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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतहिंदू संगठनों में कोरोना महामारी के बीच काशी और मथुरा के 'विवादों' को हवा देने की बेसब्री क्यों है

हिंदू संगठनों में कोरोना महामारी के बीच काशी और मथुरा के ‘विवादों’ को हवा देने की बेसब्री क्यों है

जो लोग भी देश के बहुलवादी लोकतांत्रिक व संवैधानिक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहते हैं, इस बेहिस उम्मीद के सहारे बैठे रहकर गलती करेंगे कि एक दिन बहुसंख्यक समुदाय स्वयं ऐसे मुद्दों को बारंबार हवा देने की कोशिशों के खिलाफ खिलाफ उठ खड़ा होगा.

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लंबे अरसे तक नासूर बने रहे अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के न्यायिक पटाक्षेप को अभी साल भर भी नहीं हुआ है लेकिन लगता है कि उन शक्तियों के गलत सिद्ध होने के दिन आ गये हैं, जो कहती थीं कि जैसे भी सही, यह विवाद निपट जाए तो देश की राजनीति धार्मिक व साम्प्रदायिक आस्थाओं व दुरभिसंधियों से जुड़े मुद्दों की अंधेरी गुफाओं से बाहर निकलकर उसके व्यापक जनसमुदाय के भविष्य से जुड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित हो जायेगी.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने ऐतिहासिक फैसले में ‘वहीं’ राम मंदिर निर्माण चाहने वाली जमातों को उनका अभीष्ट दे दिया गया तो इन शक्तियों का यह भोला ‘विश्वास’ और गहरा हुआ था कि ये जमातें इस विवाद की उस भारी कीमत से सबक लेंगी, जो देश को पिछले कई दशकों में चुकानी पड़ी है. साथ ही, वे ‘इतिहास की तथाकथित विसंगतियों को सुधारने के अभियानों’ की मार्फत अकारण उसके अमन-चैन से दुश्मनी साधने की अपनी आदत भी छोड़ देंगी.

लेकिन इन जमातों को उन शक्तियों की भोली उम्मीदों और विश्वासों को गलत सिद्ध करने की आतुरता में इतना भी सब्र नहीं हो रहा कि वे कम से कम कोरोनाकाल के खात्मे तक यह संकेत न दें कि अयोध्या विवाद के फैसले को किसी पक्ष की हार या जीत के तौर पर न देखने का उनका उपदेश दूसरों के लिए ही था और उनके उससे उत्साहित समर्थक यह सिद्ध करने को पूरी तरह आजाद हैं कि अतीत में उन्होंने देश के लोकतंत्र और संविधान से खिलवाड़ के क्रम में अयोध्या में जो कुछ भी किया, वह सचमुच उनके कारनामों की झांकी भर ही था और ‘काशी व मथुरा अभी भी बाकी हैं’.

उन्हें इस बात से भी कोई फर्क पड़ता नहीं दिख रहा कि देश की संसद ने इसी अंदेशे के मद्देनज़र अयोध्या विवाद को नियम बनने से रोकने के लिए कानून बना रखा है कि किसी भी धर्म या पूजास्थल की 15 अगस्त 1947 की स्थिति में परिवर्तन नहीं किया जा सकता. अपने कुटिल मंसूबों की पूर्ति के अविवेकी उपक्रमों में वे यह भी नहीं सोच पा रहीं कि देश के अनंतकाल तक धार्मिक-साम्प्रदायिक विवादों में फंसे रहना नियति से साक्षात्कार के उसके उन संकल्पों पर बहुत भारी पड़ सकता है जो उसने 14-15 अगस्त 1947 की रात आजादी के सूर्यादय से ऐन पहले लिये थे.

पाठकों को याद होगा, अयोध्या में ‘सफल मनोरथ’ होने के बाद से ही इन जमातों के शुभचिन्तकों ने ‘काशी विवाद’ को नये सिरे से उद्गारना आरंभ कर रखा है और अब वे मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान परिसर के पास स्थित मस्जिद को वहां से हटाने की मांग कर और कह रहे हैं कि कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान एवं शाही ईदगाह प्रबंध समिति के बीच पांच दशक पुराने समझौते को निरस्त कर मस्जिद की पूरी जमीन मंदिर ट्रस्ट को सौंप दी जाए.

उनकी इस ‘याचना’ को ठीक से समझने के लिए जानना जरूरी है कि अयोध्या विवाद की शुरुआत भी एक समय इसी तरह स्थानीय स्तर पर ही हुई थी. उसे समय रहते तार्किक परिणति तक पहुंचा दिया गया होता तो इस कदर नासूर नहीं बन पाता. साफ है कि काशी और मथुरा में इन जमातों की कवायदों को छोटी या स्थानीय मानकर उपेक्षा की गई और उनके पीछे के मंसूबों का ससमय प्रतिरोध नहीं किया गया तो वे किस हद तक गुजर जायेंगी, कहना मुश्किल है. इसलिए भी कि फिलहाल केंद्र व उत्तर प्रदेश दोनों में उनकी सरपरस्त सरकारें हैं, जिनका इतिहास सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय एकता परिषद तक से ‘दगा’ करने का रहा है.


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प्रसंगवश, काशी में विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद स्थित है, जिसे कुछ लोग अकबर के शासनकाल में तो कुछ अन्य औरंगजेब के राज में निर्मित बताते हैं. इसी तरह मथुरा का शाही ईदगाह, कृष्ण जन्मभूमि के नजदीक बना हुआ है.

हिन्दू ‘सम्प्रदायवादी’ मानते हैं कि अयोध्या में राम जन्मभूमि की ही तरह बाबा विश्वनाथ यानी भगवान शंकर व कृष्ण में उनकी आस्था के इन दो केंद्रों को मुक्त कराना भी आवश्यक है. और हां, वे तभी उन्हें मुक्त मानेंगे, जब उनके निकट से ज्ञानवापी मस्जिद और ईदगाह हट जायें. यों, उनके द्वारा यह भी प्रचारित किया जाता है कि दिल्ली व अहमदाबाद की जामा मस्जिदें भी हिन्दुओं के पूजास्थलों को तोड़कर ही बनाई गईं हैं.

वे जानते हैं कि इनकी आड़ में उनकी स्वार्थ या कि सत्ता साधना तभी तक सफल हो सकती है, जब तक देशवासी इतिहास के इस सच से वंचित रहें कि अतीत में धर्मस्थलों के, वे किसी भी धर्म के क्यों न हों, तोड़े जाने का प्रमुख आधार साम्प्रदायिक या धार्मिक वैमनस्य न होकर राजे-महाराजाओं, सम्राटों व बादशाहों वगैरह के बीच अपनी सत्ता का सिक्का जमाने और संपत्ति हड़पने की प्रतिद्वंदिता हुआ करती थी. अन्यथा कई बार वे धर्मस्थलों को जागीरें और भूमि वगैरह दान भी दिया करते थे. जिस औरंगजेब को मुगल सम्राटों में सबसे कट्टर माना जाता है, उसने भी गुवाहाटी के कामाख्या देवी मंदिर, उज्जैन के महाकाल और वृंदावन के कृष्ण मंदिर को बड़े-बड़े दान दिये थे. बनारस के कई मंदिरों पर भी उसकी कृपा बरसती थी. इसके विपरीत गोलकुंडा के शुकराना न देने वाले शासक को सबक सिखाने के लिए उसने वहां की एक मस्जिद को ध्वस्त करवा डाला था.

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक राम पुनियानी ऐसे कई उदाहरण देते हुए बताते हैं कि ग्यारहवीं सदी में कश्मीर के राजा हर्षदेव ने एक अधिकारी की नियुक्ति कर उसको ऐसी मूर्तियों पर कब्जा करने का आदेश दिया था, जिनमें हीरे-मोती और कीमती पत्थर जड़े हों. कई बार विजयी राजा हिन्दू होने के बावजूद पराजित राजाओें के कुलदेवताओं के मंदिरों को ध्वस्त कर वहां अपने कुलदेवता के मंदिर बनवा देते थे. श्रीरंगपट्टनम में एक युद्ध में मराठा फौजों ने हिन्दू मंदिरों को तोड़ा तो टीपू सुलतान ने उनकी मरम्मत करवाई थी. हमारे इतिहास में हुए बौद्ध-हिन्दू टकरावों में सैकड़ों बौद्ध विहारों के तोड़े जाने की मिसालें भी हैं. एक समय हिन्दू अतिवादियों ने बौद्ध धर्मानुयायियों पर अनेक क्रूर अत्याचार किए और अनेक हिन्दू शासकों को इस पर गर्व था.

सवाल है कि इस पृष्ठभूमि में यह देखकर कि साम्प्रदायिक शक्तियां कोरोना की कठिन घड़ी में भी काशी और मथुरा के कथित विवादों को लेकर बेसब्र हो उठी हैं, हमारा आगे का रास्ता या कर्तव्य क्या होना चाहिए? खासकर, जब देश और समाज में फैले साम्प्रदायिक व धार्मिक उद्वेलनों का लाभ उठाकर सत्ता तक पहुंची देश की सरकार ही हमारे समावेशी लोकतंत्र व सामाजिक सौमनस्य को शताब्दियों पीछे धकेलने व धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने पर आमादा है. तिस पर शातिराना ऐसा है कि अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ‘काशी व मथुरा’ को मुक्त कराने के अपने अभियान में इस सरकार के पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों की सहायता लेने की बात कहती है तो चालाक संघ अपनी प्रतिक्रिया में कहता है कि इस समय इन मुद्दों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है.

क्या इसका अर्थ यह नहीं कि ‘इस समय’ के बाद वह इनमें रुचि लेना शुरू कर सकता और ज्यों ही अखाड़ा परिषद का अभियान जोर पकड़े, उससे जुड़ सकता है? वैसे भी उसने कब कहा कि सांस्कृतिक संगठन के चोले में उसके द्वारा की जा रही राजनीति हमारे बहुलवादी लोकतांत्रिक संस्कारों के विपरीत नहीं है?

साफ है कि जो लोग भी देश के बहुलवादी लोकतांत्रिक व संवैधानिक स्वरूप को सुरक्षित रखना चाहते हैं, इस बेहिस उम्मीद के सहारे बैठे रहकर गलती करेंगे कि एक दिन बहुसंख्यक समुदाय स्वयं ऐसे मुद्दों को बारंबार हवा देने की कोशिशों के खिलाफ खिलाफ उठ खड़ा होगा. उन्हें बाबा साहेब डॉ. भीमराव आम्बेडकर के इस कथन को याद करते हुए भारत के अपने विचार को लेकर इस समुदाय के पास जाना और उसके विवेक को जगाना होगा कि कोई भी विचार यों ही नहीं फलता-फूलता रहता. उसकी जड़ों में जरूरत भर खाद पानी डालना और साथ ही उसका संरक्षण करना होता है. हां, कई बार इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है.

(लेखक जनमोर्चा अखबार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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4 टिप्पणी

  1. क्या अपने अधिकारों की मांग को लेकर न्यायालय में जाना अपराध है यदि कोई इसी मांग को लेकर न्यायालय में जा रहे हैं तो आपको क्या परेशानी है काशी और मथुरा में जबरन बनी मस्जिद को उखाड़ने के लिए कोई भीड़ बुलाई जा रही हैं क्या ?
    राम जन्म भूमि विवाद को लेकर ही आपके प्रतिष्ठान ने इसी प्रकार की टिप्पणी करी थी और अंततः वह स्थान भगवान राम का ही पाया गया मैं हिंदू मुस्लिम विवाद कहीं नहीं है सिर्फ आप जैसे वामपंथियों के द्वारा पैदा किया गया विवाद है बेहतर है कि आप लोग तुष्टिकरण की राजनीति को छोड़कर मुस्लिम समुदाय को यह समझाएं कि काशी और मथुरा जैसे स्थान हिंदुओं के पवित्र स्थान है इसलिए वहां से बिना किसी लड़ाई झगड़े के वह लोग अपने निर्माण कार्य को हटा दें

  2. लेखक के अपने विचार पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह से युक्त एवं झूठे व्यक्तियों के असत्यापित कथनों पर आधारित हैं।

  3. अरे भाई दिल्ली के जामा मस्जिद,कुतुबमीनार परिसर के कूवत उल इस्लाम मस्जिद या ऐसे हज़ारो मन्दिरो को तोड कर विदेशी लूटेरों द्वारा बनाये गये मस्जिदो को हटाने की बात तो नही की जा रही है जो हिंदुओ के मुख्य मन्दिरो को तोडकर जबरन मस्जिद बनाये गये जगहो की बात हो रही है,वैसे भी इस से भारत के जबरन converted मुस्लिमो को जितनी परेशानी नही है उस से ज्यादा यहाँ के साम्यवादी तुष्टीकरण करने वालों को परेशानी है,वैसे भी भारत के मुसलमानो की ईद,बकरीद,मोहर्र्म तो सऊदी अरब decide करता है फिर भारत के मस्जिदों के लिये सब क्यूँ मरे जा रहे हैं।इन मस्जिदो को तो बहुत पहले ही हटा देना था अब court हटा रहा है तो क्यूँ परेशानी हो रही है।गंगा जमुनी तहजीब का ठेका हिंदुओ ने तो नही उठा रखा है,70 साल से राम जनम भूमि को तो इन converted मुस्लिमो ने तो छोड़ा नही।अब court का फैसला आया तो त्याग दिखने लगा,इन साम्यवादीयो को।पता नहीं किसका खून है इन साम्यवादीयो के शरीर मे,इनका अन्त कब होगा।

  4. कासी ओर मथुरा समेत सभी वो इमारत जो अवैद्य रूप कब्जा किया गए उन सभी की जाँच परीक्षण करने चाहिए भारत सरकार को

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