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Friday, 22 November, 2024
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लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक- पटना के भारत का सबसे गंदा शहर होने का हर कोई दोषी है

राजनीतिक दोषारोपण और तानों से आगे पटना की रैंकिंग की खबर नीति निर्माताओं या बिहार के मीडिया के बीच एक अच्छी बहस बनने की बजाए ऐसे ही ठंडी पड़ गई है.

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पटना में रहने वालों को इस खबर से कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि नरेंद्र मोदी सरकार के ताज़ा वार्षिक स्वच्छता सर्वेक्षण में उनके शहर को भारत का सबसे गंदा शहर घोषित किया गया है. हम सब जानते हैं कि ये शहर किसी जीवित नर्क की तरह है.

राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने इस बारे में ट्वीट करते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर एक सियासी तंज कसा. उनके बेटे तेजस्वी यादव ने भी ताना मारा कि ‘देखकर अच्छा लगा कि पिछले पंद्रह साल में पटना आखिर किसी चीज़ में तो नंबर एक बना’. लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने भी नीतीश कुमार से जवाब मांगा.

लेकिन राजनीतिक दोषारोपण और तानों से आगे पटना की रैंकिंग की खबर नीति निर्माताओं या बिहार के मीडिया के बीच एक अच्छी बहस बनने की बजाए ऐसे ही ठंडी पड़ गई है. मीडिया तो खैर खुदकुशी से हुई सुशांत सिंह की मौत जैसे मुद्दों में ज़्यादा व्यस्त है.

जुलाई 2018 में न्यायमूर्ति अजय कुमार त्रिपाठी और न्यायमूर्ति नीलू अग्रवाल की अगुवाई वाली पटना हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा था, ‘पिछले 20 सालों में अदालतों के एक के बाद एक आदेशों के बावजूद पटना के विकास के लिए रखे गए पैसे की खुलेआम चोरी हो रही है’. शहरी विकास मंत्रालय द्वारा शहरों की हालिया रैंकिंग, इसी दुखद सच्चाई को दोहराती है.

लेकिन क्या राजनीतिक नेतृत्व को इसकी चिंता है? चुनाव और राजनीतिक ताकत कामकाज के बलबूते नहीं बल्कि सोशल इंजीनियरिंग और भावुक नारों के दम पर जीते जाते हैं जिनका लोगों के जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता- माई (मुस्लिम-यादव) का मेल, पिछड़े बनाम सबसे अधिक पिछड़े, दलित बनाम सबसे दलित, हिंदू बनाम मुस्लिम, राम मंदिर, अनुच्छेद 370 वगैरह.

स्वास्थ्य, शिक्षा या नागरिक सुविधाओं जैसे मुद्दों का तो ज़िक्र भी नहीं होता. जब कोरोनावायरस महामारी का प्रकोप फैला और लॉकडाउन घोषित हुआ तो कोटा में फंसे अपने छात्रों या विभिन्न राज्यों में फंसे अपने प्रवासी मज़दूरों के प्रति सबसे उदासीन राज्य बिहार था. लेकिन नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों में ये मुद्दे प्रासंगिक नहीं हैं. जो राज्य कोरोना और बाढ़ से तबाही की दोहरी मार झेल रहा है वहां चुनाव कराना कैसे उचित है?

बिहार में अधिकारियों के तबादले और उनरी तैनातियां एक बड़ा खेल है और अपने काम पर ध्यान देने की बजाए नौकरशाहों को सत्ता के दलालों के साथ व्यस्त रखता है. वो जानते हैं कि जब तक उनके बड़े आका खुश हैं तब तक उनके मलायीदार विभाग सुरक्षित हैं. पटना नगर निगम (पीएमसी) के मामले में निगम आयुक्त का औसत कार्यकाल एक वर्ष या उससे भी कम है.

13 जुलाई 2013 को पटना हाईकोर्ट ने एक आदेश जारी किया था कि निरंतरता और जवाबदेही के हित में पटना निगम आयुक्त का तबादला बिना हाईकोर्ट की सहमति के नहीं होना चाहिए. राज्य सरकार ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई जिसने हाईकोर्ट के फैसले में दखल देने से मना कर दिया.

हाईकोर्ट निगम आयुक्त कुलदीप नारायण द्वारा बिल्डिंग माफिया के खिलाफ शुरू किए गए अतिक्रमण-विरोधी अभियान की निगरानी कर रहा था. कुलदीप नारायण को 5 दिसंबर 2014 को सस्पेंड कर दिया गया लेकिन 15 दिसंबर को हाईकोर्ट ने उनके निलंबन पर रोक लगा दी. इस उदासीनता का नतीजा स्वच्छता रैंकिंग में साफ नज़र आता है.


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नीतीश और उनकी नाकामियां

बाढ़ के खराब प्रबंधन का दोष कुदरत के सर मढ़ते हुए, ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार ने प्रेस को समझाया, ‘जलवायु बदल रही है और ये भारी बारिश हथिया नक्षत्र की वजह से हैं. हथिया में ऐसी बारिश आम बात हैं’.

पिछले साल लगातार बारिश के बाद पटना में हुआ जल-भराव, मानव रचित आपदा की एक ऐसी मिसाल है जिसमें अस्तित्वहीन नगर निगम और भ्रष्ट शहरी विकास अधिकारियों का पूरा योगदान है. वरना राजेंद्र नगर और कंकरबाग जैसे नियोजित इलाकों में पानी भरने को आप क्या कहेंगे, जहां लाखों निवासी फंस गए, जिनमें बहुत से लोग खाना, पानी और बिजली के बिना छतों पर अटके रहे?

पिछले साल की मुसीबत में अच्छी कचरा निस्तारण प्रणाली न होने का भी योदगान था जहां प्लास्टिक कचरे ने शहर की नालियों को बंद कर दिया जिससे इन इलाकों से बारिश का पानी बाहर निकलने में दिक्कत हुई. इन इलाकों से पंप के ज़रिए पानी निकालने में पटना नगर निगम को दो हफ्ते से ज़्यादा लग गए. इस संकट के ठीक बीच में पटना नगर निगम के इलाके में स्थित 39 में से 38 पंप हाउस चालू नहीं थे. कुत्तों, सुअरों और दूसरे जानवरों के कंकाल पूरे पटना में बहते हुए देखे जा सकते थे जिनसे स्वास्थ्य के संकट की चिंताएं बढ़ गईं. पचपन लोग अपनी जान से हाथ धो बैठे और बीमारी फैलने के डर ने पूरे शहर को जकड़ लिया.

अपनी सरकार के कंधों से ज़िम्मेदारी हटाने की एक और कोशिश में नीतीश कुमार ने कहा कि जब मुंबई और अमेरिका के शहरों में जलभराव होता है तो किसी को इतनी चिंता नहीं होती कि सवाल उठाए. लेकिन मिस्टर ‘सुशासन’ को पता होना चाहिए कि मुम्बई और अमेरिका के उलट पटना का जलभराव उनके अपने 15 साल के ‘शहरी विकास’ की ही एक ज़िंदा मिसाल है जिसमें बिहार की राजधानी का कोई भला नहीं हुआ, बस कंक्रीट का एक अनियोजित जंगल खड़ा हो गया.

हालांकि तश्तरी जैसे आकार की शहर की भौगोलिक स्थिति भी बाढ़ के लिए ज़िम्मेदार है क्योंकि हल्की सी बारिश से जलभराव हो जाता है लेकिन सच्चाई ये है कि पटना में 1968 के बाद से किसी प्रमुख ड्रेन नेटवर्क का विकास नहीं हुआ है. ब्रिटिश ज़माने का ड्रेनेज सिस्टम जो सूबे की राजधानी के एक छोटे से हिस्से तक सीमित है, अब पुराना पड़ गया है और बाढ़ के पानी में सीवेज की निकासी होने से यहां के निवासियों की मुश्किलें और बढ़ जाती हैं.


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शुरूआत अच्छी लेकिन बीच में भटके

पटना का योजनाबद्ध विकास 1912 में बिहार के नए प्रांत के वजूद में आने के बाद शुरू हुआ. इस कार्य का ज़िम्मा अंग्रेज़ी हुकूमत के मशहूर आर्किटेक्ट जोज़फ म्यूनिंग्स को सौंपा गया जिन्होंने पटना में कुछ भव्य इमारतें डिज़ाइन कीं जैसे सचिवालय, राजभवन, पटना हाईकोर्ट, जीपीओ और पटना म्यूज़ियम. इन सभी ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण 1912 से 1917 के बीच पूरा कर लिया गया. नई राजधानी की जगह जिसे न्यू कैपिटल एरिया (अनौपचारिक रूप से नया पटना) कहा गया, बांकीपुर रेलवे स्टेशन (पुराना पटना रेलवे स्टेशन) के पश्चिम में चुनी गई और चीफ आर्किटेक्ट म्यूनिंग्स ने इसे सुनियोजित तरीके से विकसित किया.

आज़ादी के बाद बिहार सही रास्ते पर चल निकला. 1950 के दशक में बिहार, मुंबई के बाद देश का सर्वोत्तम प्रशासित राज्य माना जाता था और पटना का नियोजित विकास भी राज्य की समग्र दिशा के हिसाब से ही था. पटना सुधार ट्रस्ट ने, जो बाद में पीआरडीए कहलाया गया और जिसका पीएमसी में विलय कर दिया गया- राजेंद्र नगर और श्री कृष्णा पुरी जैसी सुनियोजित कॉलोनियां विकसित की गईं. बिहार स्टेट हाउसिंग बोर्ड ने बहादुरपुर, कंकरबाग (एशिया की सबसे बड़ी सुनियोजित आवासीय कॉलोनी) और श्री कृष्णा नगर कॉलोनियां विकसित कीं.


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बाधाएं

अपने 15 वर्ष के शासन में नीतीश ने कभी पटना के सुनियोजित विकास के बारे में क्यों नहीं सोचा? इसका जवाब उनकी सियासत में है- योजनाबद्ध विकास में ज़मीन अधिग्रहण करना होगा और इससे उनके कुछ समर्थक नाराज़ हो सकते हैं. राज्य की सियासत में जहां जातीय समीकरण, विकास और शासन पर भारी पड़ते हैं, पटना के चरमराते शहरी ढांचे की कड़वी सच्चाई ‘मिस्टर सुशासन’ के लिए मुद्दा नहीं बनेगी.

किसी भी व्यवस्थित और सुनियोजित विकास के लिए पहले शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराया जाता है, फिर उसके बाद रिहाइशी घर बनाए जाते हैं. पटना के शहरी समूह में ये पहलू सिरे से गायब रहा है. इसलिए अधिकांश रिहाइशी इलाकों में नागरिक बुनियादी ढांचा न के बराबर है.

बीस लाख की आबादी के शहर के लिए जहां रोज़ाना 700 टन ठोस कचरा पैदा होता है, पटना में कोई ठोस कचरा प्रबंधन प्रणाली नहीं है. बहुत से मौहल्लों में लोग अपना कचरा, सड़कों या खाली जगहों पर डाल देते हैं जिसे बाद में पीएमसी स्टाफ एकत्र करता है. पीएमसी के पास भी ठोस कचरे को हैंडल करने के लिए ज़रूरी उपकरण नहीं हैं.

बुनियादी ढांचे की कमी, कूड़ा डालने की जगह का न होना और पीएमसी में कर्मचारियों की कमी से हालात और खराब हुए हैं. पटना में निचले इलाकों या रिंग रोड के किनारे कूड़ा-कचरा दिखना आम बात है.

पटना के पास नए सीवेज नेटवर्क के लिए एक योजना है लेकिन नीतीश कुमार सरकार के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए लगता है कि वो एक कल्पना ही रहेगी. बरसों से गंगा में हो रही गंदगी की निकासी नदी को भी दूषित करती जा रही है.

विशेषकर पिछले दो दशकों में, पटना की आबादी में बहुत इज़ाफा हुआ है. 1981 से 1991 के बीच ये इज़ाफा 25.5 प्रतिशत था जबकि 1991 से 2001 के बीच ये बढ़कर 58.1 प्रतिशत हो गया. घने शहरी इलाकों में 1991 से 2001 के बीच आबादी में ये वृद्धि तकरीबन 86.5 प्रतिशत (खगौल, दानापुर, फुलवारी शरीफ) थी. लेकिन उस अनुपात में शहर का विस्तार नहीं हुआ जिससे आबादी घनी होती चली गई. पटना में प्रतिवर्ग किलोमीटर लगभग 43,840 लोग निवास करते हैं.

पेयजल आपूर्ति एक और चिंता का क्षेत्र है. पीएमसी के स्टेशन पंप्स सुनिश्चित करते हैं कि पटना के हर निवासी को रोज़ाना कम से कम 150 लीटर पानी मिल जाए. एक अनुमान के मुताबिक पीएमसी के बोरवेल्स हर रोज़ ज़मीन से 37.5 करोड़ लीटर पानी खींच रहे हैं लेकिन अधिकारी मानते हैं कि करीब 45 प्रतिशत पानी रिसाव की वजह से रास्ते में ही बह जाता है.

इसके अलावा राजधानी के 60 प्रतिशत इलाके ही इस नेटवर्क से जुड़े हैं. बाकी इलाके काफी हद तक ज़मीन से पानी खींचने पर निर्भर हैं जिसकी सप्लाई मुफ्त है. इससे पानी की और ज़्यादा बर्बादी होती है. चूंकि जो चीज़ मुफ्त होती है उपभोक्ताओं की नज़र में उसकी कोई खास अहमियत नहीं होती.

(लेखक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी हैं जो शहरी विकास विभाग के प्रमुख सचिव, पटना रीजनल डेवलपमेंट अथॉरिटी के उपाध्यक्ष और बिहार हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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3 टिप्पणी

  1. लालू को फांसी दिलवा दो, और नीतीश कुमार जी-सुशील मोदी को पुरष्कार, मोदीमेनिया से ग्रस्त लोग नेहरु को आज भी खोज रहे हैं, तो आपकी गलती क्या हैं,

  2. This article is a waste of space. It carefully ignores the upper caste vote bank in the caste based politics in the State.
    The article also ignores the fact that most of the Urban Local Bodies in the State, including Patna, have the political control of a specific political party from a very long time.
    It also ignores the fact that the Urban Development Department is in control of a political party from time immemorial.
    With so many heads under one control which includes the media, when one shifts blame to previous administrators, it is understandable. Anyway, Great work , Sir. We now fairly understand that what ails this city. By the way, thanks for the historical tour of Patna. We would love to know about Azeemabad, Patliputra phases of history also, Sir.

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