धर्म और सत्ता के गठजोड़ में सिर्फ भारत ही नहीं आगे है, पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में इस वक्त मौलवियों को आगे कर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और वहां के विपक्षी दल कुश्ती लड़ रहे हैं. पाकिस्तान में एक हफ्ते के अंतराल में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसने पाकिस्तान की राजनीति की दशा और दिशा बदल दी है. पाकिस्तान के प्रमुख अंग्रेजी अखबार द डॉन के मुताबिक प्रधानमंत्री इमरान खान ने 30 सितम्बर को देवबंदी विचारधारा के विवादास्पद मौलाना ताहिर अशरफी को अपना धार्मिक सलाहकार नियुक्त कर दिया.
एक और पाकिस्तानी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून के मुताबिक इसके ठीक चार दिन बाद पाकिस्तान के विपक्षी दलों ने एक वर्चुअल मीटिंग की और उसमें पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट (पीडीएम) का गठन किया. पीडीएम का मुखिया जमीयत उलमा-ए-इस्लाम के चीफ मौलाना फजलुर्रहमान को बना दिया गया. यह प्रस्ताव लंदन में रह रहे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने पेश किया और सभी दलों ने इसमें सहमति जताई. इस वर्चुअल बैठक में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बिलावल भुट्टो जरदारी, बीएनपी चीफ सरदार अख्तर मेंगल और मौलाना फज्ल शामिल हुए.
पाकिस्तान के इस राजनीतिक घटनाक्रम से साफ पता चल रहा है कि सरकार और विपक्ष दोनों ही ने धार्मिक नेताओं की आड़ लेकर अपने पासे फेंक दिए हैं. लेकिन इस घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान में बेचैनी है. जिनमें बरेलवी सुन्नी फिरका, सूफी फिरका, शिया मुसलमान, अहमदिया फिरका, हिन्दू प्रमुख हैं. ये सभी वहां धार्मिक अल्पसंख्यक हैं. इन्हें डर है कि पाकिस्तान में एक बार फिर मजहबी नफरत भड़क सकती है और इसकी कीमत पाकिस्तान के निर्दोष और गरीब तबके को चुकानी पड़ेगी. लेकिन इमरान खान सरकार अब मौलाना ताहिर अशरफी को प्रगतिशील मौलाना प्रोजेक्ट करने में जुटी है. फाइनैंशियल टाइम्स ने 2015 में पाकिस्तान मदरसों पर प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में मौलाना अशरफी पर कुछ रोशनी डाली है जिसमें उनकी मुलाकात कुख्यात ओसामा बिन लादेन से होने की बात कही गई है. 2013 तक मौलाना अशरफी लादेन के कसीदे पढ़ते हुए ट्वीट कर रहे थे.
इमरान खान ने जिन मौलाना ताहिर अशरफी को अपना धार्मिक सलाहकार नियुक्त किया है, दरअसल उनका अतीत काफी विवादास्पद है. भारत और अमेरिका में मोस्ट वॉन्टेड मौलाना अजहर मसूद और हाफिज सईद के साथ उनके रिश्ते जगजाहिर हैं. हाफिज सईद के साथ सार्वजनिक धार्मिक मंच साझा करते हुए उनके फोटो भी हैं. इसके अलावा पाकिस्तान में घोषित आतंकी संगठन लश्कर-ए-झंगवी, लश्कर-ए-सिपाहे सहाबा से भी ताहिर अशरफी के तार जुड़े रहे हैं. फाइनैंशियल टाइम्स को दिए गए इंटरव्यू में मौलाना अशरफी ने बताया कि जब वह 11 साल के थे तो उन्होंने कलाशनिकोव राइफल थाम ली थी. उसी उम्र में 1980 में वह अफगानिस्तान से तत्कालीन सोवियत संघ को भगाने के लिए जेहाद करने गए थे. वहां अशरफी की मुलाकात लादेन से हुई थी.
वहां एक अमेरिकी कर्नल माइकेल ने अशरफी को रॉकेट लॉन्चर और अन्य हथियार चलाना सिखाया. यानी जब तालिबान वहां सोवियत संघ से लड़ रहा था, उस समय तालिबान, अलकायदा को अमेरिकी सेना के कुछ प्रशिक्षित अधिकारी ट्रेनिंग दे रहे थे. फाइनैंशियल टाइम्स ने मौलाना अशरफी के हवाले से पाकिस्तान में वहाबी विचारधारा के मदरसों के विस्तार पर भी काफी कुछ बयान किया है.
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दरअसल, मौलाना ताहिर अशरफी का आल-ए-सऊद खानदान यानी सऊदी अरब सरकार के बीच गठबंधन और मौलाना की रियाध की आये दिन की यात्राओं की वजह से इमरान खान ने मौलाना को अपना धार्मिक सलाहकार बनाया है. सऊदी अरब को अब इमरान खान से कुछ भी कहना होता है तो वह मौलाना अशरफी के जरिए कहलावाता है. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में कहा गया कि हाल ही में मौलाना अशरफी सऊदी अरब की यात्रा पर थे. आल-ए-सऊद ने उनके जरिए पाकिस्तान को तुर्की से ज्यादा पींगें ना बढ़ाने की हिदायत दी. मौलाना से सऊदी अरब हुकुमत ने कहा कि अगर पाकिस्तान का झुकाव तुर्की की तरफ गया तो पाकिस्तानी मदरसों को फंडिंग रोक दी जाएगी.
सऊदी अरब की फंडिंग मदरसों के नाम पर दरअसल उन संगठनों को पहुंचती है जो इन मदरसों के अलावा आतंकी ग्रुप चलाते हैं. लश्कर-ए-झंगवी और सिपाह-ए-सहाबा आतंकी संगठनों पर जब पाकिस्तान सरकार ने प्रतिबंध लगाया तो ये लोग लश्कर-ए-तैबा के नाम से आ गए. जब लश्कर-ए-तैबा पर अंतरराष्ट्रीय आतंकी संगठन के रूप में रोक लगी. फिर लश्कर जमात-उद-दावा के नाम से सामने आ गया. सऊदी अरब का पाकिस्तान की इस्लामिक राजनीति से निकल पाना मुश्किल है.
पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने अभी जब मुस्लिम देशों को विभिन्न मुद्दों पर ललकारा तो इन देशों का चौधरी बनने की कोशिश कर रहे सऊदी अरब के कान खड़े हो गए और एक इस्राइली थिंक टैंक ने सितम्बर में प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में कहा कि सऊदी प्रिंस ने फौरन मौलाना ताहिर अशरफी और उनके परिवार के लिए अपना एक प्लेन मक्का लाने के लिए भेजा. इसके जरिए पाकिस्तान में यह संदेश गया कि मौलाना अशरफी कितने पावरफुल हैं कि उनके लिए सऊदी अरब से राजघराने का प्लेन आता है.
मौलाना अशरफी जब सऊदी किंग की मेहमानवाजी का लुत्फ लेकर लौटे तो उन्होंने पाकिस्तान में कहा कि अगर पाकिस्तान हुकूमत ने सऊदी अरब से रिश्ते नहीं सुधारे तो सऊदी अरब हमारे मदरसों की फंडिंग बंद कर सकता है. इस बयान के गहरे अर्थ हैं. उसके बाद इमरान खान ने मौलाना अशरफी को अपना सलाहकार बना दिया और अब स्थिति ये है कि पूरी इमरान खान सरकार पर यह ठप्पा लग गया है कि वो देवबंदी विचारधारा के प्रभाव में ठीक उसी तरह आ गई है, जिस तरह कभी पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक आ गए थे. पाकिस्तान में कहा जा रहा है कि मौलाना अशरफी और उनकी देवबंदी विचारधारा के पोषक सऊदी अरब से गठबंधन और आगे सऊदी अरब का हाल ही में इस्राइल से गठजोड़ पाकिस्तान में नई मुसीबत लाने वाला है.
अपने-अपने हितों के लिए सऊदी अरब और इमरान खान ने मौलाना अशरफी का चयन बहुत सावधानी से किया है. स्क्रिब्ड डॉट कॉम ने एक दस्तावेज साझा करते हुए लिखा है कि मौलाना ताहिर अशरफी किसी भी राजनीतिक दल में नहीं हैं लेकिन उनके संबंध सभी कट्टरपंथी इस्लामिस्ट (इस्लामिक नहीं) संगठनों को संरक्षण देने वाली पार्टियों और नेताओं से हैं. मौलाना के संबंध दिफा-ए-पाकिस्तान (पाकिस्तान डिफेंस काउंसिल) से भी हैं. जिसका पाकिस्तान की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान है.
मौलाना फजलुर्रहमान भी कम नहीं
पाकिस्तान के विपक्षी दलों ने मौलाना ताहिर अशरफी के मुकाबले जिन मौलाना फजलुर्रहमान को उतारा है, वो भी अशरफी के मुकाबले कमतर नहीं हैं. दरअसल, मौलाना फजलुर्रहमान पाकिस्तानी मुसलमानों में काफी लोकप्रिय हैं. पिछले अक्टूबर में ही उन्होंने जब इमरान खान सरकार के खिलाफ आजादी मार्च का आयोजन किया था तो खूबसूरत इस्लामाबाद की सारी सड़कें पाकिस्तान के ग्रामीण इलाके के मुसलमानों से भर गई थीं. पाकिस्तान में अभी तक आजादी मार्च को सबसे बड़ा राजनीतिक मार्च माना गया है. लेकिन इमरान खान कैबिनेट के विज्ञान मंत्री चौधरी फव्वाद हुसैन मौलाना फजलुर्रहमान को तालिबान समर्थक बता रहे हैं. उन्होंने इस संबंध में ट्वीट भी किया है.
Sad Day for Pakistan An extremist Mullah considered Close to terrorist groups of Afghanistan is selected to lead opposition movement against Government,unlike India where extremists are in Govt people of Pak never allowed extremists to lead or mainstream politics,
— Ch Fawad Hussain (@fawadchaudhry) October 3, 2020
मौलाना फजलुर्रहमान को पाकिस्तान में मौलाना डीजल भी कहा जाता है. मौलाना ने कभी इमरान खान का समर्थन किया था. 2014 में जब इमरान खान ने बतौर नेता विपक्ष एक बड़ी रैली का आयोजन तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के खिलाफ किया था तो उस वक्त मौलाना ने इमरान की रैली का समर्थन करते हुए उन्हें पाकिस्तान का भावी प्रधानमंत्री बताया था लेकिन पांच साल में हालात बदल गए. अक्टूबर 2019 में इन्हीं मौलाना फजलुर्रहमान ने इमरान सरकार को कुर्सी से उतारने का आह्वान करते हुए आजादी मार्च निकाला था.
यह मार्च 27 अक्टूबर 2019 को शुरू हुआ था और 13 नवंबर 2019 को इस्लामाबाद में खत्म हुआ था. इस आजादी मार्च से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को पसीने आ गए थे. इस प्रदर्शन के बाद मौलाना फजलुर्रहमान की राजनीतिक ताकत बढ़ी और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने उनका समर्थन लेना शुरू किया. इसीलिए नवाज शरीफ ने उन्हें विपक्ष के संयुक्त गठबंधन का नेता पद भी सौंप दिया. भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे नवाज़ शरीफ तो लंदन में रह रहे हैं, बिलावल भुट्टो जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की पकड़ कमजोर पड़ चुकी है. ऐसे में इमरान के खिलाफ मौलाना से बेहतर विपक्ष पाकिस्तान के विपक्षी दलों को कहां से मिलता.
इस तरह दो मौलाना पाकिस्तान की राजनीति में अपनी भूमिका अदा करने के लिए आमने-सामने आ गए हैं.
(यूसुफ किरमानी वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. ये उनके निजी विचार है.)