चीन से बांग्लादेश की बढ़ती नजदीकियों की खबरों के बीच भारतीय विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद से मिलने पिछले महीने ढाका पहुंचे तो उन्हें लगभग तीन-चार घंटे तक इंतजार कराया गया. इससे पहले बांग्लादेश में भारत की हाई कमिशनर रीवा गांगुली दास ने अपनी अर्जी लगा रखी थी. लेकिन चार महीनों के इंतजार के बाद भी शेख हसीना ने उन्हें मुलाकात का समय नहीं दिया. बांग्लादेश के अखबार ‘भोरेर कागोज’ ने खबर छापी कि 2019 में शेख हसीना के दोबारा पीएम बनने के बाद बांग्लादेश में भारतीय प्रोजेक्ट धीमे पड़ गए हैं लेकिन चीनी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को खूब बढ़ावा मिल रहा है.
भारत के दूसरे पड़ोसी देश नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ग्यावली ने मई में द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि लिपुलेख-लिंप्याधुरा और कालापानी विवाद को बातचीत से सुलझाया जा सकता था. लेकिन हमारी सरकार की ओर से कोशिश के बावजूद भारत ने विदेश-सचिव लेवल की बातचीत के हमारे आग्रह का कोई जवाब नहीं दिया. जाहिर है दोनों देशों के संबंध इस दौरान लगातार खराब हुए हैं और सीमा पर टकराव तक की घटना हो गई, जिसकी पहले कल्पना तक नहीं की जा सकती थी.
एक अन्य पड़ोसी देश श्रीलंका के पीएम महिंदा राजपक्षे ने पीएम नरेंद्र मोदी से दरख्वास्त की थी उनके देश पर भारत के लगभग 96 करोड़ डॉलर कर्ज की अदायगी की मियाद आगे बढ़ा दें. लेकिन पांच महीने बाद भी भारत की ओर से इस मांग पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई. श्रीलंका ने चीन से मदद मांगी. चीन ने उसे आसान शर्तों पर 50 करोड़ डॉलर का कर्ज दिया.
ये तीनों मामले यह बताने के लिए काफी हैं कि 2014 में अपने पहले कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार ने दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों से रिश्ते मजबूत करने के लिए जिस ‘नेवरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी की स्क्रिप्ट लिखनी चाही थी, वो अब एंटी क्लाइमेक्स में पहुंचती दिख रही है.
याद कीजिये, 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी के पहले शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान समेत सभी दक्षिण एशियाई यानी सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ मॉरीशस के पीएम नवीन रामगुलाम ने भी हिस्सा लिया था. इसके कुछ दिनों बाद ही नरेंद्र मोदी सीधे विमान से पाकिस्तान पहुंच गए थे.
ऐसा लग रहा था कि पीएम मोदी दक्षिण एशिया में विदेश नीति का कोई नया अध्याय लिखने जा रहे हैं. लेकिन जल्द ही पठानकोट पर हुए आतंकी हमलों ने साबित कर दिया कि पाकिस्तान के साथ उलझे रिश्तों को सुलझाना इतना आसान नहीं है. पाकिस्तान को लेकर कम ही लोगों की उम्मीद थी कि वह अपनी चाल बदलेगा. अलबत्ता नेपाल और बांग्लादेश के साथ रिश्ते मजबूत करने में पीएम को शुरुआत में अच्छी सफलता मिली.
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आर्थिक नाकेबंदी ने भारत को नेपाल का खलनायक बना दिया
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने नेपाली संसद को संबोधित किया तो पूरा नेपाल मानो अभिभूत हो गया. लेकिन जल्द ही मजबूत होते दिख रहे इस रिश्ते में कड़वाहट घुलने लगी क्योंकि भारत ने यूपी और बिहार से सटे तराई वाले इलाकों में रहने वाले मधेशियों का साथ देना शुरू किया. तराई की मधेशी पार्टियों ने भारत से आ रहे सामानों की 2015 में नाकेबंदी शुरू कर दी और इससे नेपाल में हाहाकार मच गया.
भारत नेपाल के लोगों के लिए दुश्मन नंबर एक बन कर उभरा. इस बीच के पी ओली और उनकी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी भारत के खिलाफ उभरे आक्रोश को भुनाने में सफल रही. लेकिन ओली जब सत्ता में आए तो मोदी सरकार उनसे बेहतर संबंध बनाने में जुट गई. तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को तुरंत काठमांडू भेजा गया. ओली को खुश करने के चक्कर में भारत ने मधेशी दलों और अपने पुराने सहयोगी नेपाली कांग्रेस पार्टी दोनों को छोड़ दिया. आज ओली चीन की शह पर भारत के खिलाफ आग उगल रहे हैं.
मधेशियों की नाकेबंदी हाल के दिनों में भारत-नेपाल रिश्तों का सबसे खराब प्रसंग बन गई और यही वह दौर था, जब चीन को नेपाल को पूरी तरह अपने पाले में करने का मौका मिल गया. अब चीन नेपाल की राजनीति से लेकर इसकी अर्थव्यवस्था, इन्फ्रास्ट्रक्चर और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं से लेकर इसके लोगों के दिलो-दिमाग पर पूरी तरह छा गया है.
चीन और नेपाल के बीच कारोबार अब तक के सर्वोच्च स्तर 1.5 अरब डॉलर पर पहुंच गया है. चीन नेपाल को आर्थिक मदद देने वाला सबसे बड़ा देश बन कर उभरा है. नेपाल किस कदर चीन के पाले में चला गया है इसका सबूत तो उसी समय मिल गया, जब चीनी राजदूत ने खुल कर नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में प्रचंड और ओली गुट के बीच मध्यस्थता की. नेपाल में हालात अब पूरी तरह भारत के नियंत्रण से बाहर लग रहे हैं.
बांग्लादेश से रिश्तों को संभालने की कोशिश
बांग्लादेश के साथ भी भारत के रिश्ते ढलान पर दिख रहे हैं. हाल के दिनों में बांग्लादेश के साथ मनमुटाव को खत्म करने के लिए इसने काफी फुर्ती दिखाई. बांग्लादेश को लगातार मदद की खेप पहुंचाने से लेकर विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला की अचानक पीएम शेख हसीना वाजेद से मुलाकात ने साफ कर दिया है कि भारत उस पर बढ़ते चीन के प्रभाव से किस कदर परेशान दिख रहा है. मोदी सरकार को अपने पहले दौर में बांग्लादेश से रिश्तों को मजबूत करने में खासी सफलता मिली थी. दोनों देशों के बीच ऐतिहासक जमीन समझौता हुआ था. तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर सहमति बनती दिखी, कुल 22 समझौते हुए थे
लेकिन पिछले साल भारत में सीएए और एनसीआर लागू होने के साथ ही बांग्लादेश के साथ रिश्तों की रंगत बदलने लगी. सरकार के मंत्रियों और बीजेपी नेताओं जिस तरह से बांग्लादेशी विरोधी बयान दिए उनसे बांग्लादेश के लोगों के तनबदन में आग लग गई.
गृह मंत्री अमित शाह ने 2018 में असम में रह रहे बांग्लादेशियों को दीमक करार दिया. बंगाल बीजेपी के चीफ दिलीप घोष ने कहा कि उनके राज्य में एक करोड़ बांग्लादेशी दो रुपये किलो वाले चावल पर पल रहे है. इन सभी बांग्लादेशियों को वापस भेजा जाएगा. लगभग सात से आठ फीसदी की दर से विकास कर रहे और कई सोशल और डेवलपमेंट इंडेक्स में भारत से बेहतर प्रदर्शन वाले बांग्लादेश के सम्मान पर यह बड़ी चोट थी. सीएए के मामले में बांग्लादेश पर हमले इतने बढ़े कि उसके विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन ने अपना भारत दौरा रद्द कर दिया.
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शेख हसीना को यह चिंता भी हुई कि मुकदमे और जेल भेजे जाने के डर से भारत में रह रहे लाखों बांग्लादेशी वापस देश लौट सकते हैं. रोहिंग्या शरणार्थियों का बोझ ढो रहे बांग्लादेश के लिए यह नई मुसीबत बन सकती थी.
बांग्लादेश के स्वाभिमान पर जिस तरह चोट की गई, उसने इसे चीन की ओर झुकने के मजबूर किया. बांग्लादेश ने हाल में सिलहट में एक नए एयरपोर्ट टर्मिनल का निर्माण का ठेका बीजिंग अर्बन कंस्ट्रक्शन ग्रुप को दे दिया. चीन ने बांग्लादेश की नौसेना को मजबूत करने के लिए कई डिफेंस डील किए हैं. हाल में बांग्लादेश से निर्यात होने वाले 97 फीसदी सामान चीन में ड्यूटी फ्री कर दिए.
श्रीलंका में भी मौका गंवाया
भारत श्रीलंका में भी मौके गंवाता जा रहा है. पिछले साल जब पीएम महिंदा राजपक्षे के भाई गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रपति बने थे तो चीन से बढ़त लेने के लिए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर तुरंत कोलंबो पहुंच गए थे. इसके बाद राजपक्षे भारत दौरे पर आए थे. इसके बावजूद भारत ने जिस तरह से कर्ज भुगतान की मियाद बढ़ाने के श्रीलंका के अनुरोध की अनदेखी की उससे उसके सामने एक बार फिर साफ हो गया कि बड़े दावों के बावजूद भारत की दोस्ती पर भरोसा नहीं किया जा सकता.
पिछले डेढ़- दो साल से इन तीनों अहम पड़ोसियों के साथ भारत के खराब रिश्तों ने इसकी ‘नेवरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी पर सवालिया निशान लगा दिया है. कोविड-19 ने पड़ोसियों को पैसे से जीतने की भारत की ताकत को और कमजोर कर दिया है. चीन इस स्थिति का बेजा फायदा उठा सकता है. अमेरिका और अरब देशों से संबंध मजबूत करने में पूरी तरह व्यस्त मोदी सरकार की विदेशी नीति नजदीकी पड़ोसी देशों से रिश्ते मजबूत करने के मामले में मात खाती दिख रही है.
(लेखक आर्थिक मामलों के पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)