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Friday, 22 November, 2024
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भारत के विचार पर विलाप करते वक्त ये न भूलें कि जनता की अवधारणा भी बदल रही है

मोदी का नया भारत जनता की एक नई अवधारणा पर आधारित है. नेताओं और बुद्धिजीवियों से इसे निर्विवाद रूप से स्वीकार करने की अपेक्षा की जाती है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन नए भारत के विचार को लेकर जारी बौद्धिक बहस में सर्वोच्च प्राधिकार और न्यायसंगत प्रतिनिधियों के तौर पर ‘जनता’ को खुलकर मान्यता दी जाने लगी है. ‘जनता की इस अवधारणा’– जिसका अयोध्या भूमि पूजन और सबरीमला मामले में आह्वान किया जा चुका है– पर राजनेताओं और लोक बुद्धिजीवियों दोनों से ही कोई सवाल नहीं करने की अपेक्षा की जाती है.

भारत की अवधारणा में किसी भी बदलाव के लिए ‘जनता’ की अवधारणा महत्वपूर्ण है.

मोदी अक्सर खुद को सवा सौ करोड़ भारतवासियों का सेवक बताना पसंद करते हैं. या मुख्यमंत्री रहने के दौरान 2012 में उन्होंने खुद को 6 करोड़ गुजरातियों का हनुमान बताया था और तब वे अक्सर गुजराती अस्मिता की बात करते थे. वह अपनी राजनीति को जनता की इसी कल्पित इच्छा, जख्म, गौरव और पूर्वाग्रह के सहारे आगे बढ़ाते हैं. लेकिन इस बात का बहुत कम राजनीतिक और बौद्धिक परीक्षण हुआ है कि बीते दिनों में भारतीय राजनीति में ‘जनता’ की अवधारणा का किस तरह इस्तेमाल हुआ है.

हमारी सार्वजनिक बहसों में जनता की एक रूमानी परिकल्पना होती है. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की 2019 के लोकसभा चुनावों में हुई ज़बर्दस्त जीत के बाद उदारवादियों ने जनता की भाषा विकसित करने की दिशा में अपनी सीमाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया और कुछ बुद्धजीवियों ने इस बात का रोना रोया कि वे संभवत: लोगों को समझने के साधन खो चुके हैं. अव्यक्त विचार ये हैं कि नेताओं और बुद्धिजीवियों को जनता पर सवाल उठाने की गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए. और यहीं से बहुसंख्यकवादी राजनीति की शुरुआत होती है. मोदी के नए भारत की राजनीतिक परियोजना वास्तव में जनता की वास्तविक, प्रामाणिक और सबसे बढ़कर ज़िम्मेदार नागरिक की परिकल्पना पर आधारित है.

लेकिन निर्विवाद विवेकशील प्रतिनिधियों के रूप में जनता का यह राजनीतिक चित्रण ना सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन से विकसित राजनीतिक परंपराओं के खिलाफ जाता है बल्कि यह हमारे संवैधानिक मूल्यों का भी विरोधाभासी है.


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‘जनता’ की भारतीय कहानी

शासकीय सिद्धांत के रूप में जनता की इच्छा की अवधारणा एक हालिया परिघटना है. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की प्रमुख धाराओं ने सामाजिक सुधारों और एक समतावादी राजनीतिक व्यवस्था की आदर्श कल्पना के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की थी. महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम, बीआर आंबेडकर द्वारा जाति व्यवस्था की आलोचना और भगत सिंह का भारतीय समाज के वर्ग विभाजन की बात उठाना– ये सब 19वीं सदी के सामाजिक सुधारों की परंपरा पर आधारित थीं. इस बात पर सर्वसम्मति थी कि अगर समाज में सुधार नहीं किया गया तो राजनीतिक कार्रवाई निरर्थक होगी.

भारतीय संविधान इस धारणा का तार्किक परिणाम था. यह जनता को वास्तविक संप्रभु सत्ता के रूप में मान्यता देता है और उनके व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों का पर्याप्त संरक्षण सुनिश्चित करता है. हालांकि, यह जनता की इच्छा का और इसी प्रकार बहुसंख्यक शासन का पूरी तरह समर्थन नहीं करता है. इसकी बजाए यह राजनीतिक वर्ग के विकास के लिए कुछ सिद्धांतों को निर्धारित करता है जिसे आंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता का नाम दिया था.

नेहरूवादी शासन ने 1950 के दशक में विधिक संवैधानिक उपायों के जरिए क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों की एक श्रृंखला शुरू की थी. इसके तहत शासन द्वारा शिक्षा और सुधारों के ज़रिए जनता को पूरी तरह से लोकतांत्रिक और पर्याप्त रूप से आधुनिक बनाया जाना था. इंदिरा गांधी ने अपने अधिनायकवादी शासन को वैधता देने के लिए राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की पुनर्व्याख्या की थी. उन्होंने जनता के कल्याण के नाम पर आपातकाल (1975-77) तक को उचित ठहराया था.

हालांकि, 1990 के दशक का आर्थिक उदारीकरण इस संबंध में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. एक अत्यंत तर्कसंगत सामूहिक बल के रूप में जनता की अवधारणा ने 1990 के दशक में उस समय आकार लेना शुरू किया जब आर्थिक सुधार किए जा रहे थे और मनोरंजन के लोकप्रिय निजी साधनों का भारी विस्तार हो रहा था. आर्थिक सुधारों के दो साल बाद सामूहिक हिन्दू जख्मों के प्रतिशोध की प्रक्रिया में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया.

अर्थव्यवस्था के निजीकरण और विस्तार के साथ ही शासन ने खुद को एक राजनीतिक नियामक इकाई के रूप में पुनर्परिभाषित किया. यह स्थापित किया गया कि समाज और अर्थव्यवस्था स्वायत्त स्वशासी इकाई हैं और शासन का प्राथमिक कार्य है पुनर्वितरण की नीतियों के माध्यम से प्रतिस्पर्धी हितों में सामंजस्य बिठाना. इससे समावेश का एक नया राजनीतिक आख्यान सामने आया. सामाजिक परिवर्तन का एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित किए बिना, हाशिए पर पड़े विभिन्न समूहों- दलित, ओबीसी, महिलाओं, मुसलमानों और आदिवासी- की विशिष्ट समस्याओं के समाधान के लिए अनेक नीतिगत पहलकदमियां की गईं.

हिंदुत्व की राजनीति ने हाशिए पर पड़े वर्गों को नाराज़ नहीं करने की इस राजनीति को दो तरह से चुनौती दी. उन्होंने मध्यवर्गीय उच्च-जाति समूहों को आकर्षित करने के लिए हिंदुओं के पीड़ित होने की बात उठाई और साथ ही उन्होंने प्रामाणिक और ज़िम्मेदार जनता- जो कि राष्ट्र को प्राथमिकता देती है और किसी अन्य पहचान पर ज़ोर नहीं देती है- का विचार भी छेड़ा. नरेंद्र मोदी का नया भारत दरअसल जनता के इसी अतिराष्ट्रवादी संस्करण पर आधारित है.


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जनता– वोटर/नागरिक/आम आदमी

वर्तमान भारत में जनता की कम से कम तीन विशेषताएं हैं. अधिक प्रत्यक्ष राजनीतिक अर्थ में, जनता को मतदाताओं और उपभोक्ताओं के रूप में परिभाषित किया गया है, जिन्हें लुभाया जाना चाहिए.

मोदी का नया भारत सहभागी लोकतंत्र तथा उत्तरदायी और क्रियाशील नागरिकों से बना है जिनका शौचालय के इस्तेमाल, मंदिर और मूर्तियों के निर्माण, करों के भुगतान और गंदी नकदी से छुटकारा आदि के लिए केनेडी शैली में आह्वान किया जा सके. मोदी के लिए, ‘नया भारत ज़िम्मेदार जनता और उत्तरदायी सरकार का युग है’. मोदी जनता की इच्छा को खुद में समाहित कर रहे होते हैं जब वह मतदाता के हमेशा सही होने और उनके राजनीतिक प्रणाली के सुविधाजनक संचालन के हित में सरकार के प्राधिकार को स्वीकार करने पर ज़ोर देते हैं.

अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस का आम आदमी (जनसाधारण) जनता की तीसरी विशेषता है. आम आदमी को नैतिक रूप से ईमानदार, भोला, लाचार और राजनीतिक रूप से कमजोर इकाई के रूप में परिभाषित किया गया है. हमें बताया जाता है कि वोट देने का अधिकार होने के बावजूद, आम आदमी के पास भ्रष्ट तंत्र से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं. इसलिए, उससे राष्ट्रवाद की भावनाओं का पालन करते हुए अरविंद केजरीवाल की मान्यताओं वाले स्वराज की स्थापना की उम्मीद की जाती है. वह नैतिक रूप से प्रतिबद्ध राष्ट्रवादी और एक ज़िम्मेदार नागरिक होता है जिसे वायु प्रदूषण को कम करने के लिए सर्दियों में कार का उपयोग छोड़ने या अवैध पानी-बिजली के बिलों का भुगतान नहीं करने के लिए कहा जा सकता है.


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‘जनता’ का राजनीतिक इस्तेमाल

जनता के इस लोकप्रिय चित्रण की अब राजनीतिक दलीलों में प्रत्यक्ष भूमिका होती है. सबरीमला मुद्दे पर राजनैतिक कुलीनों की झिझक भरी प्रतिक्रियाएं और अयोध्या में भूमि पूजन के लिए उनका अतिउत्साह इस तथ्य को रेखांकित करता है कि राजनीतिक दल उन बातों के खिलाफ नहीं जाना चाहते हैं जिन्हें कि वे बहुसंख्यकों की इच्छा के रूप में देखते हैं.

शशि थरूर जैसा उदार राजनेता सबरीमला विवाद में सामुदायिक मान्यताओं और मंदिर का साथ देने को यह कहते हुए उचित ठहराता है कि वह अपनी जनता का प्रतिनिधित्व कर रहा है. इस तरह की दलीलें हिंदुत्ववादी ताकतों को मुस्लिम विरोधी हिंसा को लोगों/हिंदुओं की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सही ठहराने के लिए प्रेरित करती है. वास्तव में, एक मजबूत धारणा बना दी गई है कि हिंदुओं की भावनाओं, विचारों और विश्वासों का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि वे बहुसंख्यक या प्रमाणिक जनता हैं.

जनता के विचार को एक तर्कसंगत, समरूप विचार का रूप दिया जाना अत्यधिक खतरनाक है- यह वर्ग-जाति-लिंग संबंधी अंतर्निहित विरोधाभासों को ढंकता है और राजनीतिक वर्ग को चुनावी बहुसंख्यकवाद को सही ठहराने का अधिकार देता है.

हमें आंबेडकर से सीखना चाहिए- अगर हम अपने समाज की बुनियादी संरचनाओं पर सवाल नहीं उठाएंगे तो लोकतांत्रिक राजनीति काम नहीं करेगी. और अब जबकि सार्वजनिक बुद्धिजीवी हमसे जनता से अपने जुड़ाव की पुनर्कल्पना करने और कथित टूटी कड़ी को पुनर्स्थापित करने का आग्रह कर रहे हैं, हम जनता की सर्वज्ञ और निर्विवाद अखंड बहुसंख्यक के रूप में कल्पना करने की खतरनाक दिशा में आगे बढ़ सकते हैं.

(लेखक नई दिल्ली स्थित सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. Sale jab yahi rajntik dal tum mullo ka tustikaran karte hai…tab to tumko bafa maza ata hai….abi modi govt hai to bo tmko sahi rah Bata rahi hai to Gand Mai dard ho raha hai m..sale pahle tum log apne samaz ko sudahro……tum batao tum logo me apne samaz ki kis kuriti ko sudhara hai…..or kis kuriti ke khiaf andolan chlaya hai…..tum sirf andoaln karte ho to bo khilafat ka hai…..tumko muslaman Raj sthpit karna hai or koi tmhra dusara agenda nahi hai…..

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