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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार को भारतीयों के लिए COVID वैक्सीन मुफ्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए, इसका खर्चा बस 80,000 करोड़ रुपये है

मोदी सरकार को भारतीयों के लिए COVID वैक्सीन मुफ्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए, इसका खर्चा बस 80,000 करोड़ रुपये है

सामान्य लोगों को लाखों करोड़ रुपयों से शायद ही वास्ता पड़ता होगा इसलिए वे इतनी बड़ी रकम के बारे में सुन कर घबरा सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक खर्चों के मामले में 80 हज़ार करोड़ कोई इतनी बड़ी रकम नहीं होती.

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अदर पूनावाला के ताज़ा ट्वीट ने वैक्सीन के मामले में भारत की रणनीति को लेकर चर्चाएं शुरू कर दी है. दुनिया में सर्वाधिक वैक्सीन का उत्पादन करने वालों में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ ने सवाल उठाया कि क्या ‘अगले एक साल में भारत सरकार के पास 80 हज़ार करोड़ रुपये उपलब्ध होंगे’ कि वह देश के हरेक नागरिक के लिए कोविड-19 का वैक्सीन खरीद सके और वितरित कर सके? मेरे साथियों का अनुमान है कि एक साल के अंदर 80 प्रतिशत भारतीयों को वैक्सीन लगाने पर 50 हज़ार करोड़ से लेकर ढाई लाख करोड़ रुपये तक खर्च हो सकते हैं.

सामान्य लोगों को लाखों करोड़ रुपयों से शायद ही वास्ता पड़ता होगा इसलिए वे इतनी बड़ी रकम के बारे में सुन कर घबरा सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक खर्चों के मामले में 80 हज़ार करोड़ कोई इतनी बड़ी रकम नहीं होती. भारत की मौजूदा जीडीपी का यह मात्र 0.4 प्रतिशत है, नरेंद्र मोदी सरकार ने इस साल नरेगा के लिए जो 1 लाख करोड़ की राशि आवंटित की है उससे तो यह रकम कम ही है. वैसे यह राशि बड़ी है मगर केंद्र सरकार में इसका प्रबंध करने की क्षमता है.

2008 में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम से मैंने जब यह पूछा था कि वे किसानों के कर्ज माफ करने के लिए जीडीपी के 1 प्रतिशत के बराबर राशि कैसे जुटा पाएंगे, तो उन्होंने इस सवाल को यूं ही झटक दिया था. बेशक वे उच्च आर्थिक वृद्धि वाले दिन थे, लेकिन आज की संकटग्रस्त स्थिति में भी मोदी सरकार के लिए कोविड-19 के वैक्सीन जैसे अहम मकसद की खातिर 80 हज़ार करोड़ रुपये जुटाना कोई मुश्किल नहीं होगा. उपलब्धता की कोई समस्या नहीं है.

लेकिन, क्या सरकार को हर एक के लिए वैक्सीन का खर्च उठाना जरूरी है? इस सवाल का साफ जवाब है— हां !

निवेश पर ज्यादा लाभ

सरकारी पैसे से चलने वाले टीकाकरण कार्यक्रम को दो कारणों से उचित ठहराया जा सकता है. एक तो वह जिसे अर्थशास्त्री लोग सकारात्मक बाहरी प्रभाव कहते हैं यानी इस तरह के कार्यक्रम से उस तीसरे पक्ष को लाभ होता है जो इसके लेन-देन या कारोबार से सीधे नहीं जुड़ा होता; दूसरा कारण है लागत के हिसाब से अधिक लाभ का. इसे इस तरह समझा जा सकता है- सामुदायिक रोग प्रतिरोध क्षमता (‘हर्ड इम्युनिटी’) विकसित करने से उन लोगों को भी लाभ होता है जिन्होंने टीका नहीं लगवाया है. लोग यह जानते हैं इसलिए वे यह सोचकर टीका नहीं लगवाते कि दूसरे तो लगवाएंगे ही. टीका जितना महंगा होगा, उससे बचने की उतनी ही कोशिश की उतनी ही कोशिश की जाएगी.

अर्थशास्त्र की भाषा में इसे हम इस तरह कहते हैं कि बाज़ार नाकाम रहा है क्योंकि टीके के लिए निजी स्तर पर मांग समाज में इसकी अधिकतम मांग से कम है. इसका परिणाम यह हो सकता है कि बहुत कम लोग टीका लगवाएंगे जिससे ‘हर्ड इम्युनिटी’ नहीं विकसित होगी और महामारी लंबी खिंचेगी. टीके की कीमत पर सबसीडी देने से ज्यादा लोग टीका लगवाएंगे लेकिन उस पर पूरी सबसीडी देने यानी उसे सबको मुफ्त में उपलब्ध कराने से भारत जल्दी ‘हर्ड इम्युनिटी’ हासिल कर सकता है. सार्वजनिक स्वास्थ्य का लक्ष्य अपने आप में काफी है कि सरकारी पैसे से सबका टीकाकरण कार्यक्रम चलाया जाए. वास्तव में, भारत दूसरे रोगों के लिए इस तरह का कार्यक्रम पहले से चला रहा है. इस तरह के कार्यक्रम के तहत नवजात शिशुओं और बच्चों को करीब एक दर्जन रोगों के लिए मुफ्त में टीके उपलब्ध कराए जा रहे हैं. कोविड-19 के मामले में भी ऐसा किया जा सकता है.

लागत-लाभ के अनुपात का सरल हिसाब कहता है कि टीकाकरण कार्यक्रम पर निवेश से सरकार को ऊंचा लाभ मिलता है. हम कोरोना वायरस से ‘हर्ड इम्युनिटी’ जितनी जल्दी हासिल करेंगे, आर्थिक वृद्धि में तेजी उतनी जल्दी ही आ सकती है. भारत की मौजूदा जीडीपी करीब 200 लाख करोड़ रुपये के बराबर है और कुल टैक्स-जीडीपी अनुपात करीब 15 प्रतिशत है. केंद्र और राज्य सरकारें टैक्स से करीब 30 लाख करोड़ कमाती हैं. यानी प्रत्येक 1 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि पर सरकार को टैक्स से 30,000 करोड़ की आमदनी होती है. वृद्धि घटेगी, तो सरकार की आमदनी भी घटेगी. दूसरे शब्दों में, अगर हम सरकार के लिए निवेश पर वित्तीय लाभ (आरओआइ) का संकुचित अर्थ भी लगाएं, तो राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम अगर आर्थिक वृद्धि में 2 प्रतिशत-अंक की भी वृद्धि करता है तो यह एक-दो साल में ही अपना खर्च निकाल लेगा. अगर हम इसका व्यापक अर्थ लगाएं, जो कि ज्यादा उपयुक्त होगा, तो इसका अर्थ यह होगा कि करोड़ों लोगों का जीवन बेहतर बनेगा और महामारी से जीवन रक्षा की संभावनाएं भी बढ़ेंगी.


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कोई एकाधिकार नहीं

इसलिए मोदी सरकार सरकार सबको मुफ्त में टीका उपलब्ध कराए, इसका औचित्य और ज्यादा नज़र आता है. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि सरकार इसके वितरण पर एकाधिकार जमा ले. जो लोग टीके के लिए खर्च करना चाहें वे निजी क्लीनिकों आदि में टीका लगवा सकते हैं. जो लोग अलग टीका चाहते हैं या ज्यादा इंतजार नहीं करना चाहते, वे बाज़ार दर पर टीका खरीद सकते हैं.

टीका जैसे ही उपलब्ध होगा, दुनियाभर में तुरंत इसकी मांग बढ़ जाएगी, और इसकी कीमतें इस तरह बढ़ जाएंगी कि मांग के मुताबिक आपूर्ति नहीं हो पाएगी. भारत कम कीमत पर पर्याप्त टीके कैसे हासिल कर पाएगा? मोदी सरकार को कीमत नियंत्रण या घरेलू उत्पादकों के लिए कोटा लागू करने से बचना होगा क्योंकि इससे टीकों का अभाव बढ़ेगा. बेहतर यह होगा कि कुछ उत्पादकों को अग्रिम खरीद का वादा कर दिया जाए ताकि वे उस मुताबिक अपनी उत्पादन क्षमता बनाएं और ‘सप्लाइ चेन’ भी तैयार करें.

अदर पूनावाला ने एक राष्ट्रीय प्राथमिकता को सार्वजनिक चर्चा में लाकर अच्छा ही किया है. जरूरत इस बात की है कि मोदी सरकार भारत में टीके का वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्द्धी उत्पादन करने वालों को आश्वस्त करे कि फंड की कोई समस्या नहीं होगी.

(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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