधानसभा में बिल पास होने के बाद रांची में आदिवासी समाज की महिलाएं खुशी के इजहार मेंं शामिल| फोटो- आनंद दत्ता

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सरना शब्द पर आपत्ति है अन्य राज्यों के आदिवासियों को

विशेष सत्र के बाद सीएम हेमंत सोरेन ने कहा कि झारखंड ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी (टीएसी) की अध्यक्षता में देशभर के बैठक आयोजित की जाएगी. जिसमें अलग धर्म कोड को लेकर सहमति बनाने की कोशिश होगी. ताकि अन्य राज्य भी अपने विधानसभा से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं, जिससे आगामी जनगणना से पहले देशभर के आदिवासियों को उनका हक मिल सके.

आदिवासी मामलों में किसी भी तरह का निर्णय लेने के लिए ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल संवैधानिक तौर पर अधिकृत है. सभी राज्यों, जहां-जहां आदिवासी हैं, उसमें इस कमेटी का का गठन किया गया है. फिलहाल आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमचाल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और उत्तराखंड में इसका गठन किया गया है.

इस पर गुजरात के आदिवासी विधायक छोटूभाई वसावा कहते हैं, ‘सरना के बजाय केवल आदिवासी धर्म की बात होगी, तो यह देशभर के आदिवासियों को स्वीकार्य होगा. क्योंकि मैं अगर भील जनजाति से हूं तो पहले आदिवासी हूं. अगर ऐसा होता है तो किसी मुंडा, गोंड, संथाल को उस नाम के साथ समस्या नहीं होगी. हेमंत सोरेन को इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व करना चाहिए.’

वहीं राजस्थान के भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता वेलाराम घोघरा कहते हैं, ‘आदिवासी धर्म पूरे देश के स्तर पर मान्य हो सकता है. अलग-अलग ग्रुपवाइज करेंगे तो जो आदिवासी एकता है, वह दरक सकती है. प्रकृति धर्म, आदिधर्म या आदिवासी धर्म…किसी एक नाम के नीचे सबको आना होगा.’

मध्य प्रदेश सरकार में आदिवासी मामलों के पूर्व मंत्री रहे ओमकार सिंह मरकाम ने कहा कि ‘सरना आदिवासी में एक जाति है, एक समूह है. आदिवासियों में क्षेत्रीय आधार पर जीवन पद्धति की परंपरा है. हेमंत अगर समग्र आदिवासियों के लिए बात करेंगे तो बेहतर रहेगा. हालांकि ये बात मैं जरूर कहूंगा कि कम-से-कम उन्होंने शुरुआत तो की है. अब आगे इस पर बात होती रहेगी. उन्होंने कहा कि, हम गोंड हैं, हमारे लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम हिन्दू नहीं हैं.’

छत्तीसगढ़ के बड़े आदिवासी नेता और इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री रहे अरविंद नेताम ने कहा कि, ‘धर्म कोड बनना चाहिए, इस पक्ष में हूं. लेकिन यह ऐसा मसला है जिस पर राष्ट्रीय स्तर पर सहमति बननी चाहिए, उसके बाद ही आगे बढ़ना चाहिए. सभी आदिवासी समाज में परंपरा, रीति-रिवाज मिलते जुलते हैं. नाम के सवाल पर सबको चर्चा करना चाहिए, आदिवासी शब्द रहना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि संघ पहले हिन्दू धर्म में व्याप्त कमियों को खत्म करने पर ध्यान दे, फिर आदिवासियों पर.’

नॉर्थ-ईस्ट के आदिवासियों का क्या होगा रुख

आदिवासी मामलों के जानकार और भारतीय भाषा केंद्र (जेएनयू) के पूर्व अध्यक्ष प्रो. वीर भारत तलवार कहते हैं, जब हम ये मानते हैं कि आदिवासी किसी खास इलाके में रहते हैं, खास रहन-सहन है, पहनावा है, तो अलग धार्मिक पहचान भी मिलनी चाहिए. जहां तक नाम को लेकर सर्वसम्मति की बाद है तो हेमंत सोरेन को रामदयाल मुंडा के सुझाए तरीकों पर गौर करना चाहिए. उन्होंने आदिधर्म/अपनी जनाजाति का नाम का रास्ता सुझाया था. जहां तक नॉर्थ-ईस्ट के ट्राइबलों की बात है, वह खुद को अधिक स्वतंत्र मानते हैं.

मणिपुर के जेलेंगरोंग जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखने वाले और जनजातीय मामलों के जाने-माने जानकार डॉ. कामेई सैमसन कहते हैं, सभी आदिवासियों का धर्म सरना नहीं है. आदिवासी प्रकृति की पूजा करते हैं, लेकिन वह यह नहीं मानते हैं कि प्रकृति ही भगवान हैं. सरना एक विदेशी शब्द है, इसके अंतर्गत सभी आदिवासी को नहीं शामिल करना चाहिए. सभी का अपना अलग धर्म है, विश्वास है, तौर–तरीके हैं. उन्हें एक में शामिल कर अपमानित नहीं करना चाहिए. जो जनजाति जिस प्रथा या व्यवस्था को मानते हैं, उसका सम्मान होना चाहिए.

नागालैंड के चाकेसंग नागा जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखने वाले डॉक्टर वेनुसा तिन्यी कहते हैं, आदिवासी प्रकृति के साथ खुद को ज्यादा जोड़ते हैं. इसके लिए वह अपने जनजातीय तय मान्यताओं के साथ एक-दूसरे के साथ रहना पसंद करते हैं. इसे किसी धर्म के साथ जोड़ना ठीक नहीं होगा.

बिल पास होने पर सीएम हेमंत सोरेन को गुलदस्ता भेंट करते विधानसभा अध्यक्ष रवींद्र महतो | फोटो- आनंद दत्ता

भारत सरकार ने आज तक आदिवासी शब्द को नहीं किया है स्वीकार

लेखक अश्विनी पंकज एक और बाधा की ओर इशारा करते हैं. कहते हैं आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की मांग को स्वीकार करना भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुद की गलती मानने जैसा होगा. क्योंकि भारत सरकार ने आज तक अंतरराष्ट्रीय फोरम पर आधिकारिक तौर पर आदिवासी शब्द को स्वीकारा नहीं है. उसे अनुसूचित जाति-जनजाति माना है. उसने लिखी किताब ‘शून्यकाल में आदिवासी’ के मुताबिक भारत सरकार के प्रतिनिधि ने संयुक्त राष्ट्र में बार-बार दोहराया है कि भारत की अनुसूचित जनजातियां संयुक्त राष्ट्र द्वारा परिभाषित आदिवासी या आदिवासी (इंडीजिनस) लोग नहीं हैं. बल्कि भारत के सभी लोग आदिवासी हैं.

एक तरफ विभिन्न जनजातियों के बीच का तालमेल, आरएसएस और वीएचपी का इसको लेकर चलाए जा रहे आंदोलन, इस पूरे मसले पर भारत सरकार का अब तक का आधिकारिक स्टैंड ….इन तीन बाधाओं को पार करने के बाद ही आदिवासियों के अलग धर्म कोड की मांग पूरी हो सकती है. हालांकि हेमंत सोरेन ने इस मांग को एक नई दिशा दी है. अगर राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी समाज को वह इस मसले पर गोलबंद करने में सफल होते हैं, तो शायद खुद को इस समाज के नेता के रूप में भी स्थापित कर सकें.

(आनंद झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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