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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतभारतीय विश्वविद्यालयों में सुधार लाने के लिए एनईपी की जरूरत नहीं लेकिन यूजीसी राह में बाधा बनी हुई है

भारतीय विश्वविद्यालयों में सुधार लाने के लिए एनईपी की जरूरत नहीं लेकिन यूजीसी राह में बाधा बनी हुई है

ऐसे दो अकाट्य कारक हैं जिनकी वजह से भारतीय विश्वविद्यालय खुद वह नहीं कर पाए जिन्हें एक राष्ट्रीय नीति के जरिये हासिल करने की कोशिश की जा रही है.

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दो बहुत ही स्पष्ट वजह हैं जिन्होंने मुझे नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा हाल में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति या एनईपी 2020 की विभिन्न विशेषताओं और सिफारिशों पर चर्चा के लिए बाध्य किया. उनमें से एक जहां निजी सफलता की कहानी है, वहीं दूसरी है यूजीसी जैसी संस्थाओं के तौर पर एक अकादमिक पहेली, जो लंबे समय से भारतीय विश्वविद्यालयों की राह में बाधा बनी हुई है. पहले दूसरी वजह से शुरू करते हैं.

जहां तक मैं समझता हूं, उच्च शिक्षा से जुड़े एनईपी 2020 के लगभग सभी प्रावधान सरकार के किसी प्रयास बिना ही किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में आसानी से लागू किए जा सकते हैं. इन विश्वविद्यालयों के पास नीतिगत सिफारिशें लागू करने के लिए अपार शक्तियां और आवश्यक नियामक क्षमता है और इसके लिए उन्हें एनईपी जैसे किसी ‘छत्र’ के तहत लाने की जरूरत नहीं है.

यह देखने लायक होगा कि ऐसा क्यों नहीं हो पाया और यह भारत की शिक्षा प्रणाली के लिए कितना अहम साबित होगा.


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यूजीसी की विफलता

ऐसे दो अकाट्य कारक हैं जिनकी वजह से भारतीय विश्वविद्यालय खुद वह नहीं कर पाए जिन्हें एक राष्ट्रीय नीति के जरिये हासिल करने की कोशिश की जा रही है. पहला विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) जैसी संस्थाओं की गहरी छाप जो कुछ भी नया आजमाने से रोकती है.

पिछले कुछ सालों में यूजीसी ने हर तरह से असाधारण और प्रतिकूल अधिकार हासिल कर लिए हैं जो अक्सर किसी विश्वविद्यालय के अधिनियम और वैधानिकता की मूल भावना के विरुद्ध होते हैं. ये कार्य विश्वविद्यालयों में स्वतंत्र सोच को बाधित करते हैं. हद दर्जे तक माइक्रो-मैनेजमेंट होता है. इसे समझने के लिए हमारे सामने इस मुद्दे से बड़ा और क्या हो सकता है कि महामारी के दौरान विश्वविद्यालय परीक्षाएं कैसे कराएंगे. यदि हमारे विश्वविद्यालयों के पास ऐसी स्पष्ट परिस्थितियों से निपटने के लिए अपेक्षित विवेक और संसाधन नहीं है, तो वे अपने छात्रों को कोई उपयोगी ज्ञान कैसे दे पाएंगे? यह बेहद हास्यास्पद है कि मामला खिंचने पर सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा.

पश्चिम के बेहद प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अपनाए गए तरीके इसके एकदम उलट हैं, जिनका एनईपी में शामिल तमाम बहस में कई बार जिक्र किया गया है. इनमें से हर एक ने अपने खुद के अधिकार क्षेत्र और परिवेश के दायरे में रहकर निर्णय लिया. तो हमारे विश्वविद्यालय ऐसा करने में सक्षम क्यों नहीं हैं?

निश्चित तौर पर, एनईपी ने एक अति महत्वपूर्ण और एकल एजेंसी- नेशनल हायर एजुकेशन रेगुलेटरी काउंसिल (एनएचईआरसी) के गठन की जरूरत पर बल दिया है, जो उस मूल भावना के अनुरूप है जिसके साथ शुरुआत में यूजीसी का गठन किया गया था. लेकिन यह नए नियामक निकाय के तौर पर अपने दायरे के आधार पर इससे कहीं आगे है. यदि यह ऐसी ही बनी रहती है जिसकी परिकल्पना की गई है, तो एजेंसी के कार्यों के माध्यम से काफी कुछ अच्छा होगा. यदि यह उसी तरह राह भटकी जैसा पिछले दशकों में यूजीसी के साथ हुआ तो एनएचईआरसी व्यापक नुकसान कर सकती है. ऐसे में, यह सुनिश्चित करना तत्कालीन सरकार की जिम्मेदारी है कि संस्थान समय के साथ अपनी उपयोगिता न खोएं. हालांकि, मौजूदा संदर्भ में किसी भी मामले में सारा दोष यूजीसी के ही मत्थे मढ़ देना अनुचित होगा.


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विश्वविद्यालयों की विफलता

भारतीय विश्वविद्यालयों की अपनी खुद की और उनका नेतृत्व करने वालों की भी काफी बड़ी जिम्मेदारी होती है. मैंने बहुत बार ऐसी प्रक्रियाएं और उपाय अपनाने की जरूरत को रेखांकित किया है जो निश्चित तौर पर हमारे विश्वविद्यालयों के लिए उच्च गुणवत्ता वाले नेतृत्व का चयन सुनिश्चित करें. यदि ऐसा नहीं करते हैं, तो सिर्फ नीतियां बना देने से हमें कोई फायदा मिलने वाला नहीं है.

किसी भी मामले में, नीतियों के साथ अन्य खतरे भी हैं. कभी-कभी एक नीति कुछ मायने में नुकसानदेह भी हो सकती है जैसे ‘सभी के लिए समान’ रुख अपनाना. वे हमें ऐसे रास्ते पर चलने को बाध्य कर सकते हैं जिसमें नई सीख के आधार पर कुछ बदलाव या सुधार की जरूरत हो.

तमाम नामी-गिरामी संस्थानों- जैसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी और इंपीरियल कॉलेज ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड मेडिसिन- को एक केंद्रीकृत नीति के भरोसे चलकर ही यह सब हासिल नहीं हुआ है. वास्तव में हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने अपना रुतबा तभी हासिल करना शुरू कर दिया था जब स्थानीय सरकार ने 1870 में- अब खासे प्रसिद्ध हो चुके इस विश्वविद्यालय पर अपना नियंत्रण खत्म कर दिया था.


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एक व्यक्तिगत उपलब्धि

अच्छी नीतियां तैयार कर लेना ही उनके संदर्भ में आधी लड़ाई जीत लेने जैसा होता है— पूरी जीत के लिए सिर्फ एक ही चीज बचती है, उस पर अमल करना. यही मेरे लिए पहला व्यक्तिगत कारण है जिसकी वजह मैं भी इसे लेकर खुश हूं, और इसलिए मोदी सरकार की एनईपी 2020 का स्वागत करता हूं.

यदि ऐसा होता है तो, एनईपी में उच्च शिक्षा से संबंधित अधिकांश फीचर काफी हद तक दिल्ली विश्वविद्यालय में मेरे कुलपति रहने के दौरान तैयार और लागू किए गए चार साल के स्नातक कार्यक्रम (एफवाईयूपी) की विशिष्टताओं की पुनरावृत्ति ही होंगे. यही वजह है कि एनईपी की सिफारिशों को लेकर मैं काफी उत्साहित हूं.

मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि अगर इसे सही तरह से लागू किया जाए तो आवश्यक सर्वांगीण सुधार में काफी मदद मिलेगी. एफवाईयूपी चलाने के दौरान मिले नतीजों और प्रतिक्रिया ने इसकी अहमियत और क्षमताओं को लेकर हमारे विश्वास को मजबूत किया है. दुर्भाग्य से, एक साल तक बेहतरीन तरीके से चलाए जाने के बाद एफवाईयूपी को यूजीसी के एक निर्देश के तहत वापस लेना पड़ा जो किसी भी तरह न्यायोचित नहीं था.

हालांकि, एक और अच्छी बात जिस पर काफी हद तक किसी का ध्यान नहीं गया, वो तथ्य यह है कि हमने इसके समानांतर ही और बिना किसी बाधा क्लस्टर इनोवेशन सेंटर (सीआईसी) में एफवाईयूपी का और सशक्त संस्करण भी चलाया. यह कार्यक्रम आज तक चलता है. सीआईसी को मेरे कुलपति रहने के दौरान खासी प्रतिकूल परिस्थितियों में बनाया गया था और यह यूजीसी के प्रहारों के प्रति अभेद्य रहा.


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सीआईसी- एक सफल प्रयास

स्नातक करने वाले छात्रों का पहला समूह अब अपने पंखों को पूरी तरह फैला चुका है. वे न केवल गूगल जैसे शीर्ष कॉरपोरेट संस्थानों में कार्यरत हैं, बल्कि उद्यमी के रूप में भी सफलता हासिल कर रहे हैं. हाल के यह सब बहुत स्पष्ट रूप से नज़र आया है. संयुक्त राज्य अमेरिका और दिल्ली स्थित एक स्टार्टअप, डिलाइट्री, को हमारे दो सीआईसी स्नातकों ने स्थापित किया था जिन्होंने इसकी शुरुआत हमारे यहां अध्ययन करने के दौरान ही की थी और जिन्होंने सीआईसी में चार साल का अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम पूरा किया. उन्होंने एस्सेल और कुछ अन्य अमेरिकी वेंचर फर्म से 3 मिलियन डॉलर जुटाए थे.

एक अन्य बेहद सफल स्टार्टअप है टीनाइन इन्फोटेक- जिसका नाम सीआईसी की उस कक्षा पर रखा गया था जहां इसकी कल्पना की गई थी. इस तरह का एक बेहद इनोवेटिव स्टार्टअप है, प्रिसाइसली, जो सीआईसी के मौजूदा छात्रों द्वारा इसके कुछ पूर्व छात्रों के सहयोग से सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है. यहां के स्नातक छात्रों द्वारा तैयार शोध पत्रों की गुणवत्ता और संख्या भी खासी प्रभावशाली रही है. उदाहरण के लिए, सीआईसी में इस समय पढ़ रहे छात्रों में से कुछ ने मिलकर एक गणितीय मॉडल तैयार किया है जिसके जरिये उन्होंने भारत में कोरोनावायरस फैलने की संभावनाओं का आकलन किया. उनके मॉडल के हिसाब से देश में कोरोनावायरस के प्रसार का आकलन अब तक 95 प्रतिशत से अधिक सटीक साबित हुआ है.

कुछ सलाह

अगर इसे ठीक से लागू किया जाए, तो हम एनईपी 2020 की सिफारिशों से सिर्फ बेहतर नतीजों की ही उम्मीद कर सकते हैं. हालांकि, कुछ खतरे भी हैं. एनईपी के दृष्टिकोण की मूल भावना को सुनिश्चित नहीं किया गया तो इससे काफी नुकसान भी हो सकता है. इसमें सबसे बड़ा खतरा शिक्षण संकाय की ट्रेनिंग और ओरिएंटेशन से जुड़ा है.

भारतीय विश्वविद्यालयों के टीचिंग स्टाफ को व्यापक स्तर पर पारंपरिक तरीके से ही सिखाया जाता है. उन्हें न ही ट्रांस-डिसिप्लिनरी एजुकेशन, प्रोजेक्ट-बेस्ड एजुकेशन का अर्थ और महत्व बताया जाता है और न ही यह समझाया जाता है कि ज्ञान को उद्यमशीलता की गतिविधियों से कैसे जोड़ा जा सकता है. एनईपी में 2022 तक शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक स्थापित करने की सिफारिश की गई है और जैसा की हिन्दुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट बताती है कि उनकी शिक्षा को ‘2030 तक धीरे-धीरे मल्टी-डिसिप्लिनरी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की ओर ले जाया जाएगा’.

स्पष्ट रूप से, एनईपी में भारत की शिक्षा प्रणाली को बदलकर रख देने वाली सभी संभावनाएं हैं लेकिन इसका सारा दारोमदार समुचित अमल पर टिका है. खतरा इसी में निहित है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस-चांसलर, एक विख्यात गणितज्ञ और शिक्षाविद हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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