श्रीनगर: श्रीनगर के शम्सवाड़ी इलाक़े में जब भी कोई रिश्तेदार या पड़ोसी मिर्ज़ा परिवार के घर में दाख़िल होता है, तो मिर्ज़ा निसार हुसैन को उन सवालों और चिंताओं की फिक्र सताने लगती है, जो मेहमान उनसे ज़ाहिर करेंगे- उनके भविष्य की योजना शादी और कोई स्थायी नौकरी.
शुरू में निसार अपने मेहमानों को गोल मोल जवाब दे देते थे. लेकिन अब, 40 वर्ष के निसार बातचीत छोड़कर, अपने कमरे में चले जाते हैं और अपने मेहमानों के चले जाने का इंतज़ार करते हैं.
14 महीने से ज़्यादा हो गए हैं, जब निसार को 23 साल के एक ग़लत कारावास के बाद रिहा किया गया- उन पर भारत के कई शहरों में धमाकों में शामिल होने का इल्ज़ाम था. बरी होने के बाद, वो 24 जुलाई 2019 को घर आ गए. इस उम्मीद में कि ज़िंदगी फिर से शुरू करेंगे. लेकिन रिहाई को दो हफ्ते भी पूरे नहीं हुए कि निसार को लगने लगा कि तक़दीर में उनके लिए कुछ और ही लिखा था.
पिछले साल 5 अगस्त को, नरेंद्र मोदी सरकार ने भारतीय संविधान की धारा 370 को रद्द कर दिया, जिसमें जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा हासिल था. नागरिक आंदोलन पर भारी अंकुश लगाने के साथ ही, संचार व्यवस्था भी पूरी तरह बंद कर दी गई. ये पाबंदियां आख़िरकार हटा ली गईं, लेकिन सरकारी फैसले के खिलाफ एक नागरिक कर्फ्यू, 2019 की सर्दियों तक चलता रहा. वसंत के आने के साथ ही, निसार की उम्मीदें फिर से जाग उठीं. लेकिन फिर कोविड-19 महामारी ने घेर लिया. बीमारी को रोकने के लिए घोषित लॉकडाउन ने, मिर्ज़ा परिवार को बुरी तरह प्रभावित किया, ख़ासकर निसार को, जिन्हें लगता है कि अब वो, एक अलर तरह की जेल में हैं.
विरसे में मिले अपने परिवार के दो कमरों में से, एक में बैठे हुए निसार ने कहा, ‘जब भी कोई मुझसे पूछता है, कि आगे के लिए मेरे क्या प्लान हैं, तो ऐसा लगता है जैसे किसी ने तीर मार दिया हो. मुझे नहीं पता कि मैं अपनी ज़िंदगी का क्या करूं. मुझे हर हालत में कोई काम चाहिए, लेकिन मेरी रिहाई के बाद से, ज़रा कश्मीर का हाल देखिए. जब मैंने सुना कि मुझे रिहा किया जा रहा है, तो लगा कि शायद मेरी ज़िंदगी मुझे वापस मिल जाएगी, लेकिन मेरी तक़दीर में शायद कुछ और ही था’.
वो कहते हैं, ‘जब मैं जेल में था तो मेरे जिस्म को, और मेरी रूह को तकलीफ थी. लेकिन हम ये कहकर ख़ुद को दिलासा देते थे, कि हम पर ज़ुल्म करने वाले, हमें क़ैद करने वाले, हमारे अपने नहीं थे. वो हमारे परिवार और दोस्त नहीं थे, जिनके आराम के लिए उन दिनों हम तरसते थे. अब मैं अपने परिवार और दोस्तों के साथ हूं, लेकिन फिर भी आराम नहीं है. मेरा जिस्म आज़ाद हो गया है, रूह नहीं हुई’.
निसार ने कहा,‘शादी के लिए मेरे पास कुछ रिश्ते आए, लेकिन जब उन्हें पता चला कि मेरे पास कोई काम नहीं है, तो उन्होंने उसे फिर आगे नहीं बढ़ाया. मैं उन्हें दोष नहीं देता; यहां पर जैसी अनिश्चितता है, उसे देखते हुए हर किसी को ऐसा आदमी चाहिए, जो सुरक्षा और स्थिरता मुहैया करा सके’.
काम के मोर्चे पर भी, पढ़ा लिखा न होने और लॉकडाउन की वजह से, काम ढूंढना नामुमकिन हो गया है, और इस फिक्र ने ज़िंदगी को और मुश्किल बना दिया है.
इस सब के बाद भी, जो चीज़ निसार के दिमाग़ पर सबसे ज़्यादा सवार है, वो है अपने अतीत और जेल की अपनी ज़िंदगी से निपटना.
चीज़ें बिखर गईं
निसार एक कारोबारी परिवार में पैदा हुए थे; उनके पिता कश्मीरी शालों का कारोबार करते थे, और उनकी मां घर संभालती थीं.
1990 के दशक की शुरूआत में उनके पिता की मौत के बाद, निसार के सबसे बड़े भाई मिर्ज़ा इफ्तिख़ार हुसैन ने, परिवार की सहायता के लिए पढ़ाई छोड़ दी. 1996 में, 16 साल की उम्र में निसार ने, जो भाईयों में सबसे छोटे थे, इफ्तिख़ार का हाथ बटाना शुरू कर दिया, जबकि चार दूसरे बहन भाई- तीन बहनें और एक भाई- घर पर रहकर पढ़ते थे.
निसार एक बिज़नेस पार्टनर से पैसा लेने के लिए नेपाल गए हुए थे, जब उन्हें 21 मई 1996 को नई दिल्ली के लाजपत नगर में हुए धमाके के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें 13 लोग हलाक और 39 ज़ख़्मी हुए थे. निसार ने बताया कि उन्हें हालांकि नेपाल से गिरफ्तार किया गया था, पुलिस ने मीडिया और आदालतों के सामने दावा किया, कि उन्हें मसूरी से पकड़ा गया था.
निसार कहते हैं, ‘उन्होंने मेरी गिरफ्तारी की तारीख़ भी, मुझे हिरासत में लेने के नौ दिन बाद की दिखाई थी. ये हिरासत ग़ैर-क़ानूनी थी. उन नौ दिनों में उन्होंने बेरहमी से मुझे टॉर्चर किया, और उसके बाद पहले मीडिया, और फिर कोर्ट के सामने पेश किया’.
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निसार पर उसके बाद एक और मुक़दमा लगा दिया गया, राजस्थान के समलेती में रोडवेज़ की एक बस में धमाका, जिसमें 14 लोग मारे गए थे. दोनों भाईयों पर विस्फोटकों का बंदोबस्त करने, और फिर दूसरे मुल्ज़िमों के साथ मिलकर, लाजपत नगर धमाके को अंजाम देने का इल्ज़ाम लगाया गया. इफ्तिख़ार को आख़िरकार 2010 में, लाजपत नगर मामले से बरी किया गया, लेकिन निसार को आज़ाद होते होते 2019 आ गया.
निसार ने कहा, ‘एक के बाद एक झटका था, मेरा सबसे बड़ा डर तब सच हुआ, जब मुझे पता चला कि मेरे भाई इफ्तिख़ार पर भी, लाजपतनगर धमाका मामले में मुक़दमा क़ायम हो गया है’.
वो कहते हैं, ‘हम नौजवान थे और अभी कारोबार सीख रहे थे, लेकिन अपने परिवार के लिए बहुत मेहनत कर रहे थे. लेकिन जब मैंने अपने भाई को हिरासत में देखा, तो उन्होंने बताया कि सब कुछ ख़त्म हो गया है. मैं बस पूछताछ के अंधेरे कमरों में उनके गले लगा, और दिल भरकर रोया’.
इफ्तिख़ार दिप्रिंट को बताते हैं: ‘हमें लगा कि सब कुछ ख़त्म हो गया, लेकिन फिर हमारी मां हमसे मिलने आई, जिसने उस सफर ख़र्च के लिए अपने कुछ गहने बेंच दिए थे. हमारा भाई ज़फ़र (इफ्तिख़ार से छोटा, लेकिन निसार से बड़ा) भी मिलने आया; उसने उसी वक़्त टीचर की एक नौकरी शुरू की थी, और बहुत कम पैसा कमा रहा था, इसलिए मैंने उससे कहा कि उसे आने की ज़रूरत नहीं है. मैंने कहा कि अगर अल्लाह हमारे साथ है, तो हमारी गुज़र हो जाएगी. वो एक बहुत मुश्किल विदाई थी’.
निसार ने बताया कि ज़फ़र ने एक बार, उन्हें एक डायरी में 500 रुपए का नोट छिपाकर दिया था, जो उन्होंने पिछले दौरे पर निसार को दी थी. ‘उस नोट को देखकर मुझे बहुत रोना आया था. मैंने कई महीने इंतज़ार करने के बाद उसे ख़र्च किया. जब भी मैं उसे ख़र्च करने की सोचता था, तो एक ख़याल मेरे दिमाग़ पर छा जाता था- हो सकता है मेरे परिवार को इन 500 रुपयों की ज़रूरत हो?’
लंबी अदालती कार्यवाही
अगले 14 सालों तक निसार, दिल्ली और राजस्थान की जेलों के बीच शटल करते रहे. मिर्ज़ा भाईयों की वकील, मशहूर एडवोकेट कामिनी जायसवाल ने कहा, इनके मुक़दमे ‘बिना सबूत के केस’ थे.
जायसवाल ने फोन पर कहा, ‘ये हमारी न्याय व्यवस्था की पूरी तरह नाकामी थी. मैं तो याद भी नहीं करना चाहती कि हुआ क्या था. वो मुक़दमे बस ऐसे ही खिंचते रहे. कभी जज का तबादला हो जाता था, तो कभी गवाह हाज़िर नहीं होता था’.
वो आगे कहती हैं ‘एक ज़रा सा भी सबूत नहीं था, जो उन्हें धमाकों से जोड़ सकता था, इसलिए पुलिस ने उन पर बस साज़िश के इल्ज़ाम मढ़ दिए थे. वो घोर अन्याय के अलावा कुछ नहीं था’.
निसार कहते हैं कि दोनों मामलों में, 350 से अधिक गवाह थे, जिनकी गवाहियां दर्ज होने में बरसों लग गए. जेल में बिताए गए सालों के मानसिक आघात को याद करते हुए, उन्होंने आगे कहा, ‘पुलिस ने तो गिरफ्तारी के वक़्त मेरी उम्र भी 19 साल लिखी थी, जबकि मैं सिर्फ 16 साल का था. बाद में हमने पैदाइश के सर्टिफिकेट दिखाए, लेकिन वो किसी काम के साबित नहीं हुए. दूसरे और भी बहुत से तरीक़े थे, जिनसे शुरूआती सालों में हमारा केस बेहतर ढंग से हैण्डल किया जा सकता था, जब कामिनी जी हमारी वकील नहीं थीं. लेकिन जब उन्होंने हमारा केस लिया, तब जाकर चीज़ों ने रफ्तार पकड़नी शुरू की’.
निसार राजस्थान की एक घटना भी बताते हैं, जहां उन्हें और दूसरे मुल्ज़िमों को ‘बंदगाठी’ कहे जाने वाले एक सेल में डाल दिया गया- जो दरअस्ल एक एकांत कक्ष था. वहां घुप अंधेरा था और उसके लोहे के दरवाज़े में सिर्फ एक सुराख़ था. वो कहते हैं, ‘हम तीन महीने तक नहीं नहाए. हमारे न सिर्फ बालों में, बल्कि भौंहों और डाढ़ी तक में जुएं हो गईं. एक बार मेरी फैमिली मिलने के लिए आई, लेकिन उन्हें इजाज़त नहीं मिली’.
दिल्ली की तिहाड़ जेल में निसार का समय राजस्थान से थोड़ा बेहतर रहा, लेकिन वो भी शांत नहीं था.
वो कहते हैं, ‘मुझे याद है जब मुझे पहली बार तिहाड़ भेजा गया…पहली रात मैं गर्मी की वजह से सो ही नहीं सका, जिसकी कश्मीरियों को आदत नहीं होती. इसलिए अगले दिन एक और मुल्ज़िम लतीफ़ और मैं, एक पेड़ के नीचे बैठ गए, और हमने बैरक में जाने से इनकार कर दिया’.
वो याद करते हैं ‘जेल नंबर 4 में एक बैरक की क्षमता 75 थी, लेकिन उसमें 150-180 लोग बंद थे. जब हमने बैरक्स के अंदर जाने से मना कर दिया, तो हमें जेल इंचार्ज सुभाष शर्मा के पास भेजा गया. वो आदमी इतना सख़्त था कि इराक़ के सद्दाम हुसैन के नाम पर, उसे सद्दाम कहा जाता था’.
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निसार और धमाका मामलों के दूसरे दो आरोपियों को, तब कसूरी वॉर्ड भेज दिया गया, जो जेल नियम तोड़ने वाले क़ैदियों के लिए था.
वो कहते हैं, ‘हमें बताया गया कि उस वॉर्ड में ख़ूंख़ार अपराधी रखे जाते हैं, लेकिन वहां सिर्फ 15 क़ैदी थे, और वो वॉर्ड कहीं ज़्यादा ठंडा था. कुछ दिन के बाद, कसूरी वॉर्ड के क़ैदी हमसे लड़ पड़े, क्योंकि वज़ू करने के लिए, हमने एक बाल्टी इस्तेमाल कर ली थी. हम तीन कम से कम 10-12 क़ैदियों से लड़े; हम ज़ख़्मी हुए लेकिन हमने उनका सामना किया. हम बच्चे थे लेकिन हम जानते थे, कि हमें उनका मुक़ाबला करना था’.
वो याद करते हैं,‘गार्ड्स बीच में आ गए और उन्होंने ‘सद्दाम’ को बुला लिया, जिन्होंने हमें अलग किया. बाद में दो बार और लड़ाईयां हुईं, जिसके बाद कसूरी के मूल क़ैदियों ने ‘सद्दाम’ से कहा, कि हमें किसी दूसरी बैरक में भेज दें. उन्होंने हमसे पूछा कि क्या हम जाना चाहते हैं, लेकिन हमने कहा नहीं, इसपर वो हंस पड़े और उन क़ैदियों से पूछा, कि वो हम किशोरों से कैसे डरते हैं’.
उन्होंने आगे कहा कि उन दूसरे क़ैदियों को वहां से हटा दिया गया, और ये बात पूरी जेल में फैल गई. उस समय जेल में बहुत से नौजवान कश्मीरी थे, जिनसे क़ैदियों के जांघिए धुलवाए जाते थे, लेकिन इस घटना के बाद, दूसरे क़ैदियों ने उन्हें ज़्यादा परेशान नहीं किया.
निसार कहते हैं,‘रहने के लिए जेल एक सख़्त जगह होती है. वहां रहकर कोई सुधरता नहीं है. हमें तेज़ी से बड़ा होना पड़ा, और हम हुए’.
सज़ाए मौत से बरी होने तक
दोनों भाईयों के 14 साल जेल में गुज़ार लेने के बाद, 2010 में निचली अदालत ने लाजपत नगर धमाका मामले में फैसला सुनाया. इफ्तिख़ार समेत पांच लोगों को बरी कर दिया गया, लेकिन छठे को उम्र क़ैद हुई, और निसार समेत बाक़ी तीन को सज़ाए मौत सुना दी गई.
इफ्तिख़ार कहते हैं, ‘2010 में रिहा होने के बाद, मेरी पहली प्राथमिकता ये हो गई, कि मुझे अपने भाई को छुड़ाना है. ये एक लंबी लड़ाई थी जिसका हम सब पर असर पड़ा’.
2012 में दिल्ली हाईकोर्ट ने निसार व अन्य को बरी कर दिया, लेकिन वो फिर भी जेल से बाहर नहीं आ सके, क्योंकि राजस्थान केस अभी चल रहा था. 2014 में ट्रायल कोर्ट ने निसार और अन्य को दोषी ठहरा दिया, और उन्हें उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई. इसके साथ ही राजस्थान हाईकोर्ट में पांच साल की लड़ाई की शुरूआत हुई, जिसने आख़िरकार 2019 में, उन्हें बरी कर दिया.
दोनों भाईयों को छुड़ाने के लिए परिवार को पैसा उधार लेना पड़ा, और इफ्तिख़ार, जिन्हें बस दो साल पहले ही एक नौकरी मिली है, कहते हैं कि वो 15,000 रुपए महीना कमाते हैं, जिसका आधे से ज़्यादा उधार चुकाने में चला जाता है.
मिर्ज़ा परिवार की पड़ोसी अफ़रोज़ा बेगम ने कहा, कि एक भाई के बरी होने और दूसरे की सज़ाए मौत ने, परिवार का दिल तोड़ दिया था. अफ़रोज़ा पूछती हैं, ‘वो ख़ुशी नहीं मना सके. मनाते भी कैसे जब उनके एक बेटे को बेगुनाह बता दिया गया, और दूसरे को सज़ाए मौत सुना दी गई?’
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दोनों भाईयों ने बहुत तफ़सील से दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, मरहूम एसएआर गिलानी के बारे में बात की- जो संसद हमले के मामले में गिरफ्तार हुए और बाद में बरी हो गए- जिन्होंने अदालती लड़ाईयां लड़ने में परिवार की मदद की. निसार कहते हैं, ‘जेल से बाहर आने के लिए, मैं अल्लाह और एसएआर गिलानी साहब का शुक्रगुज़ार हूं. अगर वो ज़िंदा होते, तो हो सकता है कि हमारे लिए कुछ आसानियां हो जातीं’.
कश्मीर में वापसी
कश्मीर वापस आने के बाद, निसार अपने आसपास की किसी चीज़ को नहीं पहचान सके- सड़कें, उनका पड़ोस, उनके दोस्त और रिश्तेदार.
अपनी मां पाचा बानो को देखकर, उनकी आंखों में आंसू आ गए- बढ़ती उम्र और अपने बेटों की क़ैद के तनाव से, वो बिल्कुल मुर्झा गईं थीं.
परिवार का पेट भरने के लिए उन्हें छोटे-मोटे काम करने पड़े. बीच के बेटे ज़फ़र ने एक निजी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया, जहां उसे सिर्फ 500-700 रुपए महीना मिलते थे, जबकि सबसे बड़ी बहन निगहत ने सिलाई का काम शुरू कर दिया. लेकिन उस सबसे भी परिवार का मुश्किल से गुज़ारा होता था, और आज भी धारा 370 के बाद कर्फ्यू, और कोविड लॉकडाउन्स की वजह से, परिवार के लिए कोई राहत नहीं है.
लेकिन रोते हुए भी पाचा कहती हैं, कि अब सब कुछ ठीक है. वो कहती हैं, ‘सिर्फ अल्लाह जानता है या मैं, कि हमारे घर पर क्या गुज़री है. मेरे बेटे घर लौट आए हैं, लेकिन सबसे छोटे बेटे के पास काम नहीं है. वो दिन भर घर में बैठा, अपने भविष्य के बारे में सोचता रहता है’.
निसार के दिलासा देने के बीच वो आगे कहती हैं, ‘इन सालों में मेरी सेहत भी बहुत ख़राब हुई है. मैं दिन भर कुर्सी पर बैठी रहती हूं, और पता नहीं मेरे पास कितना वक़्त है. मैं बस ये चाहती हूं कि मेरे जाने से पहले, मेरे बेटे ठीक से काम पर लग जाएं. अब मैं बस यही चाहती हूं.
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