उत्तर प्रदेश पुलिस की एक कथित मुठभेड़ में गैंगस्टर विकास दुबे को मार गिराए जाने के बाद भारत में अपराध और राजनीति की सांठ-गांठ एक बार फिर सुर्खियों में है. 3 जुलाई को दुबे और उसके गुर्गों ने कानपुर में गोलीबारी कर आठ पुलिसकर्मियों को मार डाला था, जब कुछ स्थानीय अधिकारियों ने उसके खिलाफ होने वाली छापेमारी की पूर्व सूचना उसके गिरोह तक पहुंचा दी थी. आरोप लगाए जा रहे हैं कि संभवत: कुछ नेताओं और पुलिस अधिकारियों ने मध्य प्रदेश के उज्जैन पहुंचने में उसकी मदद की थी, जहां गुरुवार को उसे गिरफ्तार किया गया.
गिरफ्तारी और मुठभेड़ दोनों ने ही विभिन्न राजनीतिक दलों को आक्रोशित कर दिया, सिवाय उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के जो कि विपक्ष की आलोचना झेल रही है. इस तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं कि विकास दुबे को एक छोटे अपराधी से बड़ा गैंगस्टर बनाने में मददगार रहे नेताओं और पुलिस अधिकारियों को बचाने के लिए यूपी की भाजपा ने उसे मुठभेड़ में खत्म कराया है.
सच्चाई ये है कि बीते वर्षों में उत्तर प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारों ने विकास दुबे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. सभी ने उसे बचाया और कानून से बेखौफ अमीर नेता बनाने में उसका सहयोग किया. और इस तरह की मदद पाने वाला वो कोई अकेला अपराधी नहीं रहा है.
भारत ऐसे अपराधियों से भरा पड़ा है जो नेताओं से संरक्षण पाते हैं और उन्हें संरक्षण देते हैं. यही कारण है कि हमारी विधानसभाओं और संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जनप्रतिनिधियों की भरमार है.
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पुलिस पर नियंत्रण
विकास दुबे जैसे मामले आते रहते हैं लेकिन मेरी जानकारी में भारत की क्षेत्रीय या राष्ट्रीय, किसी भी राजनीतिक पार्टी ने पुलिस सुधारों की बात नहीं की है, न ही इस बाबत कोई कदम उठाया है. सिर्फ वे राजनीतिक फायदे के लिए सत्तारूढ़ पार्टी की आलोचना करते हैं. इसके विपरीत अमेरिका में जब एक गोरा पुलिस अधिकारी जॉर्ज फ्लॉयड नामक एक काले नागरिक की हत्या कर देता है तो तीन सप्ताह के भीतर राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पुलिस सुधारों के लिए कार्यकारी आदेश जारी कर देते हैं, उधर विपक्षी डेमोक्रेट्स भी संसद के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में पुलिस सुधारों पर एक विधेयक को पारित कराते हैं.
भारत में हम अब भी ब्रितानी राज के दौरान स्थापित औपनिवेशिक पुलिस व्यवस्था से काम चला रहे हैं. भारत के पुलिस बल अभी भी 1861 के पुलिस अधिनियिम के तहत काम करते हैं जो पुलिस को कार्यपालिका के प्रति जवाबदेह बनाता है, न कि कानून और संसद के प्रति.
इसका बिल्कुल सरल कारण है. भारत का कोई भी राजनीतिक दल पुलिस पर नियंत्रण नहीं छोड़ना चाहता क्योंकि इससे उसकी राजनीतिक और निजी हित सधते हैं. अनेक पुलिस आयोग, समिति, रिपोर्ट और यहां तक कि अपने आदेशों के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट तक कई पुलिस सुधारों की अनुशंसा कर चुके हैं लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें इनमें से किसी की भी सिफारिश को पूर्णतया लागू करने में नाकाम रही हैं.
दूसरी तरफ, किसी राज्य में चुनाव के बाद जब भी सत्ता बदलती है, पहले आधिकारिक तबादले आमतौर पर पुलिस महानिदेशक और उनके मातहत कुछेक अधिकारियों के ही होते हैं. नई पोस्टिंग राजनीतिक नजदीकी, जाति और पंथ, वफादारी, व्यक्तिगत एजेंडे और कभी-कभी पैसे के आधार पर की जाती हैं. और फिर एक दिन पहले तक सत्ता में रहा राजनीतिक दल पुलिस के कामकाज को लेकर नई सत्तारूढ पार्टी की आलोचना करने लगता है, मानो पुलिस और उसकी कार्यप्रणाली रातोंरात बदल गई हो.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही पूरे भारत के सभी राज्यों में यही मानक व्यवहार रहा है. पुलिस नेतृत्व भी कई बार निष्पक्ष तरीके से अपना काम करने में विफल रहा है तथा अपने आराम एवं कतिपय फायदों के लिए नेताओं से हाथ मिला चुका है. राजनीतिक और प्रशासनिक संकटों के दौरान वे एक-दूसरे की मदद भी करते हैं. ऐसे में पुलिस निष्पक्षता के साथ कैसे काम कर सकती है?
समय पुलिस सुधारों का
भारत को अविलंब पुलिस सुधारों की ज़रूरत है. इस दिशा में पहला कदम होगा देश के राजनीतिक वर्ग का पुलिस बलों पर अपना प्रत्यक्ष नियंत्रण छोड़ना. एक बार उद्गम के स्तर पर ज़रूरी बदलाव हो जाए तो बाकी चीज़ें स्वत: ही पटरी पर आने लगेंगी. पुलिस को सिर्फ देश के कानून तथा संसद/विधानसभाओं के प्रति जवाबदेह होना चाहिए. बेशक भारत में पुलिस व्यवस्था को बदलने के लिए बहुत से अन्य प्रयासों की ज़रूरत होगी जिनमें भर्ती, प्रशिक्षण, पर्याप्त संख्या बल, तैनाती और स्थानांतरण, बुनियादी ढांचा, फॉरेंसिक जांच लैब, साइबर प्रकोष्ठ, परिवहन और रिहाईश तथा कानून एवं प्रक्रिया संबंधी सुधार, और साथ ही न्यायपालिका में सुधार शामिल हैं.
यदि हम भारत के प्रत्येक नागरिक, विशेष कर गरीबों, हाशिये पर पड़े लोगों, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के लिए न्याय सुनिश्चित करना चाहते हैं, और भारत को यदि आर्थिक सुपरपावर बनाना है, तो पुलिस में सुधार कर उसे तमाम गड़बड़ियों से मुक्त करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. परिवर्तनशील प्रौद्योगिकी, जनसंख्या वृद्धि, बढ़ते अंतरराष्ट्रीय व्यापार के कारण आर्थिक विकास पर ज़ोर, बाहरी निवेश और भू-राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव जैसी नई चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत के पुलिस बलों को भी बदलना होगा ताकि वे सभी हितधारकों के लिए समान रूप से और निष्पक्षता के साथ काम कर सकें.
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भारतीय संविधान के अनुसार पुलिस राज्य का विषय है, इसलिए इस संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सहमति की दरकार है. उदाहरण के लिए, यदि राजनीतिक वर्ग पुलिस को संघीय या समवर्ती सूची में लाने के लिए संविधान में संशोधन की ज़रूरत महसूस करता है, तो सभी पक्षों में सहमति की आवश्यकता होगी. उन्हें समझना होगा कि नई व्यवस्था सबकी बेहतरी के लिए होगी.
दुर्भाग्य से, पुलिस में सुधारों को लेकर गहरी खामोशी व्याप्त है क्योंकि पुलिस पर राजनीतिक नियंत्रण के फायदे जो हैं. हमेशा की हम एकमात्र उम्मीद केंद्र में एक ताकतवर सरकार से कर सकते हैं, जो कि आज़ादी के बाद कई बार आ चुकी है. लेकिन चूंकि सत्तासीन वर्ग भी राजनीतिक दलों से संबद्ध होता है इसलिए वह पुलिस पर अपना नियंत्रण खोना नहीं चाहता. ऐसे में विकास दुबे जैसे मामले इस बात का बोध कराते हैं कि उन्हें क्यों अपना रवैया बदलना चाहिए. यह पुलिस बलों के हित में, और अंतत: राष्ट्र और जनता के हित में होगा.
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(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)