नई दिल्ली: स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन अपने कोविड-19 से उबरने का श्रेय प्लाज्मा थेरेपी को देते हैं और इसकी सफलता की कहानियां देशभर में छाई हुई हैं. यद्यपि दुनियाभर को पस्त कर देने वाली एक बीमारी के खिलाफ इसका असरदार होना, साबित करने के लिए तमाम परीक्षण चल रहे हैं, मरीजों के लिए दानकर्ता खोजना आसान बनाने के लिए प्लाज्मा बैंक खोल दिए गए हैं.
सोशल मीडिया पर प्लाज्मा दानकर्ताओं से अपीलों की बाढ़ आ चुकी है और कोविड-19 से ठीक हो चुके कई हाई प्रोफाइल मरीज अपना प्लाज्मा अभी इलाजरत मरीजों को देने का या तो फैसला कर चुके हैं या दे भी चुके हैं.
आज जब दुनियाभर के देशों में कोविड महामारी पर काबू पाने के लिए कई तरह के इलाज पर प्रयोग जारी हैं, प्लाज्मा थेरेपी ऐसे मरीजों के इलाज में आशा की किरण के तौर पर नज़र आई है जिन पर कुछ और असर नहीं कर रहा. पिछले महीने के अंत में, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे सरकार ने गंभीर तौर पर बीमार मरीजों के लिए दुनिया का सबसे बड़ा प्लाज्मा थेरेपी परीक्षण शुरू किया.
6 जुलाई तक इलाज में प्लाज्मा थेरेपी की प्रभावकारिता का अध्ययन करने के लिए भारत में 11 परीक्षण पंजीकृत थे. इसके अलावा अन्य अस्पताल भी परीक्षणात्मक, केस-टू-केस आधार पर इसे आजमा रहे हैं.
लेकिन दिल्ली के अस्पतालों और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इससे ठीक होने की घटनाओं के फेस वैल्यू के तौर पर आकलन में सावधानी बरतने को कहा है. वे कहते हैं कि प्लाज्मा थेरेपी परीक्षणों के परिणाम ‘उत्साहजनक’ रहे हैं लेकिन यह कोई जादू की छड़ी नहीं है.
विशेषज्ञों का कहना है कि थेरेपी को लेकर जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है, उसका आदर्श स्थिति में अध्ययन का कोई निर्णायक नतीजा आने तक इंतजार किया जाना चाहिए.
विभिन्न अस्पतालों में थेरेपी को लेकर व्यवस्था को देखते हुए नियमों या इसके अभाव के बारे में भी सवाल उठाए गए हैं. एक विशेषज्ञ ने इंगित किया कि बहुत कुछ ‘पर्याप्त जांच और संतुलन के बिना’ हो रहा है.
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एक प्रायोगिक इलाज
कोविड-19 के इलाज के तौर पर प्लाज्मा थेरेपी में ठीक हो चुके मरीज का प्लाज्मा ऐसे लोगों को चढ़ाया जाता है जिनका शरीर बीमारी का मजबूती से प्रतिरोध करने में सक्षम नहीं होता है. प्लाज्मा थेरेपी के पीछे विचार यह है कि ठीक हो चुके मरीज के प्लाज्मा में मौजूद एंटीबॉडी का इस्तेमाल दूसरे मरीज को इस बीमारी से लड़ने में मदद पहुंचाने के लिए हो सके.
भारत में पहली बार अप्रैल में दिल्ली के मैक्स हेल्थकेयर में कोविड-19 मरीज पर इस थेरेपी को आजमाया गया था. मरीज ठीक हो गया था.
13 जून को स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अस्पतालों को प्लाज्मा थेरेपी के ‘ऑफ लेबल’ उपयोग को मंजूरी दे दी, जिसका आशय है ‘परीक्षण चिकित्सा’ के रूप में और केवल कुछ शर्तों के तहत अनौपचारिक अनुमति दिया जाना.
दिशानिर्देश यह स्पष्ट करते हैं कि इस थेरेपी का इस्तेमाल ‘सीमित उपलब्ध साक्ष्यों पर आधारित’ है.
सरकार लगातार इस पर कायम है कि उपचारात्मक प्लाज्मा थेरेपी प्रायोगिक स्तर पर बनी हुई है और इसे इलाज की नियमित प्रक्रिया के तौर पर अपनाने की सलाह नहीं दी जाती है. जैसी कि व्यवस्था है, सरकार केवल बीमारी के मध्यम लक्षण वाले मरीजों के लिए इसकी सिफारिश करती है.
अपोलो इंद्रप्रस्थ के ग्रुप मेडिकल ऑफिसर डॉ. अनुपम सिब्बल ने बताया, ‘यह बताने वाले कुछ साक्ष्य हैं कि प्लाज्मा थेरेपी वायरल लोड को कम करती है और फेफड़ों को होने वाला नुकसान बढ़ने से रोकती है. लेकिन हमारे पास दावे की मजबूती के लिए पर्याप्त डाटा नहीं है.’
उन्होंने कहा, ‘वास्तव में हमें अधिक सख्त निगरानी वाले परीक्षणों की आवश्यकता क्यों है: एक, इसलिए कि हम अधिक डाटा हासिल कर सकें, लेकिन साथ ही हम इस नतीजे पर भी पहुंच सकें कि प्लाज्मा किस स्थिति में प्रभावी है और कब ऐसा नहीं है.’
दिप्रिंट ने ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) डॉ. वी.जी. सोमानी से कई बार फोन कॉल, टेक्स्ट मैसेज और ईमेल के माध्यम से संपर्क किया लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के समय तक उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.
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मिली-जुली प्रतिक्रिया
प्लाज्मा थेरेपी परीक्षणों के संचालन के लिए पंजीकृत अस्पतालों ने अपनी-अपनी अध्ययन प्रक्रिया और समयसीमा रखी थी, जिन्हें तब डीसीजीआई ने अनुमोदित कर दिया था. 6 जुलाई तक क्लीनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया (सीटीआरआई) ‘उपचारात्मक प्लाज्मा’ के तहत 11 विभिन्न कोविड-19 परीक्षण को सूचीबद्ध किया है.
परीक्षण की प्रगति के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिए दिप्रिंट कुछ अस्पतालों में पहुंचा. अधिकतर डॉक्टरों ने कहा कि किसी नतीजे पर पहुंचना अभी बहुत जल्दबाजी होगी लेकिन दावा किया कि अब तक की प्रतिक्रिया ‘उत्साहजनक’ रही है.
देश में सबसे बड़े कोविड-19 फैसिलिटी दिल्ली का लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल, इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर एंड बिलियरी (आईएलबीएस) के सहयोग से अपने दूसरे प्लाज्मा थेरेपी परीक्षण में जुटा है. अस्पताल वर्तमान में 400 मरीजों पर अध्ययन कर रहा है, जिनमें से 200 को बीमारी के मध्यम लक्षण के स्तर पर उपचारात्मक प्लाज्मा दिया जाना है.
चिकित्सा अधीक्षक डॉ. सुरेश कुमार ने कहा, ‘हमने पहले वाले में सुधार दिखने के बाद दूसरे पायलट प्रोजेक्ट के लिए आवेदन किया है. पहले परीक्षण में केवल 20 मरीज शामिल थे, इसलिए इस बार हम एक बड़ा पूल चाहते थे. 200 में से 15 पर यह थेरेपी आजमाई गई है और उनकी हालत में अच्छा सुधार दिखा है.
हालत में सुधार को ऑक्सीजन सैचुरेशन लेवल और अन्य मापदंडों के आधार पर आंका जाता है.
दिल्ली के राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल के चिकित्सा निदेशक डॉ. बी.एल. शेरवाल ने कहा कि दानकर्ता की प्रतिरोधक क्षमता इस उपचार का एक महत्वपूर्ण घटक है. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘दानकर्ता के एंटीबॉडी स्तर की जांच करना अहम है, अन्यथा प्लाज्मा लेने वाले व्यक्ति पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा.’
जसलोक अस्पताल, मुंबई में संक्रामक रोग मामलों के निदेशक डॉ. ओम श्रीवास्तव ने कहा, ‘यदि आप ब्लड टेस्ट और कुछ नैदानिक मापदंडों और बीमारी की सही अवस्था के आधार पर सही तरह से अपने मरीज को चुनते हैं तो प्लाज्मा थेरेपी सफल होने की संभावना अधिक है.’ साथ ही जोड़ा कि मध्यम से गंभीर श्रेणी के मरीजों के लिए सफलता की दर ‘लगभग 100 प्रतिशत’ रही है.
लेकिन कुछ डॉक्टर चिंतित हैं.
अपोलो इंद्रप्रस्थ, जो 100 मरीजों पर परीक्षण कर रहा है, के डॉ. राजेश चावला ने कहा कि इसका आकलन करना आवश्यक है.
उन्होंने कहा, ‘किसी भी अध्ययन ने इसकी प्रभावकारिता नहीं दिखाई है. इसे प्रभावी माना जाता है. बहुत से लोग इसके बिना भी ठीक हो रहे हैं और अभी इस बारे में कुछ बताना जल्दबाजी होगा. इसे केवल उचित सावधानी के साथ आजमाया जाना चाहिए.’
नई दिल्ली स्थित लेडी हार्डिंग, जो आईसीएमआर के अप्रैल में शुरू हुए देशव्यापी पीएलएसीआईडी परीक्षण का हिस्सा है, के चिकित्सा निदेशक डॉ. एन.एन. माथुर ने कहा, ‘अभी किसी नतीजे पर पहुंच जाना जल्दबाजी होगी. एक तरफ जहां चार में से तीन मरीजों को ठीक होने के बाद छुट्टी दे दी गई है, एक मरीज की मौत भी हो चुकी है.’
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की एक वैज्ञानिक डॉ. अपर्णा मुखर्जी ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि देशव्यापी प्लाज्मा परीक्षण, जिसमें 452 व्यक्ति शामिल हैं, के नमूनों में से दो-तिहाई पूरे हो चुके हैं. यह पूछे जाने पर कि परिणाम कब तक संभावित हैं, उन्होंने कहा कि ‘कुछ हफ़्ते में.’ उन्होंने कहा, ‘आमतौर पर इसमें अधिक समय लगता है, खासकर जब यह देशभर में चला रहा है और हम एक अस्पष्ट जानकारी नहीं देना चाहते हैं.’
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‘नियमन का अभाव’
यद्यपि कुछ अस्पताल सरकारी स्तर पर पंजीकृत क्लीनिक ट्रायल के तौर पर इलाज कर रहे हैं, कुछ अन्य यह काम ‘ऑफ-लेबल’ स्तर पर ही कर रहे हैं. दोनों मामलों में, विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कि चिकित्सा वास्तव में किन परिस्थितियों में और कितनी लाभकारी साबित हो रही है, बेहतर नियमन की पुख्ता व्यवस्था करनी चाहिए.
प्लाज्मा थेरेपी आजमाने वाले अस्पतालों की संख्या और वे किन प्रोटोकॉल का पालन कर रहे हैं, ये अभी काफी हद तक ज्ञात नहीं है. सरकार ने प्लाज्मा थेरेपी की पेशकश करने वाली हेल्थकेयर फैसिलिटी की कोई सूची जारी नहीं की है और न ही इसके प्रबंधन के संबंध में कोई मानक संचालन प्रक्रिया नज़र आती है.
कोई भी अस्पताल या डॉक्टर परीक्षण के उद्देश्य का हवाला देकर और अस्पताल की आचार समिति के अनुमति के साथ किसी भी मरीज पर इसे आजमा सकता है.
प्लाज्मा थेरेपी की सुविधा यदि क्लिनिकल परीक्षण के तहत हो तो मुफ्त में उपलब्ध है. हालांकि, अलग-अलग केस के आधार पर इस पर 11,000-20,000 रुपये के बीच खर्च आता है.
एक चिकित्सक और बायोएथिक्स और सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ, अमर जेसानी का कहना है, ‘चूंकि सरकार ने प्लाज्मा डोनेशन के क्लीनिक ट्रायल में किसी निर्णायक नतीजे के बिना ही अस्पतालों का इस थेरेपी का इस्तेमाल करने की अनुमति दी है, इसलिए हम इसमें एक बिजनेस मॉडल भी देख रहे हैं.’
ऐसी पहल के विज्ञापनों के पीछे राजनीतिक ‘प्रचार’ की आलोचना करते हुए जेसानी ने कहा कि वैज्ञानिक पहलुओं पर ध्यान देने के बजाय यह ऐसी होड़ का मामला बन गया है कि कौन-सी पार्टी ज्यादा दानकर्ता जुटाएगी.
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के संपादक के रूप में काम करने वाले जेसानी ने कहा, ‘यह ठीक उसी तरह का है जैसा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीइन परीक्षणों के मामले में हुआ.’
उदाहरण के लिए, मैक्स हेल्थकेयर में, मरीजों से शुल्क लिया जा रहा है, जबकि क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री ऑफ इंडिया के मुताबिक वहां पर परीक्षण चल रहा है.
मैक्स ने 29 जून को दिप्रिंट को दिए एक बयान में कहा था, ‘डीजीसीआई की मंजूरी के तहत चल रहे क्लिनिकल ट्रायल के एक हिस्से के तौर पर मैक्स हेल्थकेयर ने 50 मरीजों को इलाज के लिए भर्ती किया है.’
मैक्स हेल्थकेयर के समूह चिकित्सा निदेशक डॉ. संदीप बुधिराज ने कहा कि मरीजों से प्लाज्मा की एक यूनिट के लिए 11,000 रुपये लिए जा रहे हैं, जिसमें ‘प्लेटलेट्स और प्लाज्मा प्रोसेसिंग के लिए डोनर की स्क्रीनिंग’ भी शामिल है.
यह पूछे जाने पर कि एक एक्टिव क्लीनिकल ट्रायल के दौरान मरीजों से पैसे क्यों लिए जा रहे हैं, डॉ. बुधिराज ने बाद में दिए एक साक्षात्कार में कहा, ‘हमारे परीक्षण पूरे हो चुके हैं. जो मरीज परीक्षण का हिस्सा थे उन्हें इसके बारे में पता था और उनसे इलाज का शुल्क नहीं लिया गया था. अस्पताल में अब जो मरीज आ रहे हैं उनसे शुल्क लिया जा रहा है.’
जब पूछा गया तो मैक्स ने परीक्षण खत्म होने की तारीख के बारे में खुलासा नहीं किया.
राजधानी के अन्य अस्पतालों में भी इलाज के अनुरूप शुल्क लिया जाता है- उदाहरण के तौर पर, ‘ऑफ लेबल’ और ‘मानवीय आधार’ पर इलाज की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए फोर्टिस अस्पताल 20,000 रुपये और बी.एल. कपूर अस्पताल, 11,000 रुपये का शुल्क वसूलता है.
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बी.एल. कपूर अस्पताल में आईसीयू निदेशक डॉ. राजेश पांडे ने बताया कि शुरुआत में तो मुफ्त इलाज सुविधा प्रदान की जा रही थी, साथ ही जोड़ा कि प्लाज्मा निकालने वाली मशीनों का उपयोग करना काफी खर्चीला है. उन्होंने कहा, ‘हम जो शुल्क ले रहे हैं वह नाममात्र का है क्योंकि मशीनें काफी महंगी हैं और इस प्रक्रिया के दौरान पूरे स्टाफ की मौजूदगी और सतर्कता जरूरी होती है.’
पांडे ने आगे बताया, ‘हम शुरू में परीक्षण करना चाहते थे. लेकिन फिर मैंने अपने संबद्ध अस्पतालों में से एक से यह सुना कि उसने जिस डाटा का आकलन किया वह उत्साहजनक नतीजे नहीं दिखाता हैं, यही वजह है कि हमने थेरेपी का इस्तेमाल मानवीय आधार और ऑफ-लेबल स्तर पर करने का फैसला किया.
वैश्विक स्वास्थ्य, बायोएथिक्स और स्वास्थ्य नीति के एक शोधकर्ता डॉ. अनंत भान ने कहा कि जब प्लाज्मा थेरेपी के नियमन की बात आती है, तो बहुत सारी चीजों को स्पष्ट करने की जरूरत होगी.
उन्होंने कहा, ‘यह नैसर्गिक रूप से अभी प्रयोगात्मक स्तर पर है, और इसे हर स्तर पर मजबूत करने की जरूरत है. प्लाज्मा बैंक या प्लाज्मा कैंपेन के संदर्भ में बात करें तो इस तरह के व्यापक प्रचार से पहले अध्ययन के नतीजों का इंतजार करना उचित होगा.’
उन्होंने कहा कि अध्ययन पर नजर रखना आवश्यक है और मौजूदा परीक्षणों की निगरानी हो और समय-समय पर जानकारी दी जाए. उन्होंने आगे कहा कि सार्वजनिक स्तर पर सूचना का अभाव भी मामले को जटिल बनाता है.
‘कोई भी अस्पताल चाहे वह आईसीएमआर के परीक्षण का हिस्सा हो या खुद अपने स्तर पर परीक्षण कर रहा हो, सब कुछ विनियमित होना चाहिए और आदर्श स्थिति में अध्ययन की जानकारी निष्पक्ष तरीके से एक ही मंच (जैसे सीटीआरआई) पर उपलब्ध होनी चाहिए क्योंकि बहुत कुछ पर्याप्त जांच और संतुलन के बिना हो रहा है.
(मानसी फड़के और संध्या रमेश के इनपुट के साथ)
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