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Thursday, 10 April, 2025
होममत-विमतदिल्ली में कोविड पर नाकामी को लेकर अरविंद केजरीवाल के पास ख़त्म हुए बहाने

दिल्ली में कोविड पर नाकामी को लेकर अरविंद केजरीवाल के पास ख़त्म हुए बहाने

आप सरकार सोचती थी कि आंकड़ों से छेड़ख़ानी करके, वो कोविड पर क़ाबू कर लेगी, लेकिन जब शवों के ढेर लग जाएं, तो फिर आंकड़ों से फर्क़ नहीं पड़ता.

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वैश्विक महामारी के जीवन में, मार्च अब जून में बदल चुका है, और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की सरकार, ज़िंदगियां बचाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है. ख़राब बात ये है कि अब वो हर किसी के ऊपर आरोप मढ़ रही है, और कोविड-19 के डेटा में हेर-फेर करके, ये बता रही है कि सब कुछ ठीक-ठाक है.

लॉकडाउन का पूरा मकसद यही था, कि कोविड मरीज़ों की होने वाली भरमार के लिए, चिकित्सा ढांचे को तैयार किया जा सके. हमने मार्च-अप्रैल में ही देख लिया था, कि इटली, स्पेन और यूके में चीज़ें कैसी थीं.

हमें बहुत पहले चेतावनी मिल गई थी, कि ऐसी हालत में क्या होता है: ज़िंदगियां बचाई नहीं जा सकतीं. ज़िंदगियां इसलिए नहीं बचाई जा सकतीं, क्योंकि पर्याप्त संख्या में डॉक्टर्स, नर्सें, वॉर्ड पर्सन्स, ऑक्सीजन सिलेंडर्स, वेंटिलेटर्स, आईसीयूज, या सीधे से बेड्स नहीं होते. और जब लोग मरते हैं, तो शव वाहनों और अंतिम संस्कार की सुविधाएं भी कम पड़ जाती हैं.

इन सभी के बारे में हमें मजबूरन पूछना पड़ता है: दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आख़िर कर क्या रहे थे?

इतना बुरा शिकार बनने वाला, दिल्ली पहला शहर नहीं था, वो मुंबई था. किसी दूसरे देश को नहीं, केजरीवाल कम से कम मुंबई को ही देख सकते थे, कि वहां क्या हो रहा है और उसी हिसाब से तैयारी कर सकते थे. आज हमारे पास एक भी काम-चलाऊ अस्पताल नहीं है, जो केवल कोविड-19 को समर्पित हो. मुंबई ने एनएससीआई डोम को अस्पताल में तब्दील कर लिया है लेकिन उसका समकक्ष दिल्ली में कहां है?


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बेकार गया दिल्ली का लॉकडाउन

अरविंद केजरीवाल की ढिलाई की वजह से, दिल्ली ने अपना लॉकडाउन बेकार कर दिया है. वो सब तकलीफ़ें जिनसे शहर को गुज़रना पड़ा, उनका कोई मतलब नहीं था. वो सब मज़दूर जो अपना काम छूट जाने की वजह से अपने घर लौट रहे थे, उन्हें ये सब कष्ट उठाने की ज़रूरत नहीं थी. दिल्ली अब वैसे भी अब कम्युनिटी ट्रांसमिशन की चपेट में है-

आईसीएमआर भले ही राग अलापती रहे कि भारत में अभी कोई कम्युनिटी फैलाव नहीं है, और दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी, उसे इस्तेमाल करके यही दावा कर सकते हैं लेकिन केजरीवाल सरकार का इस बात को स्वीकारना, कि वो दिल्ली में कोरोनावायरस के लगभग 50 प्रतिशत मामलों में, इन्फेक्शन की सोर्स का पता नहीं लगा पाई, हमें वो चीज़ बताता है, जो कोई अधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं करेगा. दिल्ली सरकार एक ऐसे हमले के ख़िलाफ मेडिकल लड़ाई नहीं छेड़ सकी, जिसके आने का उसे पता था.

अगर दिल्ली की तैयारियों को इस बात से झटका लगा, कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार, या बीजेपी के नियंत्रण वाले शहर के नगर निगमों ने सहयोग नहीं किया, तो अरविंद केजरीवाल को खुलकर ये कहना चाहिए. अगर ये पांच साल पहले होता, तो बिना किसी हिचक के, वो मोदी पर आरोप मढ़ देते. आज उन्होंने मोदी सरकार के सामने समर्पण कर दिया है, और दूसरे बलि के बकरे ढूंढ़ रहे हैं, जैसे कि ‘बाहरी लोग’ और निजी अस्पताल.

आज अगर निजी अस्पताल कोविड-19 के मरीज़ों से ज़्यादा चार्ज कर रहे हैं, या उन्हें लौटा रहे हैं, या जान बूझकर उनके इलाज के लिए अपनी सुविधाएं इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, तो इसके लिए अरविंद केजरीवाल को दोष दीजिए, क्योंकि उन्होंने समय रहते इन मसलों को नहीं सुलझाया, और वो इसलिए, कि गाड़ी चलाते हुए वो सो रहे थे.

ऐसे समय जब उन्हें निजी अस्पतालों के सहयोग की ज़रूरत है, तो राजनीतिक कारणों से वो उन्हें, अपने दुश्मन में तब्दील कर रहे हैं. बिजनेस घरानों द्वारा चलाए जा रहे निजी अस्पतालों का नाम तो ख़राब है लेकिन केजरीवाल ने अपनी सारी नाराज़गी, दिल्ली के सबसे अच्छे अस्पताल पर निकाल दी, जिसे कोई बिजनेस घराना नहीं, बल्कि एक धर्मार्थ ट्रस्ट चला रहा है: सर गंगाराम अस्पताल.

जब दिल्ली के कोविड-19 अस्पतालों में अव्यवस्था फैली, तो आम आदमी पार्टी (आप) सरकार ने जल्दी से एक मोबाइल एप ‘दिल्ली कोरोना’ जारी कर दिया. नए तकनीकी क़दम उठाने में शुरुआती दिक्कतें आती हैं. इसलिए वो एप काम नहीं करती. वो बेड्स दिखाती है लेकिन अस्पताल कहते हैं कि बेड्स उपलब्ध नहीं हैं.

यहां दिक्कत ये है कि केजरीवाल समझ नहीं पा रहे, कि मसला सिर्फ बेड्स का नहीं है, बल्कि उन तमाम स्पेशल कोविड सुविधाओं का है, जो उनके साथ चाहिए, जैसे कि एयर हैण्डलिंग यूनिट्स. अस्पताल के किसी वॉर्ड को, कोविड से निपटने लायक बनाने में कई दिन लग जाते हैं, जिसमें मेडिकल स्टाफ के संक्रमित हुए बिना, मरीज़ों का इलाज किया जा सके.

आंकड़ों में हेरफेर

अरविंद केजरीवाल को ऐसा क्यों लगा कि उन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आएगी, इसका एक कारण ये है कि शुरू में, वो आंकड़ों में हेरफेर करके बच निकले. जब आप आंकड़े छिपा लेते हैं, तो आप ढोंग कर सकते हैं कि कि स्थिति नियंत्रण में है.

मई की शुरुआत से ही, हम ख़बरें देख रहे हैं कि कैसे श्मशान घाटों और क़ब्रिस्तानों से मिले मौत के आंकड़े, दिल्ली सरकार के दिए गए आंकड़ों से मेल नहीं खाते. हर दो कोविड मौतों पर, आप कहती है कि एक मरा है. इसी तरह टेस्टिंग में भी, जब पॉज़िटिव मामलों की संख्या बढ़ी, तो दिल्ली सरकार ने निजी टेस्टिंग लैब्स पर गुस्सा उतारते हुए, कुछ को बैन कर दिया, जिनमें सर गंगाराम अस्पताल की लैब भी शामिल थी.

हम जान बूझकर भी कम टेस्टिंग कर रहे हैं. ट्विटर पर एक नागरिक ने शिकायत की कि उसकी भाभी जो एक डॉक्टर थीं, खुद अपना टेस्ट नहीं करा सकीं. जिस टेस्टिंग लैब में उन्हें भेजा गया, उसे दिनभर में सिर्फ 10 टेस्ट करने के लिए बोला गया था-सिर्फ 10.

दूसरे शब्दों में, मोर्चे पर डटे कार्यकर्ताओं के टेस्ट भी नहीं किए जा रहे हैं. शैतानियत दिखाते हुए आप सरकार ने टेस्टिंग के मामले में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) को ही बलि का बकरा बना लिया है. सरकार ख़ुद को एक ऐसी बेबस क्रियान्वयन एजेंसी के तौर पर पेश करती है, जो टेस्टिंग में बस आईसीएमआर की गाइडलाइन्स लागू करा रही है.

सच्चाई ये है कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है, और आईसीएमआर के संकीर्ण दिशा-निर्देशों का विरोध करना तो दूर, केजरीवाल सरकार ने खुद अपनी गाइडलाइन्स जारी करके, उन्हें और संकीर्ण बना दिया. इसने कोविड के पक्के मरीज़ों के सम्पर्क में आए, लक्षण वाले लोगों को भी, टेस्ट कराने से वंचित कर दिया.

भारतीय संविधान में जीने के अधिकार के वादे के इस खुल्लम–खुल्ला उल्लंघन को, दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने पलटा, और राजनीतिक रूप से बेअसर हो चुके केजरीवाल ने, उप-राज्यपाल के खिलाफ मुंह नहीं खोला, जैसा कि वो पांच साल पहले करते.

केजरीवाल ने आंकड़ों में हेराफेरी को अपनी कोविड-19 पॉलिसी के केंद्र में कर लिया है, क्योंकि अतीत में शिक्षा के क्षेत्र में, आंकड़ों की हेराफेरी से उन्होंने बहुत फायदा उठाया है.

दिल्ली सरकार के स्कूलों में, पढ़ाई में कमज़ोर छात्रों को बोर्ड इम्तिहान में बैठने नहीं दिया जाता, और उनसे कहा जाता है कि अपनी पढ़ाई, पत्राचार के माध्यम से जारी रखें. इसकी वजह से दिल्ली के सरकारी स्कूलों में, पास प्रतिशत इस हद तक बढ़ गया, कि सरकार ख़ुद ही अख़बारों में अपनी पीठ थपथपाते विज्ञापन छपवाकर, दावा करती रहती है कि उसके स्कूल, निजी स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. दिल्ली की सियासत में इस चालबाज़ी पर किसी ने सवाल नहीं उठाएं हैं. तो फिर कोविड के मामले में आंकड़ों की हेराफेरी से, केजरीवाल को उसी तरह का फायदा क्यों नहीं मिलेगा?


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इसका जवाब आंकड़ों में नहीं, बल्कि ग्राफ्स, चार्ट्स और बेमतलब प्रतिशतों की सच्चाई से बाहर मिलेगा. हम झूठ-सफेद झूठ- और आंकड़ों से आगे निकल चुके हैं. शव वाहनों के भीतर जब लाशों के ढेर लगते हैं, तो कोई आंकड़ों की परवाह नहीं करता.

अभागे नागरिकों को मारे-मारे फिरना पड़ता है, पहले टेस्ट कराने के लिए, फिर अस्पताल में बेड पाने के लिए, और उसके बाद अंतिम संस्कार के लिए. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि दिल्ली में कोविड मरीज़ों के साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव हो रहा है. इस सब का आंकड़ों से कोई सरोकार नहीं है. अरविंद केजरीवाल के बहाने जल्द ही ख़त्म हो जाएंगे. जो गड़बड़ी उन्होंने फैलाई है उसका ख़ामियाजा भुगतना लाज़िमी है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

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