नरेंद्र मोदी सरकार मनरेगा या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तर्ज पर एक शहरी नौकरी गारंटी योजना पर काम कर रही है. वैसे तो भावी योजना पिछले साल से ही विचाराधीन है लेकिन माना जाता है कि कोवि़ड-19 से बने संकट ने इस पर आमसहमति बनाने में मदद की है. सरकार को उम्मीद है कि कतिपय शहरों में बेरोजगार शहरी श्रमिकों को 100 दिनों के सुनिश्चित रोजगार की गारंटी देने वाली 35,000 करोड़ रुपये की योजना रोजगार देने के अलावा सरकारी व्यय को भी बढ़ावा देगी. देखने में योजना आकर्षक नज़र आती है और वास्तव में कई अर्थशास्त्रियों और एक्टिवस्ट ने इसका समर्थन किया है. हालांकि, शहरी मनरेगा को आलोचनात्मक दृष्टि से आंकने की ज़रूरत है.
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रोजगार, व्यय और 5 अरब डॉलर की योजना
कोई भी सरकार की मंशा को गलत नहीं कह सकता है. भारत को निश्चय ही शहरों में रोजगार के बेहतर अवसर पैदा करने की आवश्यकता है क्योंकि आधुनिकीकरण के ये केंद्र गांवों के मुकाबले उत्पादकता की दृष्टि से बहुत आगे है. सख्त लॉकडाउन के कारण वित्तीय वर्ष 2021 की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था को एक भयावह झटका लगा है लेकिन वास्तव में जीडीपी में पूर्व की नौ तिमाहियों से गिरावट जारी थी.
इस लगातार गिरावट के लिए निश्चय ही उपभोक्ता मांग में कमी को दोष दिया जा सकता है इसलिए नार्थ ब्लॉक पर सरकारी खर्च बढ़ाने का अत्यधिक दबाव है. और हमारे छोटे शहरों की स्थिति को देखते हुए बुनियादी ढांचे के विकास पर व्यय को भला कौन बुरा विचार कहेगा?
इसमें भी राजनीति
फिर भी हम सावधानी बरते जाने पर ज़ोर देंगे. शहरी रोजगार गारंटी के विचार के बड़े समर्थक अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का अनुमान है कि भारत के सभी छोटे शहरों के प्रत्येक वयस्क निवासी को 100 दिन के रोजगार की गारंटी देने के लिए 4,50,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं- लगभग उतनी ही बड़ी रकम जितना हमने गत वर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा में लगाया था. वैसे अभी मोदी सरकार इस राशि के दसवें हिस्से से भी कम पर विचार कर रही है. लेकिन एक ऑन-डिमांड रोजगार योजना का बिल आगे चलकर तेजी से बढ़ सकता है क्योंकि चुनाव को ध्यान में रखने वाली कोई भी सरकार योजना के विस्तार से बचकर अपनी राजनीतिक पूंजी गंवाने का खतरा नहीं उठाना चाहेगी.
हालांकि सिर्फ मांग पैदा करने की दृष्टि से देखें तो एक चिरस्थायी प्रकृति की योजना शुरू करना जिसकी लागत बढ़ते जाने की संभावना हो, निश्चय ही एक बुरा विचार है क्योंकि ये काम एक अल्पकालिक और तात्कालिक राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के सहारे कहीं बेहतर तरीके से किया जा सकता है और घरेलू मांग बढ़ने की स्थिति में ऐसे पैकेज को शीघ्रता से वापस भी लिया जा सकता है. साथ ही दूसरे विकल्प में ऋण, घाटे और मुद्रास्फीति सबको काबू में रखा जा सकता है.
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मेक इन इंडिया का सवाल
एक अन्य अहम सवाल मजदूरी और प्रकारांत में निजी क्षेत्र की गतिविधियों पर इस योजना के प्रभाव को लेकर है. कई राज्यों ने शहरी रोजगार गारंटी योजना शुरू की (नवीनतम झारखंड) है लेकिन उनके प्रभाव के बारे में हमारे पास बहुत कम सबूत हैं. इसके विपरीत मनरेगा पर बड़े पैमाने पर शोध हो जा चुका है और इससे संबंधित एक महत्वपूर्ण अध्ययन में पाया गया है कि इस योजना से मज़दूरी में 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और इसके कारण निजी क्षेत्र के काम में लगभग बराबर मात्रा में गिरावट दर्ज की गई है. मनरेगा की कई सफलताओं के बावजूद यह तथ्य निराशाजनक है कि दुनिया का सबसे बड़ा कल्याणकारी रोजगार कार्यक्रम नई नौकरियां सृजित करने में बिल्कुल नाकाम रहा है.
निजी क्षेत्र के रोजगार में कमी के और भी नतीजे हो सकते हैं. वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट से पहले, निर्माण और रियल एस्टेट में उछाल ने लाखों भारतीयों को शहरों की ओर आकर्षित करने और उन्हें पहली बार गरीबी से बाहर निकालने का काम किया था. बढ़ती मजदूरी से इन क्षेत्रों के तेज विकास में मदद नहीं मिलती है. इस बात के निरंतर प्रमाण मिल रहे हैं कि श्रमिकों की सेवा की उच्च और बढ़ती सापेक्ष लागतों के कारण हमारे सर्वाधिक श्रम-प्रधान उद्योगों तक में मशीनीकरण पर ज़ोर दिया जाने लगा है जो कि 1.3 बिलियन आबादी वाले देश के लिए एक त्रासदी के समान है. अगर शहरी रोजगार गारंटी योजना से मज़दूरी में भारी वृद्धि होती है तो चीन (और आगे वियतनाम और बांग्लादेश तक) से व्यवसाय आकर्षित करना कहीं अधिक मुश्किल हो जाएगा.
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सतर्कता की दरकार
किसी शहरी रोजगार गारंटी योजना के उसके विस्तृत प्रावधानों के अनुरूप, अन्य अनपेक्षित प्रभाव भी हो सकते हैं. झारखंड की योजना की पात्रता के लिए श्रमिकों के पांच साल शहर में अधिवास की शर्त है. लेकिन प्रवास संबंधी कृत्रिम प्रतिबंध शहरीकरण में व्यवधान डाल सकते हैं और ढांचागत परिवर्तन को बाधित कर सकते हैं. ऐसे प्रावधान अत्यधिक खंडित श्रम बाजारों को को भी जन्म दे सकते हैं जो मुनाफाखोरी और श्रमिकों के शोषण के अवसर पैदा करते हैं.
इसलिए हमें ऐसी किसी खर्चीली योजना के राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन से पहले राज्यों की योजनाओं का अगले कुछ वर्षों तक अध्ययन करना चाहिए.
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मनरेगा अपने आप में प्रभावी है
और आखिर में, बहुत से लोग इस योजना को प्रवासी मज़दूरों की सामाजिक सुरक्षा के पहले उपाय के तौर पर देखते हैं. लेकिन बाज़ारों के परस्पर निकट जुड़ाव जैसे भारत में गांवों और शहरों का जुड़ाव है– के कारण एक जगह किए जाने वाले सुरक्षात्मक उपाय दूसरे जगह भी प्रभावी साबित होते हैं. वैसे, चीन जैसे देश पर यह बात, वहां की प्रतिबंधात्मक हुकू व्यवस्था के कारण लागू नहीं होती है.
मोदी सरकार ने भारी संख्या में मजदूरों के शहरों से पलायन को देखते हुए मनरेगा के लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपए की व्यवस्था की थी और इसका लाभ उठाने के बाद वे श्रमिक अब वापस शहरों में लौट रहे हैं और यह बात बेरोज़गारी के आंकड़े में गिरावट में दिख रही है. लेकिन प्रवासी मज़दूरों के पैदल ही बड़ी संख्या में पलायन करने के दर्दनाक दृश्यों को भूलना संभव नहीं है. वैसे हम यह सोचकर संतोष कर सकते हैं कि इस स्तर का व्यवधान शायद दोबारा नहीं हो. अप्रैल की असाधारण परिस्थितियों में सरकार को एक बार के लिए नकदी हस्तांतरण का कार्यक्रम चलाना चाहिए था, भले ही उसे पर्याप्त डेटा के अभाव की समस्या का सामना करना पड़ता.
तो क्या कुछ नहीं करें?
पिछले पांच वर्षों के दौरान अनेक शहरी विकास कार्यक्रम शुरू किए गए हैं जिनमें प्रमुख हैं प्रधानमंत्री आवास योजना, अमृत और स्मार्ट सिटी मिशन. सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत करीब 1.3 करोड़ रोजगार सृजित किए गए, अमृत योजना के तहत जल और सीवरेज के 1.2 करोड़ कनेक्शन दिए गए और सैंकड़ो शहरों के लिए पहले ही दो लाख करोड़ रुपये के ग्रीन प्रोजेक्ट स्वीकृत किए जा चुके हैं. इन निवेशों के बावजूद, बहुत सारी आवंटित राशि का इस्तेमाल नहीं हो सका है– सरकार मांग पैदा करने और स्थायी किस्म के शहरी सुविधाओं के निर्माण के लिए इन मिशन-मोड योजनाओं के आरंभिक चरणों में व्यय बढ़ाने का विकल्प चुन सकती है.
हम ये भी उम्मीद करेंगे कि महत्वाकांक्षी नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) योजना इस महामारी का शिकार नहीं बने. मोदी सरकार को एनआईपी के तहत अपने लिए पहले ही आरक्षित 39 प्रतिशत राशि का राज्य सरकारों और व्यवसाय जगत की मुश्किलों को कम करने के उद्देश्य से इस्तेमाल करने पर विचार करना चाहिए. ये उपाय जहां निजी निवेश को आकर्षित कर रियल एस्टेट के क्षेत्र में सुधारों को तेज़ करेंगे, वहीं बैंकिंग के संकट को तत्परता से दूर करने से आपूर्ति का संकट दूर हो सकेगा. प्रधानमंत्री मोदी का मेक इन इंडिया का संकल्प अब भी एक भव्य विचार है, इसको लेकर एक बार फिर जोरशोर से प्रयास होना चहिए, इससे पहले कि बेरोज़गारी की समस्या विकराल रूप ग्रहण करे.
(सार्थक अग्रवाल ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से संबद्ध अर्थशास्त्री हैं. वह लंदन में इंस्टीट्यूट ऑफ फिस्कल स्टडीज़ और वाशिंगटन में विश्व बैंक में रिसर्चर रह चुके हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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