बिहार विधानसभा चुनावों की तारीखें अब किसी भी समय आ सकती हैं. इसे देखते हुए सभी दल अपने-अपने गठबंधनों के पुनर्गठन में लग गए हैं. सबसे बड़ी चुनौती आरजेडी के सामने है जिसे पिछले चुनावों में जीत और सबसे बड़ा विधायक दल होने के बावजूद, नीतीश कुमार के पल्टी मारने के कारण विपक्ष में बैठना पड़ा. इस लिहाज से बिहार में गठबंधन में चुनाव लड़ने का अब तक का सबसे बुरा अनुभव आरजेडी का ही है.
कहने को तो एनडीए के बाहर के तकरीबन सभी दल सेकुलर महागठबंधन के जरिए चुनाव लड़ने को तैयार हैं और इन सभी को आरजेडी का नेतृत्व स्वीकार है, लेकिन इन दलों की अंदरूनी मंशा कुछ अलग दिख रही है.
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तेजस्वी के साथ मन से नहीं हैं सहयोगी
महागठबंधन के संभावित दलों में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां प्रमुख हैं. ये वही दल हैं जिन्हें लालू प्रसाद यादव के उत्थान के बाद राज्य की राजनीति में हाशिए पर जाना पड़ा. ये दल मानते हैं कि लालू यादव की राजनीति की वजह से वे तरक्की नहीं कर पा रहे हैं. कांग्रेस समेत रालोसपा, सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई-माले सभी का दावा उसी जनाधार पर है, जो कि आरजेडी का मूल जनाधार है.
इन दलों की मजबूरी है कि उन्हें आरजेडी के साथ आना पड़ता है क्योंकि आरजेडी के वोट के बिना उनका काम बनता नहीं है. वहीं, इनकी दिली इच्छा यही रहती है कि कब आरजेडी किनारे हो, और ये उसकी जगह लें. ऐसे में आरजेडी के साथ आकर उसी को कमजोर करने की रणनीति ये अपनाते हैं, भले ही इस काम में इनको अब तक सफलता न मिली हो.
अप्रत्याशित संख्या में सीटों की मांग
2015 के विधानसभा चुनावों में बिहार में आरजेडी को 82, कांग्रेस को 27, आरएलएसपी को 2, माले को 3, सीपीआई और सीपीएम को 0 – 0 और जन अधिकार पार्टी को 0 सीटें मिली थीं. जेडीयू को 73, भाजपा को 53, एलजेपी को 2, हम पार्टी को 1 सीट मिली थी.
अब जो महागठबंधन बन रहा है, उसमें सीपीआई+सीपीएम 45, माले 50, वीआईपी 25, और आरएलएसपी 49 सीटें मांग रही हैं. इनको योग तकरीबन 175 होता है. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं. कांग्रेस पिछली बार 43 पर लड़ी थी. अब जेडीयू महागठबंधन में नहीं है तो उसको भी तकरीबन दुगुनी सीटें चाहिए, जो कि बचती नहीं हैं. अब सवाल ये है कि पिछली बार 100 पर लड़कर 82 सीटें जीतने वाला आरजेडी क्या अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगा?
इन दलों की मांगें तो आरजेडी पूरी नहीं कर सकेगा, लेकिन इस बहाने ये दल तेजस्वी यादव पर दबाव बनाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं कि आरजेडी खुद कम से कम सीटों पर लड़े, और सहयोगी दलों को ज्यादा से ज्यादा सीटें दे दे.
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दुश्मन की जो थी दोस्त की साजिश भी वही है
बिहार की कुल 243 सीटों में से तकरीबन सभी सीटों पर आरजेडी मुख्य लड़ाई की स्थिति में है. ऐसे में गैर-आरजेडी दलों की मंशा होगी कि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर आरजेडी को लड़ने से रोका जाए. विपक्षी एकता के नाम पर और भाजपा को हटाने के नारे पर, इन दलों की कोशिश है कि तकरीबन 100 सीटें तो बँटवारे में आरजेडी से छीन ही ली जाएं ताकि उसके पास लडने और जीतने के लिए 143 या अधिक से अधिक 150 सीटें ही बचें. इसके लिए बार-बार कहा जा रहा है कि बिहार की जनता लालू परिवार से नाराज है.
ऐसा ही 2019 के लोकसभा चुनावों में किया गया था, जब तेजस्वी यादव पर दबाव डालकर, सहयोगी दलों ने मनचाही सीटें ले ली थीं, और आरजेडी को बिहार की कुल 40 में से आधे से भी कम यानी 19 सीटें ही लड़ने को मिली थीं.
इसके बाद शुरू होगा काम एनडीए और भाजपा का. ये गठबंधन चाहेगा कि आरजेडी को 2015 के स्कोर यानी 80 पर ही रोक दिया जाए, या अधिक से अधिक 100 तक रोक दिया जाए, ताकि वो अपने दम पर बहुमत न पा सके, और उसे आरएलएसपी, वीआईपी या ऐसे ही अन्य दलों का सहारा लेना पड़े. इन दलों को भाजपा कभी भी तोड़ सकेगी.
इसके बाद एक कोशिश यह रहेगी कि कांग्रेस का भी महागठबंधन में इतना प्रभाव रहे कि उसके बिना आरजेडी की सरकार न बने. आरजेडी का साथ तो कांग्रेस नहीं छोड़ेगी, लेकिन कांग्रेस के विधायकों को प्रदेश स्तर पर तोड़ने में भाजपा को मौजूदा संसाधनों के साथ कतई दिक्कत नहीं होगी. विभिन्न राज्यों का हाल का अनुभव बताता है कि कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने में बीजेपी को ज्यादा दिक्कत नहीं होती है.
वामपंथी भी लगा रहे हैं दूर का निशाना
जहां तक वामपंथी दलों का सवाल है, तो वो बिहार में तकरीबन खत्म हो चुके हैं. सीपीआई-माले की ताकत कुछ जरूर है, लेकिन सीपीआई और सीपीएम 2015 के विधानसभा चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल पाए थे.
इसके बावजूद, ये दोनों दल बिहार में दूर की निगाह रखकर चल रहे हैं. इसके तहत किसी तरह से अपनी उपस्थिति बनाए रखकर, और जेएनयू के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष तथा भूमिहार नेता कन्हैया कुमार को बिहार के भावी नेता के रूप में पेश करने का इनकी कोशिश है. एक बार कन्हैया किसी तरह से बिहार की राजनीति में सेट हुआ तो सवर्ण बहुल मीडिया की पसंद होने के कारण, वह जल्द ही पूरे राज्य की राजनीति में छा सकता है, ऐसी इन दलों की सोच है. इस मकसद के लिए भी, दोनों वामपंथी दल चाहेंगे कि तेजस्वी के अंदर डर का भाव पैदा करके, ज्यादा से ज्यादा सीटें ले ली जाएं और फिर उन्हीं के सहारे उन्हें छोटी भूमिका में सीमित करके आगे चलकर राजनीतिक रूप से खत्म कर दिया जाए.
भाजपा का प्लान बी
भाजपा के कद्दावर और प्रभावशाली नेता रहे यशवंत सिन्हा भी काफी दिनों से भाजपा विरोधी राजनीति करके भाजपा विरोधी खेमे में जगह बना चुके हैं. अब ये छोटे-मोट 16 दलों को मिलाकर यूनाइटेड डेमोक्रेटिक एलायंस बनाकर सभी 243 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर रहे हैं. ये गठबंधन भी बीजेपी विरोधी वोटों की बंटवारा करेगा. इस तरह से ये भी भाजपा के पक्ष में ही चुनावी समीकरणों को बदलेंगे.
ऐसा माना जा सकता है कि महागठबंधन के दल आरजेडी के खिलाफ लड़कर उसे खत्म नहीं कर पाए तो अब उसके साथ गठबंधन करके उसे खत्म करना चाहते हैं, और सत्ता में न भी आएं तो कम से कम मुख्य विपक्ष की भूमिका में तो आ ही जाएं.
अकेले लड़ना ही आरजेडी के सामने बेहतर विकल्प
बेहतर तो यही होगा कि नीतीश के पलटी मारने के बाद जिस तरह से आरजेडी और तेजस्वी ने आक्रामकता दिखाई थी, उन्हीं तेवरों को जारी रखते हुए, वे अपने दम पर चुनाव लड़ें. कांग्रेस के अलावा अन्य किसी दल को बहुत ज्यादा सीटें लड़ने के लिए देना, भाजपा के प्लान बी में ही मददगार होगा. खुद कांग्रेस का भी अपने विधायकों पर नियंत्रण नहीं होता है, इसलिए कम से कम इतनी सीटें तो आरजेडी को खुद लड़नी ही चाहिए कि वो अपने दम पर 122 का आंकड़ा पार कर ले.
वैसे भी 2019 में गठबंधन करके आरजेडी ने देख लिया है कि सभी गैर भाजपा दलों के समर्थकों की दूसरी पसंद उनका सहयोगी दल नहीं, बल्कि भाजपा ही होती है. उनकी पसंद के दल के प्रत्याशी को टिकट नहीं मिलता तो वो भाजपा को ही वोट दे आते हैं.
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(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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