नई दिल्ली: नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) बुधवार को जारी होने के बाद से सबसे ज्यादा चर्चा जिस बात पर हो रही है, वह है कक्षा 5 तक पढ़ाई का माध्यम ‘मातृभाषा’ में होना.
एनईपी में कहा गया है, ‘जहां तक संभव हो स्कूलों में कक्षा 5 तक के छात्रों को मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा/स्थानीय भाषा में पढ़ाया जाना चाहिए.’ यह विचार ऐसे विभिन्न अध्ययनों के आधार पर शामिल किया गया है, जो दिखाते हैं कि छोटे बच्चे अपनी मातृभाषा या घरेलू भाषा में चीजों को सबसे अच्छी तरह समझते हैं.
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधिकारी इस बात पर जोर देते हैं कि ‘कोई भी भाषा थोपी नहीं जाएगी.’ एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘मातृभाषा में पढ़ाने के पीछे अंग्रेजी-माध्यम की शिक्षा में बाधा डालने का कोई उद्देश्य नहीं है. पॉलिसी डाक्यूमेंट की एक लाइन यह स्पष्ट करती है कि शिक्षक अपने शिक्षण माध्यम में द्वि-भाषी हो सकते हैं.’
एनईपी अपनी मौजूदा स्थिति में केवल एक अनुदेशात्मक दस्तावेज है और सरकार को आने वाले दिनों में इसे लागू करने का एक तरीका सामने लाना होगा.
हालांकि, इससे पहले कि स्कूल नई नीति को लागू करने का कुछ तरीका समझें. अभिभावकों ने इस पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है, जबकि विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया मिलीजुली है.
व्यापक मुद्दे
एक अभिभावक कृष्णिका भट्टाचार्जी, जिनकी बेटी मुंबई के एक स्कूल में कक्षा 2 में पढ़ती है ने कहा, ‘मेरी मातृभाषा बंगाली है और मेरी बेटी एक ऐसे स्कूल में जाती है जहां उसके सहपाठी विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं-ऐसे बच्चे हैं जिनके माता-पिता तमिल बोलते हैं, वहां एक कश्मीरी लड़की भी है… तो ऐसे में स्कूल कैसे तय करेगा कि किस भाषा में पढ़ाया जाए?’
उन्होंने कहा, ‘मुंबई में रहने वाला हर कोई स्थानीय भाषा के रूप में मराठी बोलता है, लेकिन हम इसे घर पर नहीं बोलते. तो मेरे बच्चे को कैसे पढ़ाया जाएगा?’
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मुंबई की ही कविता फंडसे, जिनके बच्चे 5वीं कक्षा में पढ़ते हैं, का कहना है, ‘अगर बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाया जाना तो अंग्रेजी माध्यम स्कूल का क्या मतलब है? मेरा मतलब है कि उन्हें उसी भाषा में चीजों को समझाना अच्छी बात है जिसे वह बेहतर ढंग से जानते हैं, लेकिन पढ़ाई अगर स्थानीय भाषा में ही होगी तो मेरा बच्चा अंग्रेजी कब सीखेगा? आप आज की दुनिया में अंग्रेजी सीखे बिना आगे नहीं बढ़ सकते.’
पूर्व में कक्षा 5 तक क्षेत्रीय भाषाओं में अध्ययन करने वालों का कहना है कि यह नई नीति शोषित परिवारों या उन लोगों के लिए एक बड़ी समस्या होगी जो घर पर अंग्रेजी नहीं बोलते हैं.
केरल के एर्नाकुलम निवासी जेसी जोसेफ ने कहा, ‘मैंने कक्षा 4 तक एक मलयालम माध्यम स्कूल में पढ़ाई की. मैंने कक्षा 5 में अपना पहला अंग्रेजी अक्षर सीखा और यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि अपने बाद के जीवन में अंग्रेजी को समझने में मुझे मुश्किलें आईं. मेरे माता-पिता दोनों मलयालम भाषी हैं, इसलिए मेरे घर में वह माहौल नहीं था.’
एक सफल मॉडल
कम उम्र में मातृभाषा में पढ़ाने के विचार की सराहना करने वालों ने उदाहरण के तौर पर नई दिल्ली स्थित सरदार पटेल विद्यालय (एसपीवी) को सफलता का मॉडल बताया- यह स्कूल कक्षा 5 तक हिंदी-माध्यम है और फिर आगे की कक्षाओं के लिए अंग्रेजी-माध्यम में बदल जाता है.
युगांधर पवार झा ने कहा, ‘मेरे बच्चों ने एसपीवी में पढ़ाई की है और उन्हें कक्षा 5 तक हिंदी में पढ़ाया गया. उन्होंने गणित, विज्ञान, सब कुछ हिंदी में ही सीखा. लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वे उन शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद नहीं सीख रहे थे. उन्हें यह भी साथ में सिखाया गया था.’
झा ने कहा, ‘ऐसे में हिंदी-माध्यम से अंग्रेजी-माध्यम में जाना उनके लिए मुश्किल नहीं था. वास्तव में मैं तो कहूंगा कि शुरुआती दिनों में मातृभाषा में पढ़ाना कोई बुरा विचार नहीं है. इस तरह से एक बच्चा चीजों को बेहतर तरीके से समझ पाता है.’
वहीं, नाम न बताने के इच्छुक एसपीवी के एक पूर्व छात्र का कहना है कि जिन परिवारों में घर में अंग्रेजी बोली जाती है, वहां कोई समस्या नहीं होगी. पूर्व छात्र ने कहा, हम घर पर अंग्रेजी बोलते थे, इसलिए मुझे कक्षा 5 के बाद माध्यम बदलने में बहुत समस्या नहीं आई थी. वास्तव में मेरे अधिकांश सहपाठियों के लिए भी ये मुश्किल नहीं था… वे सभी ऐसे परिवारों से आते थे जो उन्हें ऐसा माहौल दे सकते थे जिसमें अंग्रेजी सीखी जा सके.’
विशेषज्ञ विभाजित
स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव, जिन्होंने एनसीईआरटी को पॉलिटिकल साइंस की पाठ्यपुस्तकों को तैयार करने में मदद की थी, ने इस विचार को ‘सिखाने का सबसे अच्छा तरीका’ बताते हुए सराहा.
यादव ने कहा, ‘मातृभाषा में सिखाना एक ऐसी बात है जो हमेशा हर नीति दस्तावेज में शामिल होती है, और इसे सराहा जाना चाहिए. हर शोधकर्ता इस बात से सहमत होगा कि छात्रों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाना उन्हें सिखाने का सबसे अच्छा तरीका है.’
भारत के तमाम स्कूल, खासकर महानगरीय शहरों और टियर-टू शहरों वाले, शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन यादव इसके बजाये इसे एक भाषा के रूप में पढ़ाए जाने पर जोर देते हैं.
उन्होंने सवाल उठाया, ‘भारत में जहां आपके पास इतनी विविधतापूर्ण आबादी है और तमाम तरह की भाषाओं को जानने वाले लोग है, हमें पढ़ाई के लिए सिर्फ एक भाषा पर ही क्यों आश्रित रहना चाहिए?’
एल्कॉन ग्रुप ऑफ स्कूल्स के निदेशक अशोक पांडे ने भी इस विचार की सराहना की.
पांडे ने कहा, ‘जब हम अंग्रेजी में पढ़ाई की बात करते हैं, तो बहुत सीमित स्कूलों के बारे में बात कर रहे होते हैं, और वह भी ज्यादातर निजी स्कूलों की. राज्यों में तमाम स्कूल हैं जो छात्रों को अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाने में सहज हैं.’
उन्होंने आगे कहा, ‘बेशक, इसे दिल्ली जैसी जगह पर लागू करना चुनौतीपूर्ण होगा, जहां छात्र विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, लेकिन मुझे यकीन है कि इस मसले से निपटने के लिए कोई विकल्प भी होगा.’
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस कदम से बच्चे के लिए भविष्य की संभावनाएं बाधित होंगी.
ओडिशा के ओडीएम पब्लिक स्कूल के निदेशक सोयान सत्येंदु ने कहा. ‘मातृभाषा में शिक्षा देना कोई महान विचार नहीं है. ऐसे में जबकि वैश्वीकरण हर जगह अपनी जड़ें फैला रहा है, भविष्य में हमारे छात्र किसी समुदाय या राज्य का प्रतिनिधित्व नहीं करेंगे, बल्कि दुनिया में कहीं भी भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे हो सकते हैं. मातृभाषा में शिक्षा से बच्चों के अंग्रेजी में बातचीत के लिए तैयार होने पर गंभीर असर पड़ेगा और आने वाले समय में वे दुनिया की वास्तविक चुनौतियों से मुकाबले के लिए कभी तैयार नहीं हो पाएंगे.’
उन्होंने कहा, ‘अपनी कम्युनिटी को बढ़ावा देने और उसकी जड़ों को मजबूत करने के उद्देश्य से छात्रों के लिए मातृभाषा एक विषय के तौर पर अनिवार्य की जा सकती है, लेकिन सभी विषयों को उसी भाषा पढ़ाने पर मेरी तरफ से स्पष्ट ना है.’
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Tum mujhe khoon do main tumhen azadi dunga
Mehnat safalta ki kunji hay