रांची: झारखंड सरकार के नए आदेश में अब जंगल में रहने वाले आदिवासियों-वनवासियों को जंगल से सूखी लकड़ी काटने से पहले वन विभाग से अनुमति लेनी होगी. वन विभाग के प्रधान सचिव अरेंद्र प्रताप सिंह की ओर से जारी आदेश के मुताबिक, अगर अनुमति मिल जाती है तो 25 रुपए प्रति घन मीटर लकड़ी का शुल्क देना होगा. इसका उल्लंघन करने पर वन विभाग भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत मुकदमा करने के लिए स्वतंत्र होगा.
इस आदेश को जारी करने वाले वन विभाग के प्रधान सचिव एपी सिंह का कहना है, ‘वनाधिकार कानून का कहीं से उल्लंघन नहीं है. वन क्षेत्र से बाहर जाकर लकड़ी का कारोबार करने पर शुल्क लगाया गया है. गांव में या हाट-बाजार में बेचने पर प्रतिबंध नहीं है.’ जबकि वनाधिकार कानून के मुताबिक यह अधिकार भी ग्रामसभा के पास है.
एपी सिंह कहते हैं, ‘आपको जो करना है कर लीजिए. वनाधिकार कानून में यह छूट है क्या कि जंगल से लकड़ी ले जाकर बेच देगा? ये जो ऑर्डर दिया गया है वह सुप्रीम कोर्ट से वैलिडेटेड है. आदेश में वनवासियों के अधिकारों की पूरी सुरक्षा की गई है.’
फिलहाल ये उस राज्य में हो रहा है जहां वन विभाग सीएम हेमंत सोरेन के पास है. जहां 6 महीने पहले संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में वनाधिकार कानून सबसे बड़ा मुद्दा था. हेमंत सोरेन आदिवासियों में तत्कालीन बीजेपी सरकार के खिलाफ यह डर बनाने में कामयाब हुए थे कि अगर उसकी सरकार आती है तो आदिवासियों के वन अधिकार छीन लिए जाएंगे.
इलेक्शन वाच नामक संस्था की ओर से चुनाव के वक्त जारी रिपोर्ट के मुताबिक फॉरेस्ट राइट्स एक्ट का असर झारखंड के 81 विधानसभा सीटों में कुल 62 सीटों पर था. यही वजह थी कि कुल 28 सुरक्षित सीटों में से 26 सीटों पर बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था.
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फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 क्या कहता है
फॉरेस्ट राइट्स एक्ट 2006 के मुताबिक वनवासियों के जो परंपरागत अधिकार रहे हैं उसको बहाल किया गया है. इसके तहत घर बनाने, हल बनाने, जलावन के लिए जंगल से सूखी लकड़ी लाना, जंगल की जमीन पर खेती करना, कंद-मूल, फल लाना. जंगल के भीतर की जो संपदा है (खनिज नहीं) उसकी ढ़ुलाई, उसके आवागमन के लिए ग्रामसभा परमिट जारी करेगी. यानी किसको लकड़ी लेना है, किसको देना है, यह तय करने का अधिकार जंगल के भीतर रह रहे गांव और उसकी ग्रामसभा के पास है.
कुल कितना है वन क्षेत्र
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की ओर से 2019 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में 23,605 स्क्वायर किमी एरिया वन क्षेत्र है. यानी राज्य की कुल भूमि का 29.62 प्रतिशत. इसमें 4,387 स्क्वायर किमी रिजर्व फॉरेस्ट एरिया है. वहीं 19,185 स्क्वायर किमी को सुरक्षित वन इलाके में रखा गया है. जबकि 33 स्क्वायर किमी वन एरिया का निर्धारण नहीं किया गया है. इसे अनक्लास्ड फॉरेस्ट में रखा गया है.
मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट हेमंत से नाराज
वहीं वनाधिकार कानून के लिए लगातार लड़ाई लड़ने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग उन लोगों में हैं जो बीते चुनाव से पहले गांवों में जाकर वनाधिकार कानून के लिए पूर्व की बीजेपी सरकार के खिलाफ माहौल तैयार कर रहे थे. वह कहते हैं, ‘वनाधिकार कानून तीन तरह का अधिकार देता है. एक तो व्यक्तिगत अधिकार, दूसरा कम्युनिटी राइट, तीसरा वनोपज अधिकार. झारखंड सरकार का वर्तमान आदेश इन तीनों का सरासर उल्लंघन है.’
वो ये भी कहते हैं, ‘चाहे हेमंत हों, रामेश्वर उरांव हो या अन्य अधिकारी, उन्हें वनाधिकार कानून की पूरी जानकारी नहीं है. उन्हें बेसिक समझना चाहिए कि आदिवासी की पहचान, जीविका जंगल और जमीन पर निर्भर है. उसे ही खत्म कर देंगे तो वह क्या करेगा.’
झारखंड वनाधिकार मंच के संयोजक फादर जॉर्ज मोनोपोली कहते हैं ‘जब 2006 में फॉरेस्ट राइट्स एक्ट पास हुआ तो फिर 1927 में बने एक्ट का हवाला वन विभाग क्यों दे रहा है? दूसरी बात फॉरेस्ट प्रोडक्ट से संबंधित किसी भी तरह का नियम बनाने के लिए आदिवासी मामलों का विकास मंत्रालय नोडल विभाग है, न कि झारखंड सरकार का वन विभाग.’
वनाधिकार कानून के जानकार सुधीर पाल बताते हैं, ‘वनाधिकार कानून 2006 का अध्याय 2 साफ कहता है कि वन उत्पाद को जमा करना, व्यापार करना, इस्तेमाल करना वनवासियों का पारंपरिक अधिकार है. चाहे वह गांव की सीमा के भीतर हो या बाहर.’
उनकी बात को इसी एक्ट के अध्याय 3 के सेक्शन 4(1) में लिखी बात पुख्ता करती है. जहां साफ लिखा है, ‘सभी वन अधिकारों के बाबत अन्य परंपरागत वन निवासियों के वनाधिकारों को मान्यता प्रदान करती है उसमें निहित करती है.’
रघुवर दास ने कहा हर दिन साफ हो रहा आदिवासी विरोधी है सरकार
इस पूरे मसले पर पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास कहते हैं, ‘हमारी सरकार के समय में वनवासियों के वन क्षेत्रों में होने वाले उपज पर किसी तरह का शुल्क नहीं लिया जाता था. आदिवासियों को अधिकार देने का काम किया था. बड़ी संख्या में लोगों को वनाधिकार पट्टा बांटा गया जिससे कई भूमिहीन वनवासियों को उसका लाभ मिला लेकिन ये खुद को आदिवासी हितैषी बताने वाली सरकार पूरी तरह के आदिवासी विरोधी है. यह हर दिन साफ होता जा रहा है.’
झारखंड में जलावन के उपयोग को ऐसे समझिये. यहां प्रधानमंत्री उज्ज्वला गैस योजना के तहत कुल 26.30 लाख लाभार्थियों को गैस कनेक्शन दिया गया. इसमें 15.78 लाख लोग सिलेंडर में दोबारा गैस नहीं भरवा सके. यह संख्या लगभग 60 फीसदी होती जिन्होंने गैस दोबारा गैस नहीं भराई.
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फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में लातेहार और पश्चिमी सिंहभूम जिला सबसे अधिक सघन वन क्षेत्र वाले इलाकों में से हैं. पश्चिमी सिंहभूम जिले के सारंडा वन क्षेत्र के ममार गांव के निवासी इंदा जामदा के घर में गैस सिलेंडर नहीं, लकड़ी पर ही खाना बनता है. उनके पड़ोस में भी सूखी लकड़ी पर ही खाना बनता है. जाहिर अभी भी जलावन का ही उपयोग कर ये दो समय का खाना खा पा रहे हैं.
ऐसे में हेमंत सोरेन सरकार का यह फैसला झारखंड के लाखों इंदा जामदा जैसे वनवासियों को एक और संकट में डालने के सिवा और कुछ नहीं करने जा रहा.
(आनंद दत्ता स्वतंत्र पत्रकार हैं)