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Monday, 25 November, 2024
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भारत में ऑनलाइन क्लास विकलांग बच्चों की जरूरतों को पूरा नहीं करती, कोविड ने इस स्थिति को बदतर बनाया है

विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा में ज्यादातर सुलभता पर ध्यान दिया जाता है और समावेश के विषय की आमतौर पर अनदेखी की जाती है. कोविड-19 इस स्थिति को बदलने का अवसर साबित हो सकता है.

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विकलांग बच्चों की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था में हमेशा से बेहतरी की गुंजाइश रही है और अब कोरोनावायरस महामारी ने शिक्षा के तरीकों और नियमित कक्षाओं को अचानक डिजिटल बना दिया है. इस व्यवधान का 5-19 वर्ष आयु वर्ग के निशक्त बच्चों की पढ़ाई पर बाकियों के मुकाबले कहीं अधिक नकारात्मक असर पड़ा है, जिनकी संख्या 2011 की जन-गणना के अनुसार करीब 40 लाख है.

हालांकि, नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में दृष्टिबाधित और श्रवणबाधित बच्चों के लिए पीएम ईविद्या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म स्थापित करने की घोषणा की है. लेकिन सार्वजनिक रूप से इस बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई है कि ऑनलाइन कक्षा समेत संपूर्ण डिजिटल शिक्षा को आमतौर पर कैसे उपलब्ध कराया जाएगा.

इसी तरह दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग (सामाजिक न्याय एवं कल्याण विभाग के अधीन) ने कोविड-19 के दौरान निशक्तजनों की सुरक्षा और सलामती के लिए एक व्यापक विकलांग समावेशी दिशानिर्देश जारी किया है, जिसमें इस समुदाय को आवश्यक सेवाएं और सहायता उपलब्ध कराने की बात है. लेकिन इसमें विकलांग बच्चों की शैक्षिक जरूरतों की कोई चर्चा नहीं है. बच्चों के लिए दूरस्थ, मुक्त या घर में रहते हुए पढ़ाई करने का कोई प्रावधान नहीं है.

क्यों अहम है ये मुद्दा?

प्रौद्योगिकी तक पहुंच विकलांग लोगों को बेहतर शैक्षिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अवसर प्राप्त करने में सहायता कर सकती है. डिजिटल शिक्षा को बुनियादी ढांचे और डिजाइन दोनों ही दृष्टि से सुलभ बनाना अंतरराष्ट्रीय और घरेलू स्तर पर एक बाध्यकारी कानूनी दायित्व है.

विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय संधि के अनुच्छेद 9 में राष्ट्रों पर यह सुनिश्चित करने की बाध्यता है कि विकलांग व्यक्ति सूचना, संचार और प्रौद्योगिकी (आईसीटी) प्रणालियों का लाभ उठा सकें. इसी तरह दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम 2016 की धारा 42 सरकारों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देती है कि ‘ऑडियो, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का सारा कंटेंट सुगम्य प्रारूप’ में उपलब्ध हो.

असल समस्या

डिजिटल शिक्षा को सुलभ बनाने का वर्तमान तरीका पुराना पड़ चुका है और इसमें समन्यवय का अभाव है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 2012 में स्कूली शिक्षा में आईसीटी पर एक राष्ट्रीय नीति प्रकाशित की थी, जो डिजिटल शिक्षा में सार्वभौमिक डिजाइन सिद्धांतों पर मौन है और उसमें 2018 में जारी नवीनतम वेब कंटेंट सुगम्यता दिशानिर्दशों (डब्ल्यूसीएजी) का उल्लेख नहीं है.

खुद मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नीति में दिव्यांगजनों के वास्ते आईसीटी की सुलभता सुनिश्चित करने के लिए 2018 में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) द्वारा की गई सिफारिशों को कोई जिक्र नहीं है. इसके अलावा, अंतर-मंत्रालयीय संचालन समिति, जिसे ट्राई की सिफारिशों के तहत स्थापित करने का प्रस्ताव है, में मानव संसाधन मंत्रालय को शामिल नहीं किया गया, जिससे यही संकेत मिलता है कि डिजिटल शिक्षा की सुलभता के मुद्दे पर समन्वित प्रयास नहीं किए जा रहे हैं.

इस तरह समन्वय के अभाव से यही जाहिर होता है कि बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (आरटीई अधिनियम) केवल स्कूलों में भौतिक ढांचे के लिए मानक और मानदंड निर्धारित करता है. आरटीई अधिनियम की ‘अनुसूची’ में केवल ये कहा गया है, प्रत्येक कक्षआ को पठन-पाठन के उपकरण आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराए जाएंगे. इसमें इस बात पर विचार नहीं किया गया है कि इस तरह के साधन डिजिटल भी होने चाहिए और यदि डिजिटल हों, तो उन्हें समावेशी भी होना चाहिए.


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समाधान

सबसे पहले कदम के तौर पर समावेशी शिक्षा के लिए एक समन्वित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जो सार्वभौमिक सुगम्यता मानदंडों को एक पूरक लक्ष्य की बजाय कंटेंट निर्माण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग बनाता हो. संबंधित प्रधान मंत्रालय – मानव संसाधन विकास मंत्रालय – को इलेक्ट्रॉनिक्स और आईटी मंत्रालय के साथ-साथ दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग के साथ मिलकर विकलांग छात्रों की डिजिटल शिक्षा के बुनियादी ढांचे के लिए मानकीकृत दिशानिर्देश तैयार करना चाहिए, जो कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 के अनुरूप हो और इस दिशा में अगला कदम शिक्षा क्षेत्र के सभी आईसीटी सेवा प्रदाताओं (सार्वजनिक और निजी) के लिए इन दिशानिर्देशों को अनिवार्य बनाने का होना चाहिए.

इसके साथ ही तमाम सरकारी वेबसाइटों को दिव्यांगजनों के लिए सुलभ बनाने के लिए ट्राई की 2018 की सिफारिशों को अविलंब कार्यान्वित किया जाना चाहिए.

जहां तक कानूनों और नीतियों की बात है तो स्कूली शिक्षा में आईसीटी पर राष्ट्रीय नीति की समीक्षा और उसे अद्यतन किए जाने की जरूरत है ताकि डिजिटल शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए व्यापक दिशानिर्देश तैयार किए जा सकें. इसी तरह, आरटीई अधिनियम की अनुसूची को संशोधित कर उसमें स्कूलों के लिए समावेशी डिजिटल शिक्षा के मानकों और मानदंडों को शामिल किया जाना चाहिए. साथ ही शिक्षा में आईसीटी की सुलभता के मानकों को दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम की धारा 40 में शामिल किया जाना चहिए.

आगे की राह

कोविड-19 महामारी के कारण सोशल डिस्टेंसिंग और क्वारेंटाइन की अनिवार्यता ने विकलांग बच्चों के लिए स्थितियों को और अधिक जटिल बना दिया है. लेकिन महामारी ने मानवता के लिए अभूतपूर्व मुश्किलें पैदा करने के साथ ही आत्मनिरीक्षण करने और नए उपाय ढूंढने के अवसर भी दिए हैं.

विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा में ज्यादातर सुलभता पर ध्यान दिया जाता है और समावेश के विषय की आमतौर पर अनदेखी की जाती है. लेकिन कोविड-19 समावेश को सच करने का अवसर साबित हो सकता है बशर्ते प्रौद्योगिकी-आधारित पढ़ाई के ज़रिए सभी बच्चों के लिए शिक्षा का साझा आधार तैयार किया जाए. ई-शिक्षण विधियों का व्यापक इस्तेमाल स्पेशल शिक्षकों को एक साथ अधिकाधिक बच्चों तक पहुंचने में भी मददगार साबित होगा.

ये सब तभी संभव है जब मोदी सरकार शिक्षा को वास्तव में समावेशी और सार्वभौम बनाने के लिए प्रौद्योगिकी और अन्य क्षमताएं निर्मित करने में सक्रिय रुचि ले.

‘टुवर्ड्स अ पोस्ट-कोविड इंडिया’ नामक पुस्तिका में विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा अनुशंसित 25 कानूनी सुधारों की चर्चा की गई है. इस संबंध में आप ‘लॉ विद डिफरेंस’ नाम से आयोजित चर्चाओं में शामिल हो सकते हैं. दिप्रिंट इस परियोजना में डिजिटल सहयोगी है. इस सीरीज के सारे लेख यहां पढ़े जा सकते हैं.

(लेखिका विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में प्रोजेक्ट अध्येता हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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